!! उद्धव प्रसंग !!
{ प्रेम-दशा }
भाग-11
निरस्यते येन दिशा अमंगलम् ।
( श्रीमद्भागवत )
मैं उद्धव !
पूरी रात्रि बीत चुकी थी…नन्द राय और यशोदा मैया के साथ “कृष्ण चर्चा” करते करते पूरी रात बीत गयी ।
वो तो देहातीत हो गए थे बाबा… कृष्ण की याद में ।
और मैया यशोदा… वो तो अपने अंक में ही कृष्ण को महसूस करते हुए… भाव जगत में पहुँच गयी थीं ।
एक मैं ही था… जो अभी तक इस देह के धर्म बन्धन से चिपका हुआ था ।
इन माता-पिता के प्रेम राज्य में प्रवेश करने का मुझ जैसे भावहीन मनुष्य को कहाँ अधिकार था ।
सो मैं प्रणाम करके अपने स्थान से उठा ।
ब्रह्म मुहूर्त का समय हो गया है ।
स्नान – सन्ध्या तो कर लूँ !
पैदल ही निकल गया था यमुना के लिए ।
शीतल हवा चल रही थी… यमुना की लहरें उन्मत्त थीं ।
फूलों से लदे हुये… वृक्ष थे… हाँ… पक्षियों का कलरव अब सुनाई दे रहा था… ।
मैंने अपने वस्त्र उतारे… कृष्ण ने बड़े प्रेम से मुझे वैजयंती की माला पहनाई थी… वह भींगे नही… इसलिये मैंने उस माला को भी उतार दिया ।
और मैं यमुना में स्नान करने के लिए उतरा ।
आह ! कितना सुंदर और निर्मल जल था… यमुना का ।
उस जल में से तुलसी और चन्दन की सुगन्ध आरही थी ।
बिल्कुल वैसी ही सुगन्ध जैसी मैंने कृष्ण चरणों में अनुभव की थी ।
ओह ! यमुना का जल भी कृष्ण के रंग की तरह नीला था…
ऐसा लग रहा था जैसे कृष्ण नहा के निकला हो… और उसका रंग निकलता गया… इस यमुना में ।
मैं उद्धव… मथुरा में भी हैं यमुना… पर जो आनन्द वृन्दावन के यमुना में मुझे आज आया… वैसा आनन्द मथुरा में स्नान करते समय नही आया था ।
मथुरा में यमुना स्नान करते हुए मैंने कृष्ण को कहाँ देखा है !
पर इस भूमि की यमुना में तो वह घण्टों खेलता था…दिन भर इसी कालिन्दी के कूल पर ही तो उसकी लीला चलती रहती थी ना !
सच में आज जैसा आनन्द स्नान का ..मुझे आया… आज तक नही आया था… ।
मैं तो अपने गुरुदेव बृहस्पति के साथ आकाश गंगा में कितनी बार स्नान किया हूँ… पर इस यमुना की बात ही अलग है ।
लहरें उठ रही हैं… ओह ! मुझे तो ऐसा लग रहा है मानो मुझे ही नहलाने के लिये यमुना आज उन्मत्त हो रही है ।
उद्धव ! तू धन्य है… जो कृष्ण की कृपा से तुझे इस प्रेम की भूमि वृन्दावन के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ…तू धन्य है ।
रेशमी पीताम्बरी पहनी थी मैंने… स्नान के बाद ।
कुशा के आसन में बैठा…और गायत्री मन्त्र का जप किया…
फिर सन्ध्या इत्यादि…करके… मैंने अपने नेत्र खोले ही थे कि…
मेरे चारों ओर ग्वालों की मण्डली आगयी थी… मुझे घेर कर सब लोग खड़े थे… मुझे वो बेचारे ग्वाले देखते रहे… अपलक ।
कान्हा आया है आपके साथ ?
बस इतना ही पूछा था उन ग्वालों ने ।
अभी तो नही आये, पर -… मैं इतना ही बोला था… पर मेरे इस बोलने का परिणाम ऐसा होगा… मैंने सोचा भी नही था ।
मुझे लगा कि… यमुना सूख गयी ।
यमुना के थोड़े से ही जल में… कछुओं की भरमार है ।
मैंने घबड़ा कर चारों ओर जब देखा… तो स्तब्ध हो गया था मैं… पूरा वृन्दावन जल गया था… मानो एक क्षण में दावानल ने पी लिया था… पूरे वृन्दावन को ।
हरे पत्ते झुलस गए थे… पेड़ जल उठे थे ।
मैं उद्धव… काँप गया… “कृष्ण नही आये”…मात्र इतना ही तो कहा था मैंने… इतने में ही वियोग की इस विषम ज्वाला ने वृन्दावन को जला कर दग्ध कर दिया… तो ग्वालों की क्या दशा होगी !
घबड़ा कर मैंने ग्वालों की ओर देखा… तो मेरा कलेजा ही काँप गया ।
अभी अभी जिनका सौंदर्य देवों को भी लज्जित करने वाला था… ओह ! उनके शरीर काले पड़ गए थे ।
कल्पनातीत सूख गए थे उन ग्वालों के देह ।
मुझे तो सन्देह होने लगा था कि कहीं इनकी श्वांस भी चल रही है कि नही… ।
मैं उनके पास जाकर उनके देह में चेतना लाने का प्रयास कर ही रहा था कि… ।
अरे ! सुनी बाँसुरी”…एक ग्वाला तुरन्त उठकर खड़ा हो गया ।
मुझ उद्धव को कोई बाँसुरी सुनाई नही दी… पर इन सबको कृष्ण की बाँसुरी सुनाई दे रही थी ।
और आश्चर्य ! ये सब गोप कुमार पहले की तरह सुंदर और प्रफुल्लित हो गए थे ।
“कान्हा तो आगया”… ये कहते हुए वे सब ग्वाले दौड़ पड़े… ।
ओह ! यमुना फिर जैसी थी वैसी ही हो गयी ।
जल यमुना में पहले की तरह ही आगया ।
कछुये और मछलियाँ निर्भय होकर यमुना के गम्भीर जल में विहार करने लगे थे ।
सम्पूर्ण वृन्दावन पहले की तरह हरित हो गया…फूलों से वृक्ष लद गए ।
ये सब एक क्षण में ही हुआ था ।
ये सब क्या हुआ कोई नही समझ सकता ।
पर मैं कुछ न कुछ समझने लगा था… ये चमत्कार था प्रेम का ।
और ये समझ… ये प्रेम की समझ मुझे मिली… पिता नन्द और यशोदा मैया से ।
ये सब देखकर मेरा सिर चकराया…ये क्या !
मैं आँखें बन्द करके वहीं वापस बैठ गया था ।
मन ही मन में, मैं इस दिव्य चैतन्य धरा वृन्दावन को प्रणाम कर रहा था ।
तभी मुझे दधि मन्थन की ध्वनि सुनाई दी…
सुबह का समय हो रहा था… गोपियाँ दधि मन्थन कर रही थीं ।
मैं गुरु प्रदत्त मन्त्र का जप कर रहा था… पर दधि मन्थन की ध्वनि से… मैं मन्त्र ही भूल गया ।
वो ध्वनि थी ही इतनी मधुर… और उस ध्वनि के साथ साथ उन गोपियों के कंगन की ध्वनि जब मिश्रित हो रही थी… तब ओह ।
मैं तब देहातीत हो गया था… जब दधि मन्थन की ध्वनि… उसके ऊपर गोपियों के कँगन की आवाज… अब तो उसी लय में… उसी स्वर में… गोपियों ने कृष्ण के नाम, लीला, रूप का वर्णन करना शुरू कर दिया था… ।
उफ़ ! विरह वेदना के स्वर से जब गोपियों ने गाया… तब मुझे ऐसा लग रहा था कि देवों के गायक गन्धर्व भी लज्जित हो रहे होंगे ।
कण्ठ ध्वनि और मन्थन ध्वनि… और कंगन ध्वनि… ये सब मिलकर आकाश मण्डल में… तुमुल नाद की सृष्टि कर रहे थे ।
और ये शब्द जब उच्च उठकर आकाश में पहुँच रहे थे… तब यही शब्द विश्व के अमंगल का नाश कर रहे थे ।
मैं तो मन्त्र भूल गया… फिर याद करने की कोशिश करता हूँ मैं उद्धव… पर याद ही नही आरहा… गोपियों के इस प्रेम गीत के आगे…वो मन्त्र… वो वैदिक मन्त्र… वो महामन्त्र… मैं सब भूल गया ।
ध्यान करने बैठते हैं… पर ध्यान नही लग रहा…
तब उद्धव को लगा… मेरे इन मन्त्रों से ज्यादा प्रभावशाली तो ये “प्रेम के मन्त्र” हैं… जो ये गोपियाँ गा रही हैं ।
रोमांच होने लगा था उद्धव को…
अपने आपको खोने लगे थे उद्धव… इस वृन्दावन धाम में आकर ।
शेष चर्चा कल…
छाती जला करे है दिन रात… किसे पूछूँ ?
एक आग सी लगी है, क्या जानिए क्या है !


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