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August 2, 2025 5:23 am

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!! उद्धव प्रसंग !!-{ गोपी प्रेम की ध्वजा } भाग-12 : Niru Ashra

!! उद्धव प्रसंग !!-{ गोपी प्रेम की ध्वजा } भाग-12 : Niru Ashra

!! उद्धव प्रसंग !!

{ गोपी प्रेम की ध्वजा }
भाग-12

वन्दे नंद बृजस्त्रीणां पाद रेणुम्…
(श्रीमद्भागवत)

ओह ! क्या श्रृंगार था ।

क्यों न वह अपने पिय की प्यारी हो… ।

कितना अंतर है ना… इस वृन्दावन के प्रेमरस में भींगी गोपी में… और इस मिथ्या देह से देह को भोगने की कामना करने वाली एक सांसारिक नागरी में ।

हमारे तथाकथित प्रेम साहित्य अधिकांशतः ..दुर्भाग्य से… चुम्बन आलिंगन की केलि से भरे पडे़ हैं ।

हे भगवन् ! उधर की ओर हमारी विचारधारा प्रवाहित ही न हो ।

कहाँ तो ये मलमूत्र से भरे भांड के प्रति काम वासना… और कहाँ उस चिन्मय कृष्ण रूपी अस्तित्व के प्रति मधुर प्रेमरस !

कहाँ कामी कामिनी के साथ काम भोग विलासमय क्रीड़ा !

और कहाँ उस घट घट बिहारी परमात्मा के साथ आत्मरूपा गोपी का नित्य विहार ।

मैंने कल ही तो पूछा था अपने पागलबाबा से…

बाबा ! गोपी किसे कहते हैं ?

तब कितनी सरल भाषा में मुझे गोपी तत्व समझा दिया था मेरे पागलबाबा ने ।

गो… कहते हैं इन्द्रियों को… जिसकी समस्त इन्द्रियां कृष्ण रस को पी रही हैं… उसे ही तो गोपी कहते हैं ।

प्रियतम छवि नयनन बसी, पर छवि कहाँ समाय !

आँखों में जिसके वही बस गया हो… कानों से… उसी की मधुर ध्वनि सुनता हो… जीभ से… जो उसी का नाम रटन करता हो… पैरों से उसी की ओर जो बढ़ता हो… हाथों से उसी की सेवा करे…

सिर उसी के सामने झुके… वही तो गोपी है ।

गोपी अलग से साधना करती ही नही है…

जो करती है… अपने प्रियतम के लिए ही करती है… तो वही करना उसकी साधना हो जाती है ।

सहज… सरल…

नारद जैसे भक्ति के आचार्य ने ऐसे ही तो नही कहा…

यथा बृज गोपिकानां…( प्रेम हो तो बृज गोपिकाओं जैसा ) ।


मैं उद्धव ।

…वहीं यमुना के किनारे बैठा हुआ था… वृन्दावन के चिन्मयतत्व को…

देखकर चकित था… वृन्दावन का विरह… उफ़ !

तभी यमुना के किनारे मुझे गोपियों का समूह बैठा हुआ मिला ।

मैंने उस दिशा की ओर देखा… तो मुझे रोमांच होने लगा था… ओह ! कृष्ण की गोपियाँ यमुना में आई हैं… जल भरने आई हैं… पर बैठ गयीं… ।

चारों ओर गोपियाँ हैं… पर मध्य में ये कौन बैठा है ?

मुझे अच्छे से दिखाई नही दे रहा… कोई दिव्य आभा बैठी हुयी दीख रही है… ।

सब गोपियाँ शान्त हैं…पर आश्चर्य ! कभी वो “कृष्ण कृष्ण” कहते हुये…रोने लग जाती हैं… पर कुछ ही क्षण में… वहाँ का वातावरण हास्य विनोद से भर जाता है ।

मैं उद्धव ।

उठा अपने स्थान से… और धीरे धीरे उन गोपियों के समूह की ओर बढ़ने लगा था ।

पर ये गोपियाँ मुझे देख लेंगी तो मैं समझ कैसे पाऊँगा इन गोपियों को ?

क्यों कि मुझे देखते ही इन्हें संकोच होगा…

हाँ… उस लता कुञ्ज में छुप जाता हूँ… वहाँ से इन गोपियों की आवाज भी स्पष्ट सुनाई देगी…।

मैं उद्धव ।

उस कुञ्ज में जाकर छुप गया… मुझे गोपियों की वार्ता सुननी थी ।

ये गोपियाँ… स्वर्ग की अप्सराओं को भी मात दे रही थीं… इनका सौंदर्य ही इतना था… कोई श्रृंगार नही था…

अरे ! जब से कृष्ण गया है… तब से इन गोपियों ने श्रृंगार किया ही नही ।

न आँखों में काजल लगाया था…न होठों में ..लाली ।

पर नैसर्गिक सुंदरता विलक्षण थी इन गोपियों की ।

कोई गौर वर्णी थी… तो कोई सांवरी थी ।

शायद नित्य ही जल भरने ये सब आती हैं… और यहीं सब मिल जुलकर… अपने हृदय की ग्रन्थि को खोलती हैं ।

मैंने सुना… और जब मैंने सुना कि उनके हृदय की गाँठ में तो “परब्रह्म श्री कृष्ण” ही बंधा था… तब मेरे आश्चर्य की कोई सीमा नही थी ।

ओह ! जाग्रत में कृष्ण को याद करना… भक्त लोग करते हैं ।

पर स्वप्न में भी कृष्ण ही आरहा था इनके ।

जाग्रत भी कृष्ण और स्वप्न भी कृष्ण… ये क्या था…

मैं चकित होकर उन गोपांगनाओं की बातें सुनने लगा ।

उन सबने रात्रि में… जो जो स्वप्न देखे थे… वही आपस में सुना रही थीं… ।


मेरा सपना सुन !… मेरा सुन ना सपना ।

कितनी उतावली हो रही थी वह गोपी… सपना सुनाने के लिए ।

अच्छा ! इस गोपी का सपना सुन लो… एक दूसरी गोपी ने कहा… फिर वह उतावली गोपी खुश होकर अपना सपना सुनाने लगी थी ।

कल मेरे सपने में कृष्ण आया… उस गोपी ने कहना शुरू किया ।

मैं जल भरने के लिए यहीं यमुना आई थी… मैंने जल भरा… पर जल की मटकी जैसे ही उठाने लगी… मुझ से उठाया नही गया ।

मैं वहीं बैठ गयी… और रोने लगी… काश ! कृष्ण होता तो अवश्य आता… और मेरी मटकी भी उठा देता ।

मैं बस… हे कृष्ण ! हे गोविन्द ! हे नाथ ! हे प्यारे !…

बस यही बोले जा रही हूँ… और अश्रु बहाते जा रही हूँ… ।

तभी !…उस गोपी के चेहरे में आनन्द के भाव आगये थे…

मेरे सामने… श्याम सुंदर… नील वर्ण का मेरा कृष्ण… पीताम्बरी ओढ़े हुए… मोर पंख धारण करके… हाथ में बाँसुरी लेकर… मुस्कुराते हुए मेरे सामने खड़ा हो गया ।

सारी गोपियों ने उस गोपी से पूछा… फिर क्या हुआ ?

फिर क्या बताऊँ… उसने मेरे रोने का कारण पूछा…

तो मैंने कहा… श्याम सुंदर ! ये मटकी मुझ से उठ नही रही ।

बस मेरा इतना कहना ही था कि… अपने हाथों से मटकी उठा कर… मेरे सिर में रख दी ।

फिर क्या हुआ ? अन्य गोपियों ने पूछा ।

फिर ? फिर तो मेरे साथ ही साथ वो चलता रहा… और जैसे ही मेरा घर आया… वो भाग गया… ।

मैं चिल्लाई – श्याम सुंदर !…तभी मेरे पति ने मुझे सम्भाला… ।

जब उठी तो खाली हाथ थे मेरे… बस उन्हीं हाथों को मीजती हुयी घर के काम काज में लग गयी… बहुत रोना आया सखियों !

अच्छा ! अब मैं सुनाऊँगी अपना सपना…

दूसरी गोपी बोली ।

मुझे तो अब सोना ही अच्छा लगता है… जाग्रत में न सही… कम से कम… नींद में तो कृष्ण दीख ही जाते हैं ना !

अच्छा ! ये सब छोड़, क्या देखा सपना वो बता ?

एक ने कहा ।

मैं यमुना जी आई थी जल भरने… जल की मटकी सिर में रखी… और जब जाने लगी…तो होश कहाँ था मुझ में !

पैर में काँटा लग गया…कृष्ण होता तो निकाल देता… पर अब कौन निकालेगा…मटकी भी फूट गयी… और काँटा भी लग गया ।

बहुत रोना आया मुझे… सपने में ।

इतना कहते हुए वो गोपी चुप हो गयी थी…

आगे क्या हुआ बता ?

आगे !… मैं रो रही थी… तभी मुझे ऐसा लगा कि कोई मेरे सामने खड़ा है…तो मैंने सिर उठाकर जब देखा… तो आश्चर्य ! परमाश्चर्य !… मेरे सामने मेरे प्राण धन कृष्ण खड़े थे… ।

क्या हुआ मेरी प्यारी !…उनकी मधुर आवाज मेरे कान में गयी ।

मेरे पैर में काँटा लग गया… मैंने अपने आँसू पोंछते हुए कहा ।

ओह ! मैं निकाल देता हूँ… मेरे पास ही बैठ गए थे मेरे प्रियतम ।

और अपने हाथों से मेरे पैर के काँटे को निकालने लगे थे… ।

अब मुझे कहाँ परवाह थी काँटें की… मुझे तो लग रहा था… कि ये काँटा निकले ही नही… आह ! मेरे प्रीतम का मधुर स्पर्श !

काँटा निकाल दिया कृष्ण ने… और फेंक दिया ।

मेरे साथ ही साथ चले…

आप तो मथुरा गए थे ना ! फिर यहाँ कैसे ?

उस गोपी ने कहा… मैंने पूछा ।

इतना कहना था कि उस गोपी की हिलकियाँ बन्ध गयीं ।

पता है कृष्ण ने मुझ से कहा… हाँ ! मैं मथुरा गया था पर मेरा मन नही लगा मथुरा में… इसलिए लौट आया…

क्यों मन नही लगा ?

मैंने फिर पूछा… उस गोपी ने कहा ।

क्यों ? मथुरा में तो हमसे सुंदर सुंदर नारियां हैं… वहाँ तो खाने के लिए पकवान मिठाई हैं… घूमने फिरने के लिए भी स्थान हैं ।

पर गोपी ! तू नही है ना ! इसलिये मैं वापस वृन्दावन आगया ।

अपना सपना सुनाते हुए… गोपी धड़ाम से धरती पर गिर पड़ी थी ।

उद्धव कुञ्ज के लता रन्ध्र से… गोपियों की बातें सुन रहे हैं ।


तभी एक गोपी ने… मध्य में बैठीं दिव्य आभा प्रभा लिए हुए ..उन प्रधान गोपी से… कुछ पूछा ।

ये कौन हैं ?

जो दिव्य तेज़ से युक्त हैं…इनके तेज़ मण्डल के सामने सूर्य का प्रकाश भी छोटा सा लग रहा है… पर इनका तेज़ सूर्य की तरह ताप देने वाला न होकर… चन्द्रमा की तरह… शीतलता प्रदान करने वाला है ।

पर ये हैं कौन ?

हे राधिके ! एक गोपी ने सम्बोधन किया। ।

ओह ! ये राधा हैं… श्री राधा !

जिनका नाम लेने मात्र से मेरे श्री कृष्ण को भाव की तरंगें आने लग जाती हैं ?

कृष्ण बेसुध हो जाते हैं !

मैं उद्धव… मन ही मन इनको प्रणाम करने लगा ।

हे राधिके ! बताओ ना ! आपने क्या सपना देखा ?

एक गोपी ने श्री राधा से ही पूछ लिया था ।

राधा स्तब्ध हो गयीं… क्या सपना ?

फिर कुछ देर मौन रहीं… फिर एकाएक अश्रु प्रवाह चल पड़े ।

बताइये ना !… हे राधिके !… हम ही आप को नित्य आकर अपना अपना सपना सुनाती हैं… पर आपने आज तक नही सुनाया ।

क्यों ? सारी गोपियाँ जिद्द करने लगी थीं ।

रो पड़ी श्री राधा रानी…

भाग्यशाली हो तुम सब गोपियों… जिन्हें नींद तो कम से कम आती है… और नींद आती है… तभी तो स्वप्न देखती हो ।

और स्वप्न में ही सही…… कृष्ण मिलन का… कृष्ण दर्शन का सुख लुटती हो…इतना कहते हुए राधा के अश्रु पनारे मानो खुल गए थे ।

और उद्धव के देखते ही देखते… राधा के सारे वस्त्र भींग गए ।

हे गोपियों ! मेरा दुर्भाग्य तो देखो… जब से मेरे प्रियतम श्री कृष्ण हमें छोड़कर गए हैं… तब से मेरी नींद भी अपने साथ ले गए ।

फिर हँसी… श्री राधा ।

आँसू और हँसी के साथ साथ बोले जा रही थीं…

नींद ही नही आती तो सपना कहाँ से देखूंगी… और सपना नही देखूंगी तो तुम लोगों को सुनाऊँगी कहाँ से ?

इतना कहते हुए राधा मूर्छित ही हो गयीं ।

उद्धव देख रहे हैं इन सारे दृश्य को… वो चकित हैं…

उनके समझ में नही आरहा कि… इस प्रेम की भूमि में ये हो क्या रहा है… इनकी दृष्टि में सपना और जाग्रत सब एक ही है ।

हम ज्ञानी लोग तो कहते हैं… सपना मिथ्या है… जाग्रत सत्य है ।

पर इन प्रेमियों के लिये… इन गोपियों के लिए… प्रीतम सपने में है ..तो सपना सत्य है… प्रीतम जाग्रत में है तो जाग्रत सत्य है ।

और प्रीतम जाग्रत और स्वप्न दोनों में है… तो असत्य की सत्ता ही नही रही… सब सत्य है… सब सत्य ।

उद्धव समझने की कोशिश कर रहे हैं…

पर समझने की कोशिश से प्रेम कहाँ समझ में आता है !

इसके लिए तो “समझ” को ही छोड़ना पड़ेगा…और डूबना पड़ेगा… मिटना पड़ेगा… ।

शेष चर्चा कल…

न कामुका हैं हम राजवेष की
न नाम प्यारा यदुनाथ है हमें ।
अनन्यता से हम हैं बृजनाथ की
विरागिनी, पागलिनी, वियोगिनी ।

ये है गोपी प्रेम !

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