!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 74 !!
श्रीराधा द्वारा “प्रेम सिद्धान्त” का निरूपण
भाग 3
उद्धव की आँखें खुली की खुली रह गयीं……..ऐसा विलक्षण प्रेम !
सखी ! प्रेम स्वयं के सुख का नाम नही है …………….श्रीराधा रानी फिर समझानें लगीं थीं ………….
वो सुखी हैं ना ? सखी ! अगर वे सुखी हैं ………तो हम क्यों दुःखी हों ……..उनके सुख में सुखी रहना ही तो प्रेम है ना !
मेरा सबसे बड़ा धर्म यही है ………जिससे मेरे प्रियतम सुखी हों ।
मेरा सबसे बड़ा कर्मयोग यही है कि मैं उन्हें सुख पहुँचाऊँ ।
सब कुछ मेरे प्रियतम ही हैं ……….मेरे प्रियतम के सिवा सब कुछ मिथ्या है ……….यही ज्ञान मेरे लिए सर्वश्रेष्ठ है ।
ये बन्धन है …..तो बन्धन ही मेरे लिए प्रिय है ….मुझे मुक्ति नही चाहिये ।
सखी ! मुझे वे नरक भेज दें या स्वर्ग …….या मुक्ति दें…….मुझे इन सबसे कोई मतलब नही है ……मेरे प्रियतम को मुझे नरक भेज कर प्रसन्नता होती हो …….तो वो नरक मुझे स्वर्ग से भी प्रिय होगा ।
मेरे प्रियतम सब कुछ जानते हैं………वो मेरा ख्याल हर पल रखते हैं ……सखी ! मैं भी तो बहुत दुःख देती थी ना उन्हें ……..बारबार मान कर जाना ……..रूठ जाना ………..मैने ही उन्हें हाथ जोड़कर प्रणाम करते हुये कहा था …..नाथ ! चले जाओ मुझे छोड़कर …..मैं कितना दुःख देती हूँ आपको……..मानिनी बनी रहती हूँ ………आप मुझे मनानें के लिये कितना कष्ट उठाते हो ….चले जाओ आप !
मैं उनसे नित्य कहती थी ………..सखी ! एक दिन मैं देवता को मना रही थी…….देवता के मन्दिर में मैने प्रार्थना की …….हे देवता ! मेरे कन्हाई को मुझ से दूर कर दो ……..क्यों की मैं अभिमानिनी हूँ ……..मैं उन्हें कष्ट के सिवा कुछ नही देती ………….वो मुझ से दूर चले जायेगे ना ……..तो सुखी रहेंगें ।
बस ………..देवता नें भी सुन ली मेरी प्रार्थना …..और……….
इतना कहकर श्रीराधा रानी फिर रोनें लगीं ………
मेरी प्रार्थना मेरे प्रियतम ने भी सुन ली थी………वो उदास होकर वहाँ से चले गए…….मैं देखती रही उन्हें……पर रोका नही…….क्यों की उनका यहाँ से जाना ही ठीक था……अब वो खुश होंगें …….आहा ! श्रीराधा जी ये सब कहते हुये…….संज्ञाशून्य हो गयी थीं ।
उद्धव जी चकित भाव से सुनते रहे , देखते रहे ……..
प्रेम सिद्धान्त का कितना सुन्दर वर्णन किया था श्रीराधा रानी नें ।
सच्चा प्रेम “स्वसुख” नही …..प्रिय के सुख की काँक्षा करता है ।
शेष चरित्र कल –


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