!! उद्धव प्रसंग !!
{ प्रेम कुञ्ज में महाज्ञानी उद्धव }
भाग-13
जानीमस्त्वां यदुपतेः पार्षदम् समुपागतम्…
(श्रीमद्भागवत)
यमुना के किनारे बैठीं गोपिकाएँ एकाएक बोल उठीं…
भला पूछो – ये ललित लताएँ क्यों फूल रही हैं ! अरे ! ये निश्चित है कि इन्हें हमारे प्यारे ने छुआ है ।
ये कहते हुये सभी सखियाँ उठ गयीं..उन्हें सर्वत्र कृष्ण दीखने लगा था ।
अरी ! प्यारे के बिना स्पर्श के इन फूलों में इतनी प्रफुल्लता आही नही सकती… ।
अरी ! ये सुकुमार हिरणियाँ ! इनकी आँखें तो देखो… कितने प्रेमरस से भरी हुयी हैं… पक्का ! इन हिरणियों ने अपने कृष्ण को यहीं कहीं देखा होगा !
उद्धव… तमाल कुञ्ज के रंध्रों से ये सब देख रहे हैं… पर उन्हें क्या पता था… कि गोपियाँ भाव में बहते हुए… निकट ही पहुँच जाएँगी… !
अरी चातकी ! तू जा न ! उस मेरे साँवरे सजन के पास… मेरा संदेसा कहना… जायेगी ना ?
अरे ! सारस पक्षी ! तुम तो विरह वेदना के दर्द को समझते हो ना… तो जाओ… मेरे प्रियतम को जाकर मेरी वेदना सुनाओ… जाओ !
हे पपीहा ! तुम तो “पिउ पिउ” ये पिय की रटन लगाते रहते हो…
तो आज क्यों नही रट रहे… बोलो ना… उसे पुकारो… शायद वो तुम्हारी पुकार सुनकर आजाये… बोलो पपीहा ।
और तो और…हे पवन देव ! ये सब हमारी विनती नही सुन रहे… पर आप तो देवता हो…हमारी एक विनती सुन लो…
जहाँ कहीं भी मेरे प्रियतम हों…उनके पैरों की थोड़ी धूल लाकर दे दो ।
उसे मैं इन विरह में जलती हुयी आँखों में लगाऊंगीं… हाँ… इस विरह व्यथा में… वह प्यारी धूल ही संजीवनी का काम करेगी ।
तभी… श्री राधा जी “हा कृष्ण” कहते हुए मूर्छित ही हो गयीं ।
हाय री ! ये प्रीतम की याद !…तब क्या था और अब क्या है !
जो कृष्ण कभी आँखों के आगे से टलते नही थे… सदा पलकों पर रहते थे… हाय ! आज उनकी कहानी सुननी पड़ रही है ।
तभी तमाल के कुञ्ज में ललिता विशाखा, ये सखियाँ प्रवेश कर गयीं ।
उद्धव को देखा… तो चौंक गयीं…
देखती रहीं…
अब सारी गोपियाँ उसी कुञ्ज में आगयी थीं… ।
ललिता ने अपनी सखी विशाखा के कान में कहा… कृष्ण जैसा लगता है ना ?
रंगदेवी ने सुदेवी से कहा… इसका वर्ण भी हमारे प्रीतम जैसा ही है ।
पीताम्बरी भी हमारे प्यारे की तरह ही डाला हुआ है ।
पर ये है कौन ?…
श्री राधा ने देखा.. ..उद्धव को… बड़े गौर से देखा…फिर मुस्कुराईं ।
“तुम यदुपति के पार्षद हो ना”… हम समझ गयीं ।
श्री राधा ने कहा ।
पर आपने कैसे समझा कि ये मथुराधीश के पार्षद हैं… ?
ललिता सखी ने श्री राधा जी से पूछा ।
भले ही पहली बार हमने इन्हें देखा है… पर खुशबू को पहचानती हैं ।
श्री राधा जी भाव में भर कर बोल रही हैं…तुम्हें छुआ है मेरे कृष्ण ने, है ना ?
उद्धव चकित होकर बस अपलक नयनों से कभी हरि प्रिया श्री राधा को… कभी अन्य प्रेममूर्ति गोपांगनाओं को… बस देख रहे हैं ।
हम उनके देह गन्ध से परिचित हैं… ।
आपका नाम क्या है ?
उद्धव… ।
हाँ उद्धव !… दूसरों की घ्राण शक्ति कैसी है हमें नही पता… पर हमारी नासिका इस सम्बन्ध में स्पष्ट है… ये हमारी नासिका उस सुगन्ध को नही भूल पा रही है… उद्धव !
अंग गन्ध से ही हमने तुमको पहचाना… कि तुम यदुपति के पार्षद हो… सही पहचाना ना ?
हाँ… सही कहा आपने… उद्धव ने कहा ।
ललिता सखी आगे आयीं… और उद्धव से बोलीं…
अच्छा उद्धव ! एक बात पूछें – इस मूल्यवान वेष-भूषा में तुम स्वयं सजकर आये हो… या तुम्हारे प्रभु ने इन कंगालिनी वनवासिनियों के समक्ष अपना ऐश्वर्य दिखाने के लिए… तुम्हें सजा-धजा कर भेजा है ?
और हाँ… एक बात मुझे भी पूछनी है… चन्द्रावली सखी सामने आईं… इस वृन्दावन में तुम स्वयं आये हो… कि तुम्हें किसी ने भेजा है ? पर ऐसा तो नही लगता कि तुम स्वयं अपनी इच्छा से ही आये… क्यों कि तुम तो राजपुरुष लग रहे हो… और राजपुरुषों का क्या काम इस वन में… जंगल में… !
लगता है कि तुम्हें तुम्हारे प्रभु ने ही भेजा है… उन्हीं के आदेश के चलते तुम आये हो… और ठीक भी है… स्वामी का आदेश सेवक को मानना ही चाहिये… है ना ?
पर उद्धव ! हमारी समझ में नही आरही एक बात.. कि तुम्हारे स्वामी ने इस गोचर भूमि वृन्दावन में तुम्हारे जैसे राजपुरुष को क्यों भेजा ?
ऐसा कौन-सा कार्य है… जो तुम्हे यहाँ सिद्ध करना है ?
उद्धव क्या बोलें !…वो तो इनकी प्रेम दशा देखकर ही स्तब्ध हैं ।
हाँ… रंगदेवी ने पूछा…उद्धव ! कहीं तुम ये कहना तो नही चाह रहे कि… हम लोगों की खबर लेने के लिए तुम्हारे स्वामी ने, तुम्हें हमारे पास भेजा है !
ना ! उद्धव ! ये बात हम नही मान सकतीं…
क्यों कि हमारी खबर क्यों लेने लगे वो मथुराधीश ?
हम उनकी लगती क्या हैं ?
न हम उनकी कुछ लगती हैं… न वे हमारे कुछ लगते हैं ।
उनके साथ हमारा कोई सम्बन्ध नही है… न कभी था ।
हाँ… उद्धव ! उनका और हमारा सम्बन्ध “प्रेम” का था…
पर ये प्रेम का सम्बन्ध “मानने” से ही तो जिन्दा रहता है ना ?
नही तो मर जाएगा… ।
लम्बी अवधि बीत चुकी है उद्धव… और इतनी लम्बी अवधि में इस प्रेम सम्बन्ध को उस तरफ से “न मानने” के कारण… ये सम्बन्ध तो छिन्न-भिन्न हो चुका है… ।
इसलिये तुम क्यों आये हो… इस वृन्दावन में उद्धव ! हम लोगों के समझ से परे की बात है ये तो ।
सुदेवी सखी आगे आई… मैं बताऊँ सखियों ! ये उद्धव क्यों आये हैं .!…अरे कृष्ण ने भेजा है इन्हें… सुदेवी ने स्पष्ट कहा ।
घड़ा तैयार होता है ना… तो वह तीन चीजों से तैयार होता है…
मिट्टी, चाक और डण्डा…
अब घड़ा भले ही तैयार होकर अहंकार करे कि… मुझे तैयार करने में किसी का हाथ नही… न चक्र का… न दण्ड का… ।
पर सच्चाई तो यही है कि… मिट्टी को वो कैसे अस्वीकार करे… क्यों कि मिट्टी ही तो उसमें है… ।
ऐसे ही उद्धव जी ! तुम्हारे कृष्ण भले ही… हम चक्र और दण्ड को… अस्वीकार करें… पर अपने माता-पिता रूपी मिट्टी को कैसे अस्वीकार कर सकते हैं ?
अरे ! माता-पिता के सम्बन्ध का मोह तो बड़े-बड़े ऋषि मुनि नही छोड़ पाते… उद्धव ! अब हम समझीं… अपने माता-पिता को सांत्वना देने के लिये… अपने सेवक को… यहाँ भेजा है… वाह !
खैर, ये तो अच्छा ही हुआ… पर हमें खेद है… कंगाल का बेटा अगर राजा बन जाता है… तो कंगाल माता-पिता के भाग्य में ऐसा ही अपमान लिखा होता है… ।
उद्धव चकित होकर देखने लगे गोपियों की ओर… ये बोल क्या रही हैं !
हाँ ..उद्धव ! चकित होने की आवश्यकता नही है… जिन्होंने अपने हृदय के वात्सल्य प्रेम से जिस को सींचा… लालन-पालन किया ।
आज उनकी खबर लेने के लिए… स्वयं न आकर… अपने सेवक को भेज दिया ? वाह जी !
हाँ… अब वो तो बड़े हो गए हैं ना… मथुराधीश जो हो गए हैं ।
स्वयं आने का कष्ट क्यों उठाने लगे ?
एक सखी अपने आँसुओं को पोंछती हुयी आगे आई… और हँसती हुयी फिर बोली…खैर, जो हुआ अच्छा ही हुआ… पर इसका तो जबाब दो उद्धव !… तुम्हारे देह पर जो ये मोतियों की लड़ी… सुवर्ण के आभूषण… हीरों के कुण्डल कानों में पहन कर आये हो… ये स्वयं पहन कर आये हो या तुम्हारे स्वामी ने अपने माता-पिता को दिखाने के लिये… अपने हाथों से पहनाएं हैं ?
माता-पिता को ये दिखाने के लिए… कि देखो ! कितनी चकाचौंध है… मेरी मथुरा में… कितना ऐश्वर्य है मेरी मथुरा में !
हाँ… इसी चकाचौंध को दिखाकर सांत्वना देने के लिए… शायद ये सब पहना कर तुम्हें भेजा होगा उद्धव !… है ना ?
पर तुम रास्ता क्यों भटक गए उद्धव ?
ये रास्ता तो है नही… कृष्ण के माता-पिता के घर जाने का रास्ता !
उधर से जाओ… वो रास्ता जाता है…
जाओ उद्धव !… माता-पिता बहुत खुश होंगे… उनके पुत्र का सेवक इतने गहनें पहन कर आया है… तो उनका पुत्र कितना ऐश्वर्यवान् होगा… कितनी चकाचौंध होगी… ओह !
ललिता सखी आगे आयीं… और अश्रुपात करते हुए बोलीं…
उद्धव ! सच में हमें याद नही किया कृष्ण ने ?
उद्धव ! सच बोलो… क्या मथुरा से चलते समय एक बार भी कृष्ण ने ये नही कहा… कि मेरी राधा कैसी है ? मेरी ललिता कैसी है ?
मेरी गोपियाँ कैसी हैं ?… एक बार भी नही कहा… ?
बोलो… उद्धव ! बोलो !
ये कहते हुए… सब गोपियाँ रोने लगी थीं…
उफ़ ! उनके आँसू… पनारे बन रहे थे… पनारे नदी बन रहे थे…
नदी देखते-देखते प्रेम का सागर बन गयी थी…
और उद्धव का ज्ञान उस “प्रेम सागर” में डूबने और उतरने लगा था ।
शेष चर्चा कल…
अदभुत डोरी प्रेम की , जामें बाँधे दोय ।
ज्यों ज्यों दूर सिधारिये , त्यों त्यों लाँबी होय ।।


Author: admin
Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877