!! उद्धव प्रसंग !!
{ अथातः प्रेम मीमांसा }
भाग-14
छिनहिं चढ़ें छिन उतरे, सो तो प्रेम न होय…
(कबीर दास)
साधकों ! मैं जब “भरत चरित्र” लिख रहा था… तभी मेरे मन में “उद्धव प्रसंग”… लिखने की भावना ने जन्म लिया ।
सोचा…रामायण मेरा विषय न होने के बाद भी “भरतचरित्र” लिख दिया…तो “उद्धव प्रसंग” तो मेरा अपना ही विषय है… क्यों कि आज तक 400 भागवत कथाएँ मैंने कही हैं… इसे तो मैं आनंद से लिख दूंगा ।
पर आज जब मैं इस प्रेम प्रसंग को लिखने बैठता हूँ… तो अपने आपको बहुत असहाय-सा महसूस करता हूँ… मेरे जैसा शुष्क हृदय का व्यक्ति इस प्रेम प्रसंग को लिखेगा ?
कल मैंने “आज के विचार” में… इस विषय पर अपना प्रसंग छोड़ा था…
“गोपियों के आँसू… पनारे बनें… पनारे नदी बनीं… नदी एक महासागर के रूप में परिणत हो गयी… और उद्धव उसमें डूबने लगे”
आज जब लिखने बैठा… तो मुझे लगा उस प्रेम सागर में उद्धव जब डूबा होगा… होगा… पर आज मैं ही डूब गया ।
ये आँसू रुकते ही नही हैं यार !
एक घण्टे हो गए… कुछ लिखा नही गया ।
अपना झोला डण्डा लेकर चल दिया… उसी यमुना के किनारे ।
धूप अच्छी थी… यमुना की बालू धूप में चमक रही थी ।
मैं वहीं जाकर बैठ गया… एकान्त था ।
हे मेरे प्रेम ! दिखा दे ना आज अपना वह अखण्ड नूर !
जिससे हृदय की कमल कलियाँ खिल उठें… !
ये अधीर आँखें तेरे प्रेम स्वरूप में ही अपना त्राटक सिद्ध कर लें ।
मेरे रग रग में तेरे प्रेम का विद्युत प्रवाह बहने लग जाए ।
और तेरे अनन्त मधुमय आकाश में… मेरे प्राणपक्षी विहार करने लग जाएँ… ।
आहा ! तब कैसा होगा तेरा वह परम प्रेम… कैसी होगी प्यारे ! तेरी मधुर रति… ।
सुन ! आज मेरी बात मान ले… दिखा दे न अपना वह प्रेम !
अरे ! मैंने ये क्या क्या कह डाला ।
क्षमा करें… मेरे साधकों ! आज थोड़ा लड़ने-झगड़ने का मन कर रहा था… अपने इस छैल छबीले नागर से ।
इसलिये यमुना के किनारे बैठकर उसी से कुछ बक-बक कर रहा हूँ ।
क्या पता इस बक-बक से ही वह रीझ जाए… और दिखा दे मुझे उस प्रेम का नूर…।
वैसे प्रेम ही है इस जगत का मूल !
प्रेम से ही है इस जगत की उत्पत्ति, पालन और संहार ।
वेद में लिखा है… आनंदम ब्रह्म…आंनद ही ब्रह्म है ।
अब आनन्द क्या है ?
आनन्द प्रेम का ही तो स्वरूप है…
विचार करके देखिये… ।
मैं “उद्धव प्रसंग” की शेष चर्चा आज नही लिख रहा… कल से लिखूंगा… ।
क्यों ?
इसलिये कि… दो दिन पहले जब मैं भागवत के “भ्रमर गीत” को पढ़ रहा था… तब मुझे भाव का उद्दीपन हुआ… ये बात है रात्रि के 2 बजे की… मुझे ऐसा लगा उस प्रसंग को पढ़ते हुए कि… जैसे भी हो… प्राण त्याग कर भी हो… पर कृष्ण मिलें ।
क्यों कि प्रेम हमारा कहीं भी होगा…वो अन्त्य में कृष्ण में ही जाएगा ।
चाहे प्रेम लड़की से हो ..लड़के का… या लड़के का हो लड़की से…
सच ये है कि… आत्मा की तड़फ़ है प्रेम… वो तड़फ़ रहा है… अब मन की वासना है… वो भटका देती है… अरे ! किसी खूबसूरत लड़की को चाहते हो तुम… या किसी अच्छे खासे मर्द को चाहती हो तुम… इसीलिए तड़फ़ है…
अब हम उस वासना की बातें सुन लेते हैं… और भागते हैं खूबसूरत लड़की और लड़के के पीछे… पर मिल भी जाए… अप्सरा… तो किसी को तृप्ति हुयी है… ?… या विश्व सुंदर पुरुष मिल भी जाए ..और संसर्ग भी हो जाए… तो क्या तृप्ति मिली ?
नही… विचार करके देखो… तड़फ़ अभी भी है ।
है ना ?… क्यों ?
इसलिये कि… मूल में, सबकी आत्मा परमात्मा को ही चाहती है… और जब तक आत्मा और परमात्मा का मिलन न हो जाए ..तब तक तड़फ़ बनी ही रहेगी । अस्तु ।
“उद्धव प्रसंग” में “भ्रमर गीत” है… वैसे सूरदास जी ने उद्धवप्रसंग को ही भ्रमर गीत का नाम दिया है… प्रेम की उच्चावस्था में स्थित हैं ये गोपियाँ… और भ्रमर के बहाने से… कृष्ण को ही सब कुछ सुना देती हैं… कभी गाली देती हैं… कभी अनुराग से भर जाती हैं…कभी क्रोध करती हैं… कभी रूठने का अभिनय करने लग जाती हैं… कभी कभी “उसका मुँह न देखेंगी”… ऐसी कसम खाती हैं ..और कभी ?…वो नही मिले… तो मर जायेंगी ये भी कहती हैं ।
ये सब मैंने पढ़ा… उस भाव जगत में खो गया मैं… मैं ही मानो एक कोने में उद्धव बना बैठा था… और प्रेम मूर्ति उन गोपांगनाओं को टकटकी लगाकर देख रहा था… कब ये आयेंगी और मेरे कान में “प्रेम मन्त्र” फूँक देंगी ।
मुझे नही कहलाना अब बृहस्पति का शिष्य… अब तो मैं इन्हीं वृन्दावन की भोली भाली गोपियों को ही अपना सदगुरु बनाऊँगा ।
पर… अब आगे जो मैं ( कल) कहूँगा… या लिखूँगा… उसे समझने के लिए… प्रेम के इन भाव स्तरों को समझना बहुत आवश्यक है ।
नही तो 21वीं सदी के हम लोग… कहीं इस प्रेम का गलत अर्थ न लगा लें… अगर लगा लिया… तो ये अपराध होगा… पाप होगा ।
प्रेम को आप समझिये… जैसे गन्ने का रस ।
अब गन्ने का रस जैसे-जैसे गाढ़ा होता जाएगा… वैसे ही उसके नाम और गुण में भी अंतर आता है… है ना ?
जैसे गन्ने का रस, वही गन्ने का रस गाढ़ा हो गया… तो उसका नाम हो जाता है..गुड़… वही गुड़ गाढ़ा होने पर चीनी बनती है… चीनी के गाढ़ा होने पर… मिश्री ।
साधकों ! ऐसे ही… प्रेम भी जब प्रगाढ़ होता जाता है… तो कैसे क्रमश बढ़ता जाता है… आप इसको समझियेगा ।
प्रेम ,… और जब प्रेम गाढ़ा हुआ… तो हो गया… स्नेह… फिर मान, प्रणय, राग, अनुराग, भाव, महाभाव, रुढ़, अधिरूढ़… ।
वैसे ये सब प्रेम के ही स्वरूप हैं…जैसे – गन्ने का रस ही… गुड़ चीनी मिश्री… ये सब है… पर गाढ़ता जैसे जैसे बढ़ती है… वैसे-वैसे रूप उसका नया-नया होता जाता है ।
अब सुनिये – स्नेह… प्रेम का प्रगाढ़ रूप… स्नेह ।
स्नेह – स्नेह उसे कहते हैं…
अपने प्रियतम को देखने, छूने, सुनने या बोलने में… हमारा अन्तःकरण द्रवीभूत हो जाए… हृदय पसीज जाए… तब समझो कि प्रेम ने स्नेह का रूप ले लिया ।
इसे देखने में… लगता है… कि मात्र दो आँखें ?
सामने मेरे प्रियतम हैं… और उन प्रियतम को देखने के लिए केवल दो आँखें ..?
और हद्द तो ये और कर दी उस विधाता ने कि… पलक और दे दीं ।
तो उन्हें जी भर के देख भी नही पा रहे… उफ़ ।
नही… नही… साधकों !… केवल देखने में ही अतृप्ति का भान नही होता ..सुनने में भी… उसकी बातें सुनकर कभी जी न भरे… तब समझना कि स्नेह का उदय हो गया ।
उसका नाम लेकर भी लगे… कि अभी तो कुछ लिया ही नही है उसका नाम !…तब समझना कि स्नेह का उदय हो गया ।
यहाँ प्रेम स्नेह में परिणत हो गया है ।
अब ये स्नेह भी जब गाढ़ा होगा… तब उसका नाम होता है… “मान” ।
अब थोड़ा मान भी आरहा है…
रूठ जाना… मन में ये भाव आये कि… वो आकर मनायेगा ।
नही मनायेगा… तो हम मानेंगे ही नही ।
जैसे श्री राधा रूठ जाती हैं… ये प्रेम की ऊँची अवस्था है ।
तुम कहाँ चले गए… ? क्यों चले गए ?
अब तुम मेरे हो…… सिर्फ मेरे हो ।
ये स्नेह का गाढ़ापन है… ।
ना मैं देखूँ और को, ना तोहे देखन देऊं ।
अब ये मान भी जब गाढ़ा हो जाता है… तब इसका रूप बनता है
“प्रणय”…प्रणय उसे कहते हैं… जिसमें दो का भान कभी-कभी छूटने लग जाता है… प्रेमी और प्रेयसि को ऐसा लगने लगता है कि हम दोनों…अब दो नही हैं… एक ही हैं ।
राधा अपना गौरांग वदन कृष्ण को देने लग जाती है… और कृष्ण का नील वदन स्वयं ओढ़ लेती है… क्यों कि अब दो हैं ही नही ।
“दोनों मिल एक ही भये, श्री राधाबल्लभ लाल”
इसे कहते हैं प्रणय… ।
अब यही प्रणय जब प्रगाढ़ हो जाता है…तब इसे ही कहा जाता है..राग ।
राग… “राग” उसे कहते हैं…प्रियतम के द्वारा दिया गया दुःख भी परम सुख लगने लग जाता है… प्रीतम जो भी दे… वह सुख ही है ।
वह दुःख मुझे दे ही कैसे सकता है ?…
ये भावना “राग” कहलाती है ।
अब यही राग जब प्रगाढ़ हो जाए… तो इसी को “अनुराग” कहते हैं ।
अनुराग प्रेम की एक विलक्षण स्थिति है ।
इसमें नए-नए भाव जगते हैं… आज प्रीतम से ऐसे मिलेंगे… नही आज ऐसे मिलेंगे… उन्हें ऐसे छूयेंगे… ऐसे निहारेंगे… उन्हें अपने बाहु पाश में भर लेंगे… ।
ओह ! केवल इतना ही नही… इस अनुराग की अवस्था में… जब मिलन होता है… तब कभी-कभी मिलन में ही वियोग घटित होने लग जाता है… प्रेमी को लगता है कि… हम मिले तो हैं… पर मिलने के बाद भी मिले नही हैं… ऐसा भान होने लगता है ।
बहुत काल से मिल रहे हैं… फिर भी आज मिलते हैं तो लगता है ..पहली बार मिलन हो रहा है…
सब बाधा देते हैं उस समय…हार भी बाधक है… इस अनुराग के मिलन में… अरे ! कंचुकी भी बाधक है… इतना ही नही ..हृदय की धड़कने भी बाधक हैं… उस अवस्था में प्रेमिन को लगता है कि… हृदय भी धड़कना बन्द कर दे । इस अवस्था का नाम है… अनुराग ।
इस अनुराग की अवस्था में प्रेमी को लगता है… नित्य संयोग मिलता रहे… अरे ! जैसे भी मिले… यहाँ द्रष्टव्य ये है कि… शरीर मुख्य नही है… हम बांस की बाँसुरी ही बन जाएँ… कम से कम कृष्ण के अधरों को तो नित्य पीती रहेंगी ।
ये अनुराग है ।
भाव और महाभाव…
इन दोनों स्थिति में… प्रीतम का दर्शन न होना, मृत्यु के समान असह्य कष्टप्रद होता है…पर साधक यहाँ ये ध्यान दें… कि ये जो कष्ट है… वो हमारे सांसारिक कष्ट और दुःख के समान नही होता ।
ये अलग ही टीस होती है… जिसने किसी सांसारिक लड़के या लड़की से भी डूब कर प्यार किया हो… वो कुछ कुछ… इस “टीस” को समझ सकता है… बस कुछ कुछ ।
प्रीतम को सुख मिलने पर भी “कहीं उसे दुःख तो नही हुआ”… ऐसी आशंकाओं से प्रेमी का मन भरा रहता है… यही भाव और महाभाव की अवस्था है ।
अब रुढ़ और अधिरूढ़…
इसका वर्णन कर पाना असम्भव-सा है… वर्णन शब्दों के द्वारा तो सम्भव है… पर उसे समझा पाना मुझे तो असम्भव-सा लगता है ।
हमारे वृन्दावनीय सिद्धान्त में कहा जाता है… अधिरूढ़ भाव में श्री राधा रहती हैं… ।
इस रुढ़ और अधिरूढ़ भाव में…
मुक्ति और ब्रह्म सुख ( ये सर्वोच्च सुख है ) और समस्त संसार के दुःख… को एक जगह एकत्रित कर लो .।…पर इस अधिरूढ़ भाव के सुख के समान एक बून्द भी नही है… मुक्ति या ब्रह्म सुख ।
और जब इस अधिरूढ़ भाव में… प्रीतम के वियोग का स्मरण होता है… तब संसार के तीनों कालों के दुःख भी… इस अधिरूढ़ भाव के दुःख के सामने… एक बून्द के बराबर भी नही हैं ।
कल्पना करो… ये प्रेम की प्रगाढ़ता कहाँ तक पहुंचती है !
उफ़ ! अब आगे लिखा नही जा रहा है ।
साधकों ! मैं दोपहर में 1 बजे यमुना के किनारे आगया था… 5 बज गए हैं… जा रहा हूँ… दर्शन करने बिहारी जी के ।
लिख लिया… प्रेम पर… हा हा हा हा हा हा हा ।
कैसा मजाक है ना… मेरे जैसा… प्रेम पर लिख रहा है ।
अरे ! यार ! “वही” लिखा रहा है… तो लिख रहा हूँ ।
कल से फिर उद्धव प्रसंग… शेष चर्चा कल…
“डूबा प्रेम सिन्धु का कोई, हमने नही उछलते देखा”


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