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August 2, 2025 9:01 pm

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!! राधा बाग में – “श्रीहित चौरासी” !!-!! मानवति श्रीराधा – “काहे कौ मान बढ़ावत है” !! : Niru Ashra

!! राधा बाग में – “श्रीहित चौरासी” !!-!! मानवति श्रीराधा – “काहे कौ मान बढ़ावत है” !! : Niru Ashra

!! राधा बाग में – “श्रीहित चौरासी” !!

!! मानवति श्रीराधा – “काहे कौ मान बढ़ावत है” !!

गतांक से आगे –

रसोपासना ने बड़े सुन्दर और सरल प्रयोग किए हैं …ये प्रयोग हैं अपने मन के सहज विकारों को सीढ़ी बनाकर सर्वोच्च स्थिति तक कैसे पहुँचे साधक । “विकारों को छोड़ो” मात्र मन को इस तरह आदेश देने से विकार समाप्त हो जायेंगे क्या ? अजी ! बड़े पापड़ बेलने पड़ते हैं ..किन्तु वो सब उपाय सामान्य जीव के लिए सम्भव नही है …इसलिये रसोपासना ने विकार को न मिटाकर इसी को आधार बनाने की सोची और ये सफल भी हो गया ।

राधा बाग में आज एक वेदान्त के अच्छे और सच्चे साधक आये थे …शाश्वत के ये मित्र थे …पुराने मित्र ….शान्त गम्भीर व्यक्तित्व था उनका । पागलबाबा का सत्संग किया दो दिन तक …तब उन्होंने जो प्रश्न किया उसका उत्तर बाबा दे रहे थे । बाबा की विशेषता है …जो जैसा प्रश्न कर्ता है उसको उसके समकक्ष का ही उत्तर देते हैं …ताकि वो समझ सके ।

भाव मनोविकार ही है …है ना ? ध्यान आप करते हो ओमकार का …या साँसों का ….किन्तु उससे मन एकाग्र भले हो, रस तो नही मिला …है ना ? “रस ब्रह्म” को आकार में देखो ….उस रस ब्रह्म की आल्हादिनी के साथ विहार देखो ….ये तो मन की कल्पना हुयी ना ? उस वेदान्त के साधक ने बीच में ही प्रश्न किया । बाबा हंसे …..तुम तो अहं ब्रह्मास्मि कहते रहते हो …वो क्या है ! वो क्या मन की कल्पना नही है ? वो साधक कुछ न बोल सका । बाबा बोले …वो रस ब्रह्म की कल्पना भी आपके मन को रस से भर देगी …..क्या नही ? सारा खेल मन का है ….ये तो जानते हो …..मन से चिन्तन करते करते …..वो चैतन्य है जड़ नही ….फिर वो चैतन्य जड़ मन को हटाकर तुम्हें अपने ही रंग में रंग देगा । बाबा की बातें सुनकर वो साधक अब सन्तुष्ट था ……क्यों की बाबा वेदान्त से ही बोल रहे थे ।

साधक ने प्रणाम किया ….और मौन हो गया । सच्चा साधक था …कच्चा होता तो नही मानता ।

अब बाबा ने गौरांगी से पद गायन के लिए कहा …आज “श्रीहित चौरासी” का ..चौहत्तरवाँ पद है ।

गौरांगी ने वीणा लेकर मुग्ध हो गायन किया था ।


             काहे कौं मान बढ़ावति है , बालक मृग लोचनि ।
        हौंव डरनि कछु कहि न सकति , इक बात सँकोचनि ।।

     मत्त मुरली अंतर तव गावत , जागृत सैंन तवाकृति सोचनि ।
    श्रीहित हरिवंश महा मोहन पिय , आतुर विट विरहज दुख मोचनि । 74 ।

काहे कौं मान बढ़ावति हौं ………..

गौरांगी का सुमधुर गायन हुआ तो मेरा और शाश्वत का ध्यान उसी वेदान्ती साधक पर था कि उन्हें ये कैसा लग रहा है ….पर वो झूम रहे थे …उनके नेत्र बन्द थे । अब बाबा ने ध्यान करवाया ।
सब रसिक समाज ध्यान में बाबा के साथ ही उतर गया था ।


                                  !! ध्यान !! 

सुन्दर कुँज में प्रिया जी बैठी हैं …उनके चरणों में हित सखी बैठी है…प्रिया जी हित सखी को करुणापूरित दृष्टि से देख रही हैं । हित सखी को रोमांच हो रहा है । वो आनन्द में डूबी हुयी है ।

श्याम सुन्दर आनंदित होकर अब प्रिया जी को आलिंगन करने के लिए आगे बढ़े ….उन्होंने आलिंगन किया । प्रिया जी प्रसन्न हुईं । पर ये रस रसिक इतने में कहाँ मानते । कपोल चूमने के लिए अब ये आगे बढ़े । कपोल भी चूम लिया प्रिया जी का । पर अब जैसे ही नीवी बंधन खोलने लगे ….तो प्रिया जी फिर ‘ना ,ना’, कहकर उठ गयीं । श्याम सुन्दर फिर दुखी । हित सखी देख रही है …प्रिया जी ने तो मान को फिर बढ़ा दिया । श्याम सुन्दर देखने लगे फिर हित सखी की ओर ….और संकेत में कहा ….”मना दो मेरी प्यारी को”।

अब हित सखी प्रिया जी को फिर मनाने में लग गयीं । हित सखी प्रिया जी को कह रही है ।


हे मृग नयनी ! हे मृग बालक के जैसे नयनों वाली राधे !
अब छोड़ो ना ! मान को क्यों बढ़ा रही हो ! छोड़ो ।

हित सखी फिर चरण दबाते हुए कह रही है ….किसी भी चीज की अति बुरी है ।

उसी समय श्याम सुन्दर ने वंशीनाद किया …श्रीजी के मान को दूर करने के लिए ।

सुनो ! सुनो ! कैसे बाँसुरी बजा रहे हैं …वो तुममें ही आसक्त हैं ….पर मुझे एक डर है ।

प्रिया जी ने जब ये सुना कि हित सखी कह रही है , मुझे डर है तो नयनों के संकेत से पूछा ..क्या डर है ? हित सखी बोली ..श्याम सुन्दर आपके ही चिन्तन में मग्न हैं ….उनका मन उनकी बुद्धि , उनका चित्त सब कुछ आपमें ही लग गया है ….जैसे – भृंगी का चिन्तन करते हुए दूसरा जीव भी भृंगी ही बन जाता है …ऐसे ही श्याम सुंदर भी कहीं आप बन गये तो प्यारी जू ! आप किससे रिसाओगी ? किससे प्यार करोगी ? इसलिए आप मेरी बात मानो ये मान छोड़ दो ।

प्रिया जी कुछ नही बोलीं ….तो हित सखी बोली …आप तो मोहन , महामोहन , रसातुर मोहन के दुःख को दूर करने वाली हो ….सदा करती आइ हो फिर आज क्यों नहीं ? बस इतना सुनते ही प्रिया जी सहज हो गयीं ….पर अभी मान इनका कम नही हुआ है श्याम सुन्दर के प्रति ।


पागलबाबा ने उन वेदान्ती साधक से पूछा …रस आया ?
उसने साष्टांग प्रणाम किया …पर वो मौन ही रहा ।
उसकी आँखें बता रही थीं कि रस में वो डूब गया है ।

गौरांगी ने आज का पद अंतिम में फिर दोहराया था ।

“काहे क़ौं मान बढ़ावति है”

शेष कल –

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