!! राधा बाग में -“श्रीहित चौरासी” !!
( रस पुष्टि – “हौं जु कहति इक बात सखी” )
गतांक से आगे –
“रस पुष्टि ही मान का उद्देश्य है” ।
ये बात रसोपासकों को समझनी चाहिये ।
अपने प्रीतम की अधीरता को देखने के लिये …प्रिया मान करती हैं ।
प्रीतम जब बिलख उठते हैं अपनी प्रिया को रूठते देखकर ….उस समय प्रीतम के हृदय में जब प्रेम समुद्र का ज्वार उछलता है उसको देखने के लिए प्रिया जी मान करती हैं । प्रिया का ये माप भी है कि प्रीतम के हृदय में कितना प्रेम है ….ये बीच बीच में जानने के लिए प्रिया मान करती हैं ।
प्रेम अटपटा है , इसका पंथ अटपटा है , इस पंथ की रीत भी अटपटी है ।
राधा बाग मोरछली के छोटे छोटे पुष्पों से इन दिनों भर गया है …दो बड़े मोरछली के वृक्ष हैं राधा बाग में । उसमें छोटे छोटे पुष्प खिलते हैं , पुष्प अत्यंत छोटे श्वेत होते हैं , पर उनमें सुगन्ध मादक होती है ।
उसी मादक सुगन्ध से महका हुआ है राधाबाग ।
इन दिनों वर्षा भी खूब हुयी है । इसलिये घनी हरियाली है ।
पक्षियों की कहें तो मोर ही ज़्यादा दिखाई दे रहे हैं । वो बाबा के ही आस पास घूमते रहते हैं । कभी कभी बोलते भी हैं ….तो उस समय बाग का वातावरण संगीतमय बन जाता है ।
बाबा तो रस में डूबे हुये ही हैं …..वो इन दिनों लोगों से मिल भी नही रहे …बस सत्संग के समय ही बाहर आरहे हैं , बाकी समय वो अपने छोटे से कक्ष में ही ध्यान मग्न रहते हैं ।
आज रसिक समाज सुबह से ही राधा बाग में इकट्ठा है …..राधा नाम की धुन यहाँ चल ही रही है …सुबह से ही भक्तों को भोजन प्रसाद यहाँ से खूब वितरण होता रहा है । अब सन्ध्या में बाबा छोटे से कक्ष से बाहर आये और मोरछली के वृक्ष के नीचे आकर बैठ गये ।
वीणा लेकर गौरांगी बैठी है …अन्य वाद्यवृन्द भी आगये हैं ….पखावज सारंगी आदि भी सुर बिठाकर बजाने लगे हैं । सब झूम उठे हैं । अच्छी संगत है आज । सुर लहरी में सब झूमने लगे थे । ये कुछ देर तक चला …फिर बाबा ने गौरांगी को कहा ….आज का पद गायन करो । आज की पद संख्या है पिचहत्तर । आज पिचहत्तरवाँ पद गायन होना है ….सबने वाणी जी खोल लिये …..वीणा के तारों को मिलाकर गौरांगी ने सुर छेड़ दिए थे ….आहा ! सुमधुर स्वर में गौरांगी का गायन आरम्भ हो गया था ।
हौं जु कहति इक बात, सखी ! सुनि काहे कौं डारति ।
प्राणरवन सौं क्योंव करत , आगस बिनु आरति ।।
पिय चितवत तव चंद वदन तन , तू अध मुख निजु चरन निहारति ।
वे मृदु चिबुक प्रलोइ प्रबोधत , तू भामिनी कर सौं कर टारति ।।
विवस अधीर विरह अति कारत , सर औसर कछुवै न विचारति ।
श्रीहित हरिवंश रहसि प्रीतम मिलि , तृषित नैंन काहैं न प्रतिपारति । 75 ।
हौं जु कहति इक बात सखी …………
बाबा कहते हैं ….वही मान है …अभी भी मान में ही बैठी हैं प्रिया जी ।
ये रूठना मनाना ये प्रेम के ही अंग है ..इससे प्रेम और पुष्ट होता है ….ये प्रेम में आवश्यक है ।
बाबा के मुख से ये सुनकर सब रसिक हंसे …..फिर सबने वाणी जी रख दी और अब ध्यान ।
बाबा अब ध्यान करवा रहे हैं ।
!! ध्यान !!
अब वो कुँज “मान कुँज” बन गया था । प्रिया जी मान कर बैठीं तो श्याम सुन्दर उदास हो गये ।
श्याम सुन्दर उदास हो गये तो कुँज सखियाँ सब उदास । यहाँ तक कि देखिये कमल पुष्प भी उदास होकर मुरझा से गए हैं । हित सखी कह रही है …वो इस समय सख्य रस से भरी है …इसलिये श्रीराधा जू को “सखी” और “तू” जैसे शब्दों का भी प्रयोग कर रही है ।
( पूर्व में कहा जा चुका है कि “सखी” वो तत्व है जिसमें शान्त रस से लेकर श्रृंगार रस तक सारे रस समाहित हैं )
“सखी !
तुम प्यारे की पीर क्यों नही जानती” हित सखी चरण दबाते हुए बार बार प्रिया जी से कह रही है ।
सुन रही हैं प्रिया जी ….पर दृष्टि नीचे है …..नीचे दृष्टि करके वो अपने कंकन में श्याम सुन्दर के प्रतिबिम्ब को देख रही हैं …..कि इनके मुखमण्डल में क्या प्रतिक्रिया हो रही है । हित सखी समझ तो रही है …पर वो भी तो इस प्रेम लीला का हिस्सा ही है । ये प्रेम लीला इसी तरह उछलती फिर शान्त होती फिर उछलती आगे चलती है । यही इसकी ख़ूबसूरती भी है । प्रिया जी श्याम सुन्दर की पीर भरी चेष्टाएँ अपने कंकन में देख रही हैं ……
ये लीला तीन घड़ी से चल ही रही थी ।
तीन घड़ी को कम न समझिये …ये तो प्रेम जगत है …तीन घड़ी तो युग युग बीत गये ऐसा लग रहा है इन रसिक शेखर को । किन्तु हित सखी समझा रही है …बड़े प्रेम से अपनी किशोरी जी से कहती है ।
अरी मेरी प्यारी सखी श्रीराधा ! मैं आपसे एक बात कहती हूँ सुनो ना !
अरी ! चरण दबा कर कह रही है हित सखी ।
क्या बात है आपने आज तक मेरी कोई बात नही टाली ….
मेरी हर बात मानी है फिर आज क्या हुआ ?
प्रिया जी ने सखी की ओर देखा …मैं तो हर बात मानती हूँ तेरी हे हित !
फिर इस एक बात को ही क्यों नही मान रहीं ? हित ने कहा ।
आप मेरी बात मान लो ना ! मान तो तज दो प्यारी ! हित हाथ भी जोड़ने लगी ।
प्रीतम का कोई दोष नही है ….फिर उनके साथ इतना अन्याय क्यों ? आप प्रेम से बतियाओ …दुःख पूर्ण बातें मत करो …देखो ! वो कितने दुखी हो रहे हैं । हित सखी श्याम सुन्दर को दिखाने लगीं । पर ये क्या प्रिया जी ने नीचे देखा …दृष्टि नीचे की ओर झुका ली ।
ये गलत बात है, श्याम सुन्दर आपकी ओर देख रहे हैं और आप नीचे देख रही हैं ? क्यों !
श्याम सुन्दर हृदय से रो उठे ….जब प्रिया जी ने उनकी ओर नही देखा तो …वो तुरन्त आगे बढ़ें और प्यारी जू की ठोड़ी में हाथ रखकर ….प्यारी , मेरी प्यारी मान तज दो …ये कहने लगे । पर प्रिया जी गम्भीर ही बनी रहीं ।
मेरी सखी ! क्यों इतनी कठोर हो गयी हो ? प्यारे आपको मना रहे हैं आपकी चिबुक को पकड़ कर प्यारी प्यारी कह रहे हैं उनकी बात सुन लो ना !
हित सखी की ये बात सुनकर अब तो प्रिया जी श्याम सुन्दर का हाथ हटाने भी लगीं …मानों वो कहने लगीं कि मुझे मत छुओ ।
ये देखकर हित सखी के नेत्र सजल हो गये ….हे सखी ! समय असमय कुछ तो देखा करो, दया आदि मन में कुछ तो धारण करो ….ये श्याम सुन्दर कितने दुखी हो रहे हैं …देखो तो ! एक बार देख तो लो …एकान्त में इनको हृदय से लगा लो , ये सखी यही चाहती है । बस इतना सुनते ही प्रिया जी ने दृष्टि उठाई ….और अपने श्याम सुन्दर को हृदय से लगा लिया ।
हित ! मैं इस कंकन में सब देख रही थी , अपने प्यारे को ही निहार रही थी । प्रीतम को हृदय से लगाये ही प्रिया जी ने हित सखी से कहा …तो हित सखी आनन्द से उछल पड़ी , उसके नेत्रों से आनंदाश्रु निकले पड़े , और उमंग में भरकर बोली ….
जय जय श्रीराधे ! जय जय श्रीराधे ! जय जय श्रीराधे !
पागलबाबा बोले …
कल मुझ से कोई पूछ रहा था …कि श्रीराधा रानी ये बार बार मान क्यों करती हैं ?
देखो ! इससे रस बढ़ता है …इससे रस की पुष्टि होती है …इससे प्रेम सिंधु में नयी नयी तरंगे उठती रहती हैं । प्रेम सिंधु की तरंग ही तो “निकुँज केलि” है ।
इसके बाद गौरांगी ने आज के ही इस पद का गायन किया था ।
हौं जु कहति इक बात सखी ……..
शेष चर्चा कल –


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