!! उद्धव प्रसंग !!
{ श्रीराधा के महाभाव की कुछ झाँकियाँ }
भाग-18
श्रूयतां प्रिय संदेशः…
( श्रीमद्भागवत )
उद्धव के मुख से “अहो” शब्द प्रकट हुआ ।
“अहो” शब्द तब निकलता है… जब परमआनन्द, उल्लास, विस्मय, ये सब एक साथ हृदय में घटित हो रहे हों… तब “अहो” शब्द हृदय से स्फुटित होता है ।
हे श्री राधिके ! आप निरुपमा हो ! विश्व ब्रह्माण्ड में आपके जैसा प्रेम शायद ही किसी का हो !
आप पूर्णार्था हो… समस्त पुरुषार्थों की समाप्ति कृष्ण प्रेम में ही है ।
और वह कृष्ण प्रेम…आपके अन्तःकरण में लवालव भरा हुआ है ।
हे श्रीजी ! आप “लोकपूजिता” हो… क्यों कि जिस स्थिति को पाने के लिये बड़े बड़े योगियों को कितने तप, कितने जप, कितने यज्ञ साधना से होकर गुजरने पड़ते हैं… आपको मात्र कृष्ण प्रेम से ये स्थिति सहज में प्राप्त हो गयी है… इसलिये आप लोक पूजिता हो ।
हे बृजगोपी ! आपके इस प्रेम की सब पूजा तो करते हैं… महिमा तो बड़े बड़े योगिन्द्र भी गाते नही थकते… पर प्रेम के बारें में “कहना”… और प्रेम “करना”… इन दोनों में अंतर तो है ही ना !
बड़े बड़े ज्ञानी… आपकी इस स्थिति को पाना चाहते हैं… क्यों कि सर्वाश्रय श्री वासुदेव में आपका अन्तःकरण एक होगया है… ।
अहो ! ऐसा समर्पण कहाँ देखने को मिलता है… सुनने में तो बहुत आया… पर दृष्टिगोचर आज ही हुआ है ।
हे बृजवधुओं ! संसार में जितनी साधनाएं हैं…उन समस्त साधनाओं का एक मात्र लक्ष्य यही है कि… हमारा मन ईश्वर में लगे ।
पर आश्चर्य ! आप लोगों की कोई साधना नही है… फिर भी कैसे उस उच्चावस्था को पा लिया आप लोगों ने… ?
प्रेम… आप लोगों का कृष्ण प्रेम… यही सर्वोच्च साधना है आपकी ।
उद्धव इतना बोलकर श्रीराधा के चरणों में प्रणिपात हुए ।
श्रीराधा उठीं… अपने आपको सम्भाला…
हाथ जोड़ते हुए बोलीं – आप कौन हैं ? आप कहाँ से आये हैं ?
मैं उद्धव… कृष्ण सखा उद्धव । मुझे मेरे स्वामी श्रीकृष्ण ने भेजा है मथुरा से ।
क्यों ? श्रीराधा आश्चर्य से पूछती हैं ।
सन्देश देने के लिए…श्रीकृष्ण ने अपना सन्देश देने के लिए मुझे यहाँ भेजा है…।
श्रीराधा हँसीं…ललिता ! सन्देश तो उसका होता है ना ! जो परदेश गया हो… पर मेरे प्रियतम परदेश कहाँ गए हैं ।
वो तो यहीं हैं… तुम क्यों झूठ बोल रहे हो मुझ से उद्धव ?
वे क्यों जायेंगे मुझे छोड़ कर… ?
उद्धव ! मेरे बिना वो एक पल भी नही रह सकते… मुझे नही पायेंगे ना, तो वो व्याकुल हो उठते हैं… तुम्हें पता नही है ।
उनके जिलाये तो मैं जी रही हूँ… वे ही तो मेरे प्राणों के प्राण हैं ।
वे अगर मेरे पास न हों… तो इस शरीर में प्राण रहेंगे ?… ना उद्धव ।
श्रीराधा ने इतना कहते ही… सामने कदम्ब वृक्ष की ओर देखा…
तब प्रफुल्लित श्रीराधा उद्धव से बोल उठीं… देखो ! देखो ! उद्धव !
वो रहे मेरे प्राणधन…देखो ! मुरली बजा रहे हैं… और मन्द मन्द मुस्कुरा रहे हैं…कैसे मेरी ओर ही अपलक नेत्रों से मुझे निहार रहे हैं ।
देखो ! उद्धव… फिर चहक उठीं श्रीराधा ।
मुझे बुला रहे हैं… देखो ना ! उस कदम्ब के नीचे ।
उद्धव !… ओ उद्धव !… श्रीराधा ने उद्धव को कुछ कहना चाहा… पर उद्धव तो चकित भाव से कदम्ब की ओर ही टकटकी बाँधें हैं…पर उन्हें कोई दिखाई नही दे रहा ।
उद्धव ! तुम भौंचक से कदम्ब की ओर ही देखे जा रहे हो… क्यों ?
क्या तुम्हें कन्हैया नही दीख रहे ?… या तुम कन्हैया को देखकर उनके प्रेम में तो नही डूब गए ?
पर ये क्या… श्रीराधा एकाएक उठ कर खड़ी हो गयीं…
अरे! कहाँ गए प्यारे ! कहाँ गए श्याम सुंदर ! कहाँ गए कृष्ण !
इस तरह पुकारनें लगीं… अचानक कृष्ण के दर्शन होने बन्द हो गए थे… श्री किशोरी जी को ।
श्रीराधा फिर विलाप करने लगीं ।
“हैं” ये क्या होगया उद्धव ! वो कहाँ चले गए ?
मेरे प्राणनाथ कहाँ छुप गए… ?
हाय ! वे मुझे अब क्यों नही दिखाई दे रहे… उद्धव कहाँ गए वे ?
इतना बोलते हुए श्रीराधा फिर धड़ाम से धरती पर गिर पड़ीं ।
एक आध घड़ी में ही फिर श्री राधा को जब होश आया…
उद्धव ! मैंने तुम्हें दिखा दिया ना… इसलिये उन्हें लाज आगयी ।
वे कहीं छुप गए… गलती हो गयी उद्धव ! मुझ से… मुझे वे कहते रहते थे… हे मेरी प्यारी ! ये तुम्हारी और मेरी अन्तरंगता है… इसे किसी के सामने प्रकट मत करना… ।
पर उद्धव ! आज मुझ से अपराध हो गया… मैंने तुम्हें बता दिया !
इसलिये वो चले गए…छुप गए… अब कब आयेंगे कुछ पता नही ।
ये कहते हुए श्रीराधा रोने लगीं…
फिर आँसुओं को पोंछती हुयी बोलीं – कहीं सच में ही प्रियतम ने मुझे छोड़ तो नही दिया ?
कहीं तुम सच तो नही कह रहे उद्धव ?… कि कृष्ण मथुरा चले गए ?
हाय ! सच में ! कृष्ण मथुरा ही चले गए… ओह !
श्रीराधा फिर व्याकुल हो उठीं… ।
तुम सत्य बोल रहे थे उद्धव ! वो चले गए मथुरा…
हम वृन्दावन वासियों को अनाथ बनाकर चले गए ।
हमारे लिए मात्र रोना छोड़ कर चले गए ।
पर कुछ समय बाद ही फिर श्रीराधा आँसुओं को पोंछती हुयी बोलीं…
पर उद्धव ! ऐसा कैसे हो सकता है ?
जो पल पल में मुझे अपलक देखा करते थे… ।
मेरे सुख के लिए… मुझे सुखमय देखने के लिए… वे बड़े से बड़े दुःख को भी सह लेते थे ।
मैं कभी कभी मानिनी बनकर बैठ जाती… तो वो मेरे पैर पकड़ कर हा हा खाते थे… ।
मेरा सुख ही उनके जीवन का लक्ष्य था… फिर मुझे दुःख देकर कैसे वो अपना सुख खो देते ?… नही उद्धव ! वो कहीं गए नही हैं… यहीं कहीं हैं… यहीं छुपे होंगे ।
इतना कहकर वो फिर चारों ओर देखते हुए…नयनों से ही ढूंढने लगीं थीं…।
कुछ क्षणों में फिर भाव बदला श्रीराधा का…
वो खिलखिलाकर हँसने लगीं थीं ।
हाँ… ठीक कह रहे हो तुम उद्धव !…वे मथुरा चले गए ।
अब मैं इस रहस्य को समझी…मुझे परमसुख देने के लिए वे मथुरा चले गए हैं ।
अब मैं सुखी हो गयी… मुझे परम सुख देने के लिए मेरे प्राण नाथ ने ये लीला की है… मुझे वे सब पुरानी बातें याद आयीं, जो उनमें और मुझ में हुआ करती थी… श्रीराधा ने हँसते हुए कहा ।
उनके जाने का कारण मैं जान गयी… ।
उद्धव ! मेरा अंग अंग देखो.. कितना प्रफुल्लित हो रहा है… मुझे आनन्द के कारण रोमांच हो रहा है… ओह !
पर ये क्या बात हुयी ?… उद्धव ने प्रश्नवाचक दृष्टि से श्रीराधा को देखा… । आपको सुख देने के लिए मथुरा गए कृष्ण ?
हाँ ..उद्धव ! तुम नही जानते !…मैं बताती हूँ तुमको…
मुझ में न तो कोई सदगुण था… न कोई अपार सौंदर्य… ।
बस दोष ही दोष भरे हुए थे मुझ में… उद्धव ।
पर मेरे प्रति मोह था मेरे मनमोहन का… उसी मोह के कारण ही उनको मुझमें सुन्दरता दिखाई देती थी ।
वे मुझे उसी मोह के कारण ही…प्राणेश्वरी ! सर्वेश्वरी ! मेरी हृदयेश्वरी ! ये कहते रहते थे… और कभी थकते नही थे ये कहते हुए ।
मैं बार बार उन्हें समझाती थी… प्यारे ! मैं कहाँ सुंदर हूँ ।
तुम इस भ्रम को छोड़ दो… मैं सुंदर नही हूँ… मुझ से तो बहुत सुंदरियाँ पड़ी हैं… इस पृथ्वी में ।
पर मेरी बातें मानना तो दूर… मेरी बातें सुनते हुए… वो अपने हाथों की माला मेरे गले में पहना कर… मेरे अधरों को वंशी बनाकर बजाते थे… “तुम ही मेरी सर्वस्व हो” आहें भरते हुए… यही कहते थे… ।
मैं कहाँ मूर्खा… मैं कहाँ अभिमानिनी… बहुत बोलने वाली मैं… प्रेम से रहित… कला चातुरी से हीन… उद्धव ! कुछ भी तो नही था मुझ में… ।
मैं तो सखियों के नाम बता बताकर… उन्हें कहती थी… वो मुझ से सुन्दरी हैं… जाओ उनके पास… ।
पर वे उन सखियों की ओर देखते भी नही थे… ओह !
पता है उद्धव ! एकाएक मुस्कुराते हुए श्री राधा ने कहा…
एक दिन मैं इनके मेरे प्रति बढ़ रहे मोह को देखकर चिंतित हो गयी… और मैंने एक सिद्ध देवता को मनाया… उनसे मैंने प्रार्थना की… कि मेरे प्रियतम का मेरे प्रति जो मोह है… उसे कम कर दो ।
ये प्रार्थना मैं देवता से नित्य करती थी… एक महीने तक ।
एक दिन सुबह सुबह मैं देवता से प्रार्थना कर रही थी… कि मेरे प्रियतम आगये… और उन्होंनें मेरी इस प्रार्थना को सुन ली ।
और चले गए मुझे सुख देने के लिए मथुरा… ।
हाँ… अब वहाँ सुखपूर्वक होंगे… है ना ?
वहाँ तो अच्छी अच्छी सुंदरियाँ होंगी… और मेरे प्राणनाथ की खूब सेवा करती होंगी ।
उद्धव ! मुझे तो आनन्द है कि मेरे प्राणधन मथुरा में खुश होंगे ।
इतना कहते हुए… फिर श्रीराधा की भाव दशा बदल गयी ।
नही नही… प्रियतम कभी मुझे छोड़ कर जा ही नही सकते ।
मुझ से अलग होना… ये सम्भव ही नही है ।
आह ! मेरा और उनका ऐसा अनोखा और दिव्य सम्बन्ध है… कि वो सम्बन्ध कभी मिट ही नही सकता… ।
उद्धव ! मुझे छोड़कर “वे” और उन्हें छोड़कर “मैं” कभी रह ही नही सकते ।
वे मैं हूँ… और मैं वे हैं । हम दोनों अलग ही नही हैं…
हम दोनों एक ही हैं… श्रीराधा ने स्पष्ट कहा ।
और मुख मण्डल प्रसन्नता से भर गया… फिर बोल उठीं –
उद्धव ! देखो ! वे कृष्ण फिर प्रकट हो गए… आह ! कैसा सुंदर रूप है ना ! उनका ।
अधरों पर मृदुमुस्कान फ़ैल रही है… ललित त्रिभंगी हैं ।
सिर पर मोर मुकुट है… कानों में कुण्डल हैं…
अरे ! देखो ! मेरे लिए वे बाँसुरी बजा रहे हैं… ओह !
उद्धव ! देखा तुमने मेरे श्याम सुंदर !…
ये कहते हुए… श्रीराधा का मुखारविन्द पूर्णिमा के चन्द्रमा की तरह खिल उठा था… श्रीराधा आनन्दातिरेक में, प्रेम सागर में कभी डूब रही थीं कभी निकल रही थीं ।
ये अचानक श्रीराधा हृदय के, प्रेम नदी में बाढ़ कहाँ से आगयी थी ?
और इस बाढ़ का कोई और छोर भी तो दिखाई नही दे रहा था ।
श्रीराधा वृन्दावन की रज में लोट रही थीं…
उद्धव ये सब देखकर विमुग्ध थे… ।
उनकी वाणी अवरुद्ध हो रही थी… उनकी बुद्धि जबाब दे रही थी ।
आगे क्या बोलें… ये उद्धव को समझ में नही आरहा था ।
ये तो प्रेम का महासमुद्र था… और उद्धव इसमें डूब गए थे ।
शेष चर्चा कल…
डूबे सो बोले नही, बोले सो अनजान,
गहरो प्रेम समुद्र को, डूबे चतुर सुजान ।


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