!! उद्धव प्रसंग !!
{ गोपी प्रेम पर सम्वाद – उद्धव और बृहस्पति का}
भाग-23
क्वेमास्त्रियो वनचरी व्यभिचार दुष्टा…
(श्रीमद्भागवत)
उद्धव ! तुम ये क्या कर रहे हो ?
उद्धव के गुरु बृहस्पति ने अन्तःकरण में बैठकर उद्धव से वार्ता करनी शुरू कर दी थी ।
आश्चर्य था बृहस्पति को कि इतना योग्य मेरा शिष्य…और वह इन गोपियों के सामने साष्टांग प्रणाम कर रहा है ।
उद्धव ! तुम इनको प्रणाम कर रहे हो !…इनको !… जिन्होंने वेद और शास्त्र की मर्यादा को तार तार किया ?…
बृहस्पति ने उद्धव को समझाना चाहा ।
उद्धव मुस्कुराते हुये देव गुरु बृहस्पति की बातें सुन रहे थे ।
ये स्त्री हैं… और तुम पुरुष… पुरुष होकर स्त्री के आगे झुक रहे हो… उसके चरणों में अपने आपको रख रहे हो… ऐसा क्या देखा तुमने उद्धव ? बृहस्पति को ये अच्छा नही लगा था कि उनका एक योग्य शिष्य… अब गोपियों का शिष्य बन गया है ।
ज्ञान के राजमार्ग को छोड़ कर…प्रेम की कुञ्ज गली में चल पड़ा था… और ये गली भी इतनी संकरी कि…इसमें दो भी नही आ सकते थे ।
उद्धव ! और ये स्त्री ही नही… जंगल में रहने वाली स्त्री हैं…
कमसे कम नागरी भी होती तो कोई बात थी… क्यों कि नगर की नारी कुछ तो सभ्य होती है… पर ये तो असभ्य… अरण्य में रहने वाली… वृन्दारण्य में रहने वाली…इनके आगे तुम झुक रहे हो !
क्यों ? क्या देखा इनमें ऐसा ?… बृहस्पति आज बोले जा रहे थे ।
उद्धव अभी भी कुछ नही बोले… बस मन्द मन्द मुस्कुराते रहे ।
उद्धव ! तुम क्षत्रिय हो… एक स्त्री के सामने कैसे झुक सकते हो ?
और फिर ये स्त्रियां तो व्यभिचारी हैं…
“नही ! ! ! ! !
…उद्धव अब चिल्ला पड़े थे…
सब कुछ बोलिये पूज्य !…पर ये गोपियाँ व्यभिचारी नही हैं !
क्यों नही हैं… तुम तो शास्त्र जानते हो… तुम तो वैदिक मार्ग के अच्छे ज्ञाता हो… क्या तुम भूल गए… कि अपने पति को छोड़कर… किसी परपुरुष के साथ जाना… व्यभिचार कहलाता है ।
अरे ! तुम अनुसूइया , अरुंधति, इनके पैर छूते तो मुझे अच्छा भी लगता…क्यों कि ये महान पतिव्रता हैं…पर ये गोपियाँ तो व्यभिचारी हैं… अपने पातिव्रत धर्म को छोड़कर… शास्त्र मर्यादा को तिलांजलि देकर…ये किस पथ में जा रही हैं…।
इनका धर्म था… अपने पति की सेवा करना… अपने पति का सम्मान करना…पर ये क्या कर रही हैं ? इन्होंने क्या किया ?
उद्धव सुन रहे हैं… देव गुरु की बातें… पर आश्चर्य ये हो रहा है कि… देवगुरु इन गोपियों को क्यों नही समझ पा रहे… ?
फिर उद्धव को हँसी आई… विधाता ब्रह्मा भी तो नही समझ पाये… देवाधिदेव महादेव… भगवान शंकर भी तब समझे… जब इसी रूप को धारण किया… गोपी ही बने । फिर ये देव गुरु क्या हैं ।
उद्धव शान्त भाव से सुनते रहे… देव गुरु की बातें ।
शास्त्रों की बातें… वेद में क्या कहा है… वेद में क्या लिखा है… ये सब सुनते रहे… सुनते रहे ।
फिर बृहस्पति ने कहा… कुछ तो बोलो… मैं तुम्हारे मुख से कुछ सुनना चाहता हूँ… उद्धव ! बोलो !
हमारे यहाँ पूर्वीय हिन्दी में एक शब्द है… छिनाल ।
साधकों ! मेरे पागलबाबा का शरीर भी बनारस का है… उस तरफ एक शब्द चलता है… व्यभिचार के लिए… छिनाल ।
मेरे बाबा इस शब्द का बहुत प्रयोग करते हैं… ।
छिनाल के बारे में मेरे बाबा का कहना है… ये शब्द संस्कृत का है ।
छिन्न + नाल = छिनाल… अपने मूल को जिसने छोड़ दिया… उसे ही कहा जाता है… छिनाल ।
अब विचारणीय विषय ये है कि… कौन है छिनाल ?
क्या हम छिनाल नही हैं ?
क्या हम अपने मूल को छोड़कर इधर उधर नही भटक रहे ?
हमारा मूल क्या है ?… क्या आधुनिक विज्ञान भी ये नही कहता कि… सारी एनर्जी… ब्लैक हॉल से ही निकलती है… और उसी ब्लैक हॉल में समा जाती है… फिर वह ब्लैक हॉल क्या है ?
क्या हम जिसे कृष्ण कहते हैं… काला… क्या वही ब्लैक हॉल नही है ?… उसी से सब कुछ प्रकट है… और उसी में सब कुछ सिमट भी जाता है… वह चैतन्य है… चिद् है ।
यही बात अब उद्धव बताने वाले हैं… अपने पूर्व गुरु बृहस्पति को ।
हे गुरुदेव ! आश्चर्य होता है मुझे कि, आप इन गोपियों को क्यों नही समझ पा रहे ?
पर फिर विचार करता हूँ… तो एक बात लगती है कि… इन्हें मात्र बुद्धि से नही समझा जा सकता… ये बुद्धि से परे का विषय हैं ।
आप क्या कहेंगे ? श्री कृष्ण क्या है ? श्री कृष्ण कौन हैं ?
उद्धव ने गुरु बृहस्पति की ओर देखा ।
ब्रह्म हैं… परब्रह्म हैं श्री कृष्ण… इसमें इतना सोचना विचारना क्या ? उद्धव ने कहा ।
श्री कृष्ण के बछड़ों को जब चुराया था विधाता ब्रह्मा ने… तब जो लीला दिखाई थी सृष्टि कर्ता ब्रह्मा जी को… आपको तो विदित ही है ।
और देवराज इंद्र ने…जब कुपित होकर बृज को डुबोने के लिए सातों दिन वर्षा की…तब नतमस्तक हुए थे देवराज । आपको तो पता ही है ।
हाँ… परब्रह्म हैं कृष्ण… बृहस्पति ने कहा ।
हे गुरुदेव ! मुझे क्षमा करें… अब आप बताइये…कि व्यभिचारी कौन हैं ?… ये गोपियाँ ? या हम सब…।
व्यभिचारी वो होता है… जो अपने मूल को त्याग कर इधर उधर भटकता है ।
हे गुरुदेव ! हम सब हैं व्यभिचारी तो… जो सत्यस्वरूप परमात्मा को छोड़कर… इस मिथ्या संसार के रिश्तों को ही अपना सब कुछ माने बैठे हैं ।
सही में पतिव्रता तो ये गोपियाँ ही हैं… ।
क्यों कि हे गुरुदेव ! इस जीव का सच्चा पति तो ईश्वर ही है ।
आपने कहा… “महान पतिव्रता अनुसूइया , अरुंधति इनके पैर छूते तो मुझे अच्छा लगता”… पर हे गुरुदेव ! जिनको आप पतिव्रता कह रहे हैं… वो तो हाड माँस के पति को ईश्वर मानती हैं… उन्हें तो हाड माँस के पति में ईश्वर बुद्धि करनी पड़ी… पर गोपियों ने जिसे अपना माना… उनको ईश्वर बुद्धि करने की भी आवश्यकता नही है… वो तो स्वयं साक्षात् ईश्वर है ।
फिर आप कैसे इन गोपियों को व्यभिचारी कह रहे हैं ?
उद्धव ने स्पष्टता से अपनी बात कही ।
हे गुरुदेव ! आपने कहा…ये स्त्री हैं…वो भी जँगली स्त्री ! असभ्य स्त्री !
हे गुरुदेव ! आपके मुख से ये बात शोभा नही देती…
स्त्री और पुरुष तो ये देह ही है ना ?… स्त्री पुरुष तो ये शरीर ही तो है ना… और ये शरीर तो मिथ्या है… झूठ है ।
फिर आपका ये कहना कि स्त्री हैं… या असभ्य स्त्री हैं… ये बातें ही आपकी निरर्थक हैं ।
उद्धव ने कहा… मेरी दृष्टि में तो सच्चा पातिव्रत धर्म का पालन तो इस जगत के इतिहास में इन्हीं का दिखाई देता हैं ।
इनका श्रीकृष्ण के प्रति रुढ़ भाव है… रुढ़ भाव का अर्थ है… कि कृष्ण को छोड़ कर… इनका मन कहीं ओर जाता ही नही है ।
हे गुरुदेव ! इनके पास तो अपना मन भी इनके पास नही है… श्रीकृष्ण में अपने मन को ये चढ़ा चुकी हैं… ।
और गुरुदेव ! पाप पुण्य ..धर्म अधर्म… वेद के नियम… शास्त्र के नियम उन्हीं के लिए तो लागू हैं ना… जिसका मन अपने पास हो… पर जिसका मन ही श्रीकृष्ण मय हो चुका हो… फिर उसके लिए क्या पुण्य और क्या पाप ?… ये सब गोपियाँ इस पाप पुण्य.. वैदिक नियमों से परे जा चुकी हैं । ये एक मात्र इस जगत की महान पवित्रतम जीव हैं… इनसे बड़ा शायद ही कोई हो… ।
इनके गाये गए… प्रेम के गीतों से… सम्पूर्ण जगत पवित्र हो रहा है ।
इसलिये मुझे लगता है… कि विश्व में वन्दनीय अगर कोई है… तो ये प्रेम की स्वरूपिणी गोपियाँ ही हैं… इसलिये मैं इनको एक बार नही… बारम्बार प्रणाम करता हूँ… और इनके चरणों में नही…
उद्धव हँसे… मेरे जैसा शुष्क हृदय वाला इनके इन पावन चरणों को छूने का अधिकारी भी कहाँ है ?
मैं तो इनके चरणों की धूल को प्रणाम करता हूँ…
और मेरी तो यही कामना है कि… मेरा अगला जन्म अगर हो… तो इसी श्री धाम वृन्दावन की धूल बनूँ… ताकि इन महाभागा गोपियों के पद रज मेरे मस्तक में लगे… जिससे मैं पावन हो जाऊँ !
ये कहते हुए… भाव में डूब गए थे उद्धव… ।
देव गुरु बृहस्पति को उद्धव की बातों से सन्तोष हुआ… वो प्रसन्न हुए… और उन्होंने भी इन गोपियों को प्रणाम किया था ।
उद्धव ! सच कहा तुमने ईश्वर प्रेम से बढ़कर और कुछ नही है ।
प्रेम सब कुछ है… यही सार है… देव गुरु ने यह स्वीकार किया ।
और उद्धव को आशीर्वाद देकर अंतर्ध्यान हुए ।
साधकों ! प्रेम से बड़ा कोई तप नही है…
प्रेम से बड़ा कोई धर्म नही है…
प्रेम से बड़ा कोई योग नही है…
प्रेम से बड़ा कोई ज्ञान नही है…
अरे ! प्रेम से बड़ा तो परमात्मा भी नही है ।
प्रेम के लिए तो परमात्मा भी तड़फ़ता है…तभी तो गोपियों के आगे वह नाचता है… शबरी के झूठे बेर खाता है… मिथिलानियों की गाली सुनता है ।
हे प्रेम जगत में सार, और कुछ सार नही ।
शेष चर्चा कल…


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