!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 78 !!
विरह जगावे दरद को – “भ्रमरगीत”
भाग 3
तुम्हारे लिये अच्छी बात होगी भ्रमर ! जीवन जीनें से अच्छा है हम मर जाती तो ठीक रहता ……….कमसे कमसे ये विरह का ताप तो कुछ कम होता ……पर ये सब जानते हुये भी वो हमें तड़फ़ाना चाहता है …..हमें घुट घुट कर जीनें के लिये मजबूर कर रहा है …..
ये मर गयीं तो मैं रुलाउंगा किसे ?
ऐसी सोच से हमें जिन्दा रखे हुये है वो …….श्रीजी नें कह दिया ।
अच्छा ! मैं समझ गया ……….आपको वो अधरामृत फिर चाहिये ना ? एक बार ही पिलाया, यही शिकायत है ना आपकी ।
तो हे स्वामिनी ! मैं मथुरा जा रहा हूँ ………..उनसे कह दूँगा ….एक पात्र में भर कर अधरामृत दे दो ……..श्रीराधा पीती रहेंगीं …।
ये सुनकर फिर हँसी श्रीराधारानी – अधर और अमृत ये दोनों अलग नही हैं मधुप ! उनके अधर ही अमृत हैं……उनके “अधर”
“अमृत” के आधार नही हैं……..स्वयं अमृत रस ही हैं और हे मधुप ! अगर उनके अधर से अमृत अलग हो गया…..तब तो वो अमृत ही नही रहेगा । श्रीराधा रानी की बातें सुनकर स्तब्ध हैं उद्धव ।
हाँ उनको ला सको …..तो लाओ……पर अधर मात्र नही लाया जा सकता…..श्याम सुन्दर को पूरा ही आना पड़ेगा…..लाओ उनको ……
ये कहते हुये खुल कर हँसी थीं श्रीराधा रानी ।
अगर तुम इतना ही दोष देती हो तो पीया ही क्यों था उन अधरों को !
भँवर नें पूछा ।
फिर हँसी श्रीराधा रानी – हमनें कहाँ पीया …….हमें पिलाया गया ।
जबरदस्ती पिलाया उसनें हमें…..हम क्यों पीनें लगीं उसके अधर ।
अपनी मोहिनी वाणी से ….अपनें मोहिनी रूप से ……अपनी मोहिनी बाँसुरी से …….हमको मोहित कर दिया ……..हम बेसुध हो गयीं ।
हम गंवार , हम अनपढ़ अशिक्षित , हम अज्ञानी नारी को फ़ंसानें में उन्हें कितनी देर लगती ………..मीठी मीठी बोली बोल कर हमें फंसा लिया………और जैसे भँवर ! तुम किसी फूल में बैठते हो ……रस को चूस कर चले जाते हो फिर दूसरे फूल की तलाश में ………ऐसे ही किया कृष्ण नें हमारे साथ …………..बड़े बड़े दैत्यों और देवों को मोहित करनें वाला ये कृष्ण ………अरे ! देवताओं को ही नही …….अपनी मोहिनी रूप से तो इसनें महादेव को भी मोहित कर दिया था …….फिर मैं क्या हूँ ? एक नारी जात ! फंस गयी उसके मोह पाश में !
और आज मेरी स्थिति देख भँवर ! न जी सकती हूँ ….न मर सकती हूँ ।
इतना कहकर फिर हिलकियों से श्रीराधा रानी रोनें लगी थीं ।
उद्धव के नेत्र अब सजल होनें लगे थे ………उन सूखे नयनों में जल आनें लगा था ……..उद्धव अपनें आँसू पोंछते हैं । उफ़ !
शेष चरित्र कल –
विरह जगावे दरद को – “भ्रमरगीत”
भाग 3
तुम्हारे लिये अच्छी बात होगी भ्रमर ! जीवन जीनें से अच्छा है हम मर जाती तो ठीक रहता ……….कमसे कमसे ये विरह का ताप तो कुछ कम होता ……पर ये सब जानते हुये भी वो हमें तड़फ़ाना चाहता है …..हमें घुट घुट कर जीनें के लिये मजबूर कर रहा है …..
ये मर गयीं तो मैं रुलाउंगा किसे ?
ऐसी सोच से हमें जिन्दा रखे हुये है वो …….श्रीजी नें कह दिया ।
अच्छा ! मैं समझ गया ……….आपको वो अधरामृत फिर चाहिये ना ? एक बार ही पिलाया, यही शिकायत है ना आपकी ।
तो हे स्वामिनी ! मैं मथुरा जा रहा हूँ ………..उनसे कह दूँगा ….एक पात्र में भर कर अधरामृत दे दो ……..श्रीराधा पीती रहेंगीं …।
ये सुनकर फिर हँसी श्रीराधारानी – अधर और अमृत ये दोनों अलग नही हैं मधुप ! उनके अधर ही अमृत हैं……उनके “अधर”
“अमृत” के आधार नही हैं……..स्वयं अमृत रस ही हैं और हे मधुप ! अगर उनके अधर से अमृत अलग हो गया…..तब तो वो अमृत ही नही रहेगा । श्रीराधा रानी की बातें सुनकर स्तब्ध हैं उद्धव ।
हाँ उनको ला सको …..तो लाओ……पर अधर मात्र नही लाया जा सकता…..श्याम सुन्दर को पूरा ही आना पड़ेगा…..लाओ उनको ……
ये कहते हुये खुल कर हँसी थीं श्रीराधा रानी ।
अगर तुम इतना ही दोष देती हो तो पीया ही क्यों था उन अधरों को !
भँवर नें पूछा ।
फिर हँसी श्रीराधा रानी – हमनें कहाँ पीया …….हमें पिलाया गया ।
जबरदस्ती पिलाया उसनें हमें…..हम क्यों पीनें लगीं उसके अधर ।
अपनी मोहिनी वाणी से ….अपनें मोहिनी रूप से ……अपनी मोहिनी बाँसुरी से …….हमको मोहित कर दिया ……..हम बेसुध हो गयीं ।
हम गंवार , हम अनपढ़ अशिक्षित , हम अज्ञानी नारी को फ़ंसानें में उन्हें कितनी देर लगती ………..मीठी मीठी बोली बोल कर हमें फंसा लिया………और जैसे भँवर ! तुम किसी फूल में बैठते हो ……रस को चूस कर चले जाते हो फिर दूसरे फूल की तलाश में ………ऐसे ही किया कृष्ण नें हमारे साथ …………..बड़े बड़े दैत्यों और देवों को मोहित करनें वाला ये कृष्ण ………अरे ! देवताओं को ही नही …….अपनी मोहिनी रूप से तो इसनें महादेव को भी मोहित कर दिया था …….फिर मैं क्या हूँ ? एक नारी जात ! फंस गयी उसके मोह पाश में !
और आज मेरी स्थिति देख भँवर ! न जी सकती हूँ ….न मर सकती हूँ ।
इतना कहकर फिर हिलकियों से श्रीराधा रानी रोनें लगी थीं ।
उद्धव के नेत्र अब सजल होनें लगे थे ………उन सूखे नयनों में जल आनें लगा था ……..उद्धव अपनें आँसू पोंछते हैं । उफ़ !
शेष चरित्र कल –
विरह जगावे दरद को – “भ्रमरगीत”
भाग 3
तुम्हारे लिये अच्छी बात होगी भ्रमर ! जीवन जीनें से अच्छा है हम मर जाती तो ठीक रहता ……….कमसे कमसे ये विरह का ताप तो कुछ कम होता ……पर ये सब जानते हुये भी वो हमें तड़फ़ाना चाहता है …..हमें घुट घुट कर जीनें के लिये मजबूर कर रहा है …..
ये मर गयीं तो मैं रुलाउंगा किसे ?
ऐसी सोच से हमें जिन्दा रखे हुये है वो …….श्रीजी नें कह दिया ।
अच्छा ! मैं समझ गया ……….आपको वो अधरामृत फिर चाहिये ना ? एक बार ही पिलाया, यही शिकायत है ना आपकी ।
तो हे स्वामिनी ! मैं मथुरा जा रहा हूँ ………..उनसे कह दूँगा ….एक पात्र में भर कर अधरामृत दे दो ……..श्रीराधा पीती रहेंगीं …।
ये सुनकर फिर हँसी श्रीराधारानी – अधर और अमृत ये दोनों अलग नही हैं मधुप ! उनके अधर ही अमृत हैं……उनके “अधर”
“अमृत” के आधार नही हैं……..स्वयं अमृत रस ही हैं और हे मधुप ! अगर उनके अधर से अमृत अलग हो गया…..तब तो वो अमृत ही नही रहेगा । श्रीराधा रानी की बातें सुनकर स्तब्ध हैं उद्धव ।
हाँ उनको ला सको …..तो लाओ……पर अधर मात्र नही लाया जा सकता…..श्याम सुन्दर को पूरा ही आना पड़ेगा…..लाओ उनको ……
ये कहते हुये खुल कर हँसी थीं श्रीराधा रानी ।
अगर तुम इतना ही दोष देती हो तो पीया ही क्यों था उन अधरों को !
भँवर नें पूछा ।
फिर हँसी श्रीराधा रानी – हमनें कहाँ पीया …….हमें पिलाया गया ।
जबरदस्ती पिलाया उसनें हमें…..हम क्यों पीनें लगीं उसके अधर ।
अपनी मोहिनी वाणी से ….अपनें मोहिनी रूप से ……अपनी मोहिनी बाँसुरी से …….हमको मोहित कर दिया ……..हम बेसुध हो गयीं ।
हम गंवार , हम अनपढ़ अशिक्षित , हम अज्ञानी नारी को फ़ंसानें में उन्हें कितनी देर लगती ………..मीठी मीठी बोली बोल कर हमें फंसा लिया………और जैसे भँवर ! तुम किसी फूल में बैठते हो ……रस को चूस कर चले जाते हो फिर दूसरे फूल की तलाश में ………ऐसे ही किया कृष्ण नें हमारे साथ …………..बड़े बड़े दैत्यों और देवों को मोहित करनें वाला ये कृष्ण ………अरे ! देवताओं को ही नही …….अपनी मोहिनी रूप से तो इसनें महादेव को भी मोहित कर दिया था …….फिर मैं क्या हूँ ? एक नारी जात ! फंस गयी उसके मोह पाश में !
और आज मेरी स्थिति देख भँवर ! न जी सकती हूँ ….न मर सकती हूँ ।
इतना कहकर फिर हिलकियों से श्रीराधा रानी रोनें लगी थीं ।
उद्धव के नेत्र अब सजल होनें लगे थे ………उन सूखे नयनों में जल आनें लगा था ……..उद्धव अपनें आँसू पोंछते हैं । उफ़ !
शेष चरित्र कल –


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