!! उद्धव प्रसंग !!
{ उद्धव की श्रीधाम वृन्दावन से मथुरा वापसी }
भाग-25
अथ गोपीरनुज्ञाप्य यशोदाम् नन्दमेव च ।
(श्रीमद्भागवत)
आज सुबह सुबह ब्रह्ममुहूर्त में ही… नन्द महल के आँगन में समस्त बृजवासियों का हुजूम उमड़ पड़ा था… ।
क्यों कि उद्धव आज जा रहे हैं… आज ही मथुरा वापस ।
श्री वृषभान नन्दिनी श्रीराधा अपनी अष्टसखियों के साथ नन्द महल में आगयी थीं… यशोदा ने अपने हृदय से लगाया था… श्रीराधा रानी को… और दोनों बहुत रोये थे ।
आँगन में गोपियाँ एकत्रित हो गयी थीं उद्धव को विदा करने के लिए ।
गोप लोग सब आगये थे… और बाहर आकर प्रतीक्षा कर रहे थे ।
सन्ध्या वंदन करके निवृत्त हुए उद्धव… बाहर आकर सबसे पहले… मैया यशोदा के चरणों में प्रणाम किया था उद्धव ने ।
फिर नन्द राय के चरणों में… श्रीराधा रानी को अपने हृदय से नमन प्रेषित किया था… गोपियों को हाथ जोड़ा था ।
और ग्वालों को अपने हृदय से लगा लिया था उद्धव ने ।
हे बृजवासियों ! आप लोग जितना तड़फ़ रहे हो… उतना ही श्रीकृष्ण भी तड़फ़ रहें हैं । उद्धव ने सबको संबोधित करते हुए कहा ।
आप जितने दुःखी हो… उतने ही श्री कृष्ण भी मथुरा में दुःखी हैं…
आप लोग जितना रोते हैं… बिलख रहे हैं… ऐसे ही मथुरा में भी श्रीकृष्ण रोते और बिलखते हैं… वो सुखी नही हैं आप लोगों को छोड़कर… बिल्कुल नही ।
मैं जब मथुरा से चला था ना… तब मेरे हाथों को पकड़ कर… उन्होंने कहा था… उद्धव ! मुझे मेरे श्रीधाम की बहुत याद आती है… मेरे प्रिय लोगों की बहुत याद आती है… मैं यहाँ सुखी नही हूँ… ये कहते हुए श्रीकृष्ण बहुत रोये थे ।
उद्धव ! तुम क्या कह रहे हो ? ये कहकर तुम हमें और दुःखी क्यों बना रहे हो ?
श्रीराधा एकाएक उठीं थीं… और उद्धव का हाथ पकड़ कर बोलने लगीं थीं ।
तुम्हें क्या लगता है… ये सब तुम्हारे मुख से सुनकर हमें अच्छा लगेगा ?… श्रीराधा के अश्रु बह चले थे ।
उद्धव ! जाते जाते ये क्या कह के जा रहे हो ?
तुम तो हमें अपार कष्ट दे रहे हो ये कहकर…कि हमारा कृष्ण दुःखी है ?
कृपा करो उद्धव ! अगर तुम हमें सुख देने के लिए ये सब बोल रहे हो… तो तुम गलत कर रहे हो… हमें सुख नही… हमें तो अपार कष्ट हो रहा है… ये सुनकर कि हमारा कृष्ण दुःखी है ?
वो रोता है ?… वो तड़फ़ता है… ? ओह उद्धव !…
श्रीराधा ने आह भरी ।
उद्धव ! हमने प्रेम किया है कृष्ण से… फिर प्रेम में प्रेमी के दुःख की बातें सुनकर हमें अगर ख़ुशी मिलती है… तो धिक्कार है ऐसे प्रेम को… हमें तो अपार कष्ट हो रहा है !
उद्धव श्रीराधा की बातें सुनकर हाथ जोड़े… हिलकियों से रो रहे थे ।
मानो अपने शिष्य उद्धव को, प्रेम का अंतिम उपदेश श्रीराधा कर रही हैं ।
प्रेम तो यही है… कि… वो सुखी रहे ।
हाँ… उद्धव ! तुम अगर कहते कि… वो मथुरा में सुखी हैं… बहुत आनंदित हैं… प्रसन्न हैं… तब हमारे चेहरे में जो ख़ुशी होती… !
पर तुमने ये क्या कह दिया ?…कि कृष्ण मथुरा में दुःखी है ?
श्रीराधा इतना कहकर मूर्छित सी हो गयीं थीं… उनकी अष्टसखियों ने उन्हें सम्भाला था ।
उद्धव कुछ समय तक अपने आपको भी सम्भाल न सके थे ।
पर जब श्रीराधा रानी को देह भान हुआ… तब उद्धव की ओर देखा था श्रीराधा ने… ।
प्रेम स्वसुख नही देखता… प्रेम तो प्रियतम के सुख में ही अपना सुख खोज लेता है… और उद्धव ! प्रेम अगर स्व सुख देखे… तो वह प्रेम ही क्या हुआ ?… वह तो स्वार्थ हुआ ना ? श्रीराधा ने कहा ।
घुटनों के बल बैठे उद्धव रोते हुए… अपना सिर हिलाते रहे श्रीराधा के सामने ।
उद्धव ! जैसे हमारे सामने तुमने कह दिया ना कि कृष्ण हमारे लिए तड़फते हैं… पर हमारा हृदय तो पत्थर है… हम तो पाषाण हैं ।
इतना सुनने के बाद भी हमारा हृदय फटा नही है… पर सुनो उद्धव ! हमारी दशा हमारे नन्द नंदन से जाकर बिल्कुल मत कहना… क्यों कि हमारे प्रियतम का हृदय तो माखन के समान कोमल है… उन्हें जब हमारी दशा पता होगी ना… तो उन्हें और कष्ट होगा… उद्धव ! मत कहना… कुछ मत कहना यहाँ के बारे में… रोती हैं… बिलखती हैं… तड़फती हैं… ये सब कुछ मत कहना… हमारे प्यारे से ।
हाँ… कहना… कि वो सुखी हैं… पूरा वृन्दावन आनन्दित है… प्रसन्न हैं… श्रीराधा के मुख से ये सुनते हुए…सब गोपियाँ और गोप लोग रोने लगे थे ।
यशोदा ने अपने गले से लगाकर श्रीराधा रानी को… थपथपाया था ।
श्री राधा एकाएक भीतर गयीं… और अपने काँपते हाथों से… एक पत्र लिख दिया… उस पत्र को उद्धव को दिया… ये पत्र दे देना कृष्ण को… पत्र में श्री राधा ने जो लिखा था… उद्धव ने जब पढ़ा… रो गए उद्धव…
हे कृष्ण चन्द्र ! तुम इस वृन्दावन को अन्धकारमय करके… मथुरा में उदित हो गए हो… पर अपने ऊपर कलंक की आशंका से हमारा कभी भी परित्याग मत करना… ये हमारी तुमसे प्रार्थना है ।
तुम्हारी राधा ।
ये पढ़ते ही उद्धव रो पड़े थे… और अश्रुओं को पोंछते हुए बोले .
…आपके प्राणबल्लभ को एक बार इस वृन्दावन में आने का अनुरोध करूँ ?
श्री राधा ये सुनकर गम्भीर हो गयीं… नही ! अपनी तरफ से कुछ मत कहना… अगर वे स्वयं आना चाहें तो आएं… पर जब भी इस वृन्दावन में आएं निश्चिन्त होकर आएं… और अगर इस तरह न आसकें… तो नही ही आएं ।
हम तो उद्धव ! कृष्ण को सुखी देखना चाहती हैं… बस ।
वो मथुरा में रहकर सुखी रहें… तो हमें अपने स्वसुख के लिए उन्हें यहाँ नही बुलाना… ।
हे उद्धव ! अनुरोध करके जो मिलन होता है… वह मिलन सुखकर नही हुआ करता… ये याद रहे ।
श्री राधा ने इतना ही कहा… और मौन हो गयीं ।
उद्धव ने श्री राधा के चरणों में प्रणाम किया…और बाहर निकल पड़े ।
ग्वालबाल सब आये हुए हैं… हम तो जँगली लोग हैं ..हम दे ही क्या सकते हैं…मोर के पंख… गूंजा की माला… बाँसुरी…
हमारी ओर से ये उपहार है उद्धव ! इसे ले जाओ ।
यशोदा दौड़ी दौड़ी आयीं… उद्धव के रथ के पास ।
ये माखन है… मेरे कन्हैया को खिला… बस इतना ही बोल सकीं थीं यशोदा… उनकी वाणी अवरुद्ध हो गयी थी ।
उद्धव रोते रहे… नन्द बाबा बाहर न आसके… उन्हें लगा गाँव के मुखिया का हिलकियों से रोना शोभा नही देगा… और मैं ही इस तरह रोऊंगा तो इस वृन्दावन को कौन सम्भालेगा ?
हाथ जोड़कर वन्दन किया था… उद्धव ने नन्द बाबा को ।
रथ चल पड़ा था… उद्धव का ।
सब कृष्ण सखा ..ग्वाल बाल… काफी दूर तक रथ के पीछे चलते रहे… उद्धव उन्हें देखते रहे थे… आँखें सूज गयीं थीं उद्धव की रोते हुये… ।
एक बार वृन्दावन की सीमा को छोड़ते हुए… उद्धव ने रथ को रोका था… और एकान्त में… वृन्दावन की धूल में लोटे थे… ।
आहा ! कितना आंनद आया था उद्धव को… ये सब पागलपन करते हुए… ।
शेष चर्चा कल…
प्रियतम नहीं बजार में, वहै बजार उजार ।
प्रियतम मिलै उजार में, वहै उजार बजार । ।


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