श्रीराधिका का प्रेमोन्माद – 6
( हाय ! ये विरह )
गतांक से आगे –
“सुनिए ना ! बेटी राधा की दशा दिनों दिन बिगड़ती जा रही है ….कहीं झाड़ फूंक करवा दीजिये ना ! मुझे तो डर लगता है कहीं ये अपने प्राणों को न त्याग दे “।
कीर्तिरानी अपने पति श्रीवृषभान जी से रात्रि में कह रही थीं । अश्रु पोंछते हुए वृषभान जी लम्बी साँस लेते हैं । नन्दनन्दन जब से गये हैं ऐसा लगता है बृज का श्री, वैभव , प्रसन्नता , उत्सव सब अपने साथ ले गये । ओह ! बृज को देखो रानी ! लगता है …दावानल से झुलस गया हो ये । सब कुछ जल का ख़ाक हो गया हो ।
वृषभान जी अर्धरात्रि में अपनी पत्नी से बात कर रहे हैं ।
कीर्तिरानी अपने अश्रुओं को पोंछती हैं …फिर इधर उधर देखकर कहती हैं नींद ही नही आती , खुली आँखों में ही भोर हो जाता है ।
अपना श्रीदामा वो तो नित्य तैयार होता है ….गौचारण के लिये ……फिर जब उसे पता चलता है कि उसका प्रिय सखा तो मथुरा गया ….तब फिर निकल जाता है घने वनों में । मैंने सुना है वहाँ जाकर वो खूब रोता है …अकेले रोता है …..मुझे करुणा गोपी बता रही थी …कि युवराज वन में बैठ कर खूब रोते हैं ।
कीर्तिरानी की बात सुनते रहे वृषभान जी …उनके वश में कुछ नही है । उन्होंने कहा भी कि मैं कुछ नही कर सकता , इस विकट परिस्थिति का समाधान मेरे पास नही है । वृषभान जी करवट बदलते हैं …अब बस ब्रह्ममुहूर्त का समय होने वाला है …कुछ समय के लिए तो झपकी आजाए !
“रानी ! हाँ ! पौर्णमासी जी के यहाँ राधा को ले जायें”।
वृषभान जी को स्मरण हो आया तो वो बोले ।
वो उज्जैन में रही हैं , काशी में भी रहकर उन्होंने तन्त्र आदि की साधना की है ….झाड़ फूंक कर देंगीं । फिर आवाज भारी हो गयी वृषभान जी की ….वैसे कुछ नही होगा इन सब से ।
फिर कैसे होगा ? कीर्तिरानी ने पूछा ।
लम्बी साँस लेकर बोले वृषभान जी ……..कन्हैया मथुरा से आये तभी कुछ होगा ।
कीर्तिरानी कुछ नही बोलीं …….द्वार खोला अपनी लाड़ली के कक्ष की ओर दो पग बढ़ाये …..उफ़ ! सुबुकने और रोने की आवाज़ें आरही हैं । क्या बीतती होगी कीर्तिरानी में , ये सब सुनकर उनका हृदय कितना रोता होगा । भीतर जाकर समझाऊँ ? कीर्ति रानी फिर रुक जाती हैं …..क्या समझेगी लाड़ली ? इस स्थिति में क्या कोई भी समझेगा ? कृष्ण को भूलना क्या सम्भव है ? कीर्तिरानी वापस अपने कक्ष में आजाती हैं ।
कल मैं एक गाड़ी भेज दूँगा नन्दगाँव …..कल क्या आज ही …..ललिता से कह देना वो ले जाएगी लाड़ली को पौर्णमासी जी के पास ….शायद कुछ हो जाये । इतना कहकर वृषभान जी पर्यंक से उठ गये ….आप सोये नहीं ? वृषभान जी बोले ….अब क्या सोना ब्रह्ममुहूर्त हो गया है …..यमुना स्नान के लिए वो चल दिये थे ।
क्यों किया विधाता ने मेरे साथ ऐसा ? ललिते ! बोल ना ? क्या मेरा सुख-आनन्द उससे देखा नही गया । मैं प्रेममयी बृज की रमणियों में मुकुटमणि थी , उछलती , चहकती श्याम सुन्दर के वक्ष से जाकर लिपट जाती थी ….वो मेरा सुख विधाता से देखा नही गया । छीन लिया मेरा आनन्द …ले गया मुझ से दूर उस आनन्द को । आज कंगालन हो गयी है राधा , कुछ नही है अब मेरे पास ।
ओह ! अश्रुओं की धार बह रही है वस्त्र भींज गए हैं श्रीराधारानी के , अभी अभी बदल दिए थे ललिता ने वस्त्र ….ये ललिता दिन रात लाड़ली के वस्त्रों को ही तो बदलती रहती है ….अभी बदले फिर गीले हो गये ….अश्रु नही बहते ….धार लग जाती है । फिर वो धार रुकती नही है ।
मैं कितनी इठलाती इतराती चलती थी ….किन्तु आज ? श्याम सुन्दर मुझे छोड़ कर चले गये ।
श्याम धन था मेरे पास ….किन्तु आज कंगालन हूँ ….नही है मेरे पास वो श्याम धन । अत्यन्त दयनीय बन गयीं हैं श्रीराधा । ये कहते हुए शून्य में देखने लग जाती हैं ।
कोई इन्हें देखे तो लगे कि ये श्रीराधा योगिनी हैं या वियोगिनी ?
आहार में कोई रुचि नही हैं श्रीराधारानी की । हाँ , दो तीन दिन में श्याम सुन्दर का नाम लेकर सखियों ने जबरन खिलाया तो खा लिया , नही तो नही । आहार अब भीतर जाता ही नही है ।
देह के प्रति पूर्ण विरक्ति हो गयी है ।
श्रीराधा कहती हैं …..अब सजने की इच्छा नही होती । किसके लिए सजें ?
नासिका के अग्र भाग में दृष्टि स्थिर रहती है ….मानों कोई त्राटक कर रही हों ।
मन पूर्ण एकाग्र है ….इधर उधर कहीं नही जाता ….कहाँ जायेगा ….श्याम सुन्दर में ही मन पूर्ण रूपेण लग गया है । संसार सूना प्रतीत होने लगा है श्रीराधा को । अब क्या कहें श्रीराधारानी को …..क्या ऐसी साधना कोई योगिनी कर सकती हैं ? फिर ये क्या हैं योगिनी या वियोगिनी ?
ललिता अपलक देखती है कभी कभी अपनी इन श्रीराधा को, तो उनकी भी बुद्धि काम नही देती । बस अपार कष्ट होता है ….रोतीं हैं ….किन्तु श्रीराधारानी को सम्भालना भी तो है ।
ललिते ! ललिते ! बाहर कीर्तिरानी ने ललिता सखी को बुलाया ।
हाँ , ललिता सखी बाहर गयीं ……कीर्तिरानी ने ललिता सखी को कहा ….ये गाड़ी और ये गाड़ीचालक है …..तुम लाड़ली को लेकर पौर्णमासी जी के पास चली जाओ । पौर्णमासी जी का नाम सुनते ही अत्यन्त बुद्धिमान श्रीजी की ये सखी सब कुछ समझ गयी ।
कीर्ति मैया ! आपको लगता है …पौर्णमासी जी के झाड़ फूंक से कुछ होगा ?
रो पड़ीं कीर्तिरानी …मुझे नही पता ललिते ! क्या होगा क्या नही होगा ? किन्तु …..
अपने अश्रुओं को पोंछते हुये बोलीं – तू तैयार कर ले राधा को …और चली जाओ नन्दगाँव ….इतना कहकर कीर्तिरानी वहाँ से चली गयीं ।
ललिता भीतर आयी …..
क्या हुआ ? श्रीराधा ने पूछा ।
नन्दगाँव चलना है …ललिता ने कहा ।
पर वहाँ तो कोई नही है …मेरे प्राणधन तो चले गये मथुरा ।
“पौर्णमासी जी के पास” …ललिता ने नाम लेकर कहा ।
वो पौर्णमासी जी ? मनसुख की मैया ?
फिर बोलीं …..मुझे झाड़ फूंक के लिये ? हंसीं श्रीराधा रानी ।
मुझे भूत नही लगा , नन्द का पूत लगा है । फिर हंसीं ।
भूत लगने का झाड़ फूँक होता है …पर नन्द का पूत जिसे लगा हो ….उसका कोई उपाय नही है ।
“आप स्नान कर लीजिये”…ललिता ने सिर झुकाकर कहा । और दो सखियों ने आकर श्रीराधारानी को उठाया ,फिर स्नान , वस्त्र धारण ..और नन्दगाँव की ओर शकट में बैठकर चल दीं ।
क्रमशः….


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