
!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 81 !!
श्रीराधामहाभाव की कुछ तरंगें…
भाग 3
पर उन्हें हमारी कितनी फ़िक्र है ……..उन्हें हमारी याद आती होगी ………तभी तो भेज दिया अपना दूत ………….
पर हम ? हम तो असभ्य ! गंवार ! किसी चीज का शऊर नही हैं ।
इतना कहकर फिर हिलकियाँ शुरू हो गयी थीं ……..श्रीराधारानी नें क्रन्दन करना शुरू कर दिया था……..तभी –
स्वामिनी ! देखो वो भँवरा फिर आगया !
ललिता सखी नें दिखाया ……..।
आनन्द से उछल पडीं श्रीराधारानी……..खुश हो गयीं ….उस भँवरे को ही देखकर श्रीराधा को इतना आनन्द आया कि ….मानों भँवरा नही ये स्वयं श्याम सुन्दर ही आगये हों …………….
अरे ! आ ! आ ! खड़ी हो गयीं श्रीराधा रानी ….और बुलानें लगीं उस भँवर को ……..पर भँवर अब नीचे नही उतर रहा ……….ऊपर ही घूम रहा है और गुनगुन कर रहा है …………….
हँसी श्रीराधा रानी ……….अच्छा ! अब भाव खा रहा है …………कोई बात नही ……हमारे प्रियतम से मिलकर आया है ना ………मथुरा गया था ………..सारी बात बता दी ?
भँवरा कुछ नही बोला ।
पहले तू बैठ ! ले …….अपनी चूनरी बिछा दी श्रीराधा नें ।
भँवर ! तू इस चूनर में बैठ जा ………..बैठ !
श्रीराधा नें जब ज्यादा ही आग्रह किया ……तो भँवरा आगया और बैठ भी गया ।
वज्रनाभ ! प्रेमियों की एक स्थिति होती है…….उस स्थिति में वे अपनें प्रियतम के बारे में कुछ बातें मन में गढ़ लेती हैं ……..और फिर उसी पर चिन्तन करती रहती हैं …….प्रियतम नें कुछ कहा नही है ……..पर मन में जो बात गढ़ ली है उसी के आधार पर प्रेमी बोलता जाता है ….और प्रियतम को दोष भी देता रहता है ।
हे प्रिय के सखा ! हो आये मथुरा ? श्रीराधा रानी नें बड़े प्रेम से पूछा ।
भँवरा मानों बोला – हाँ हम हो आये ………और आपके प्रियतम नें हमसे कहा है …….उन्हें ले आओ मथुरा में ……….चलो !
भँवर ! हमें मथुरा चलनें के लिये मत कहो……हम नही जायेंगी ।
हे स्वामिनी ! आपके प्रियतम नें मुझे कहा है ……..उनके पास कोई नही है …….वे अकेले हैं ………और सच मानिए नारियों से तो वे बहुत दूर रहते हैं …….ये बात स्वयं गढ़ी है मन में, श्रीराधिका जी नें ।
क्यों की प्रेमी मन में बात गढ़ता रहता है …….”वो मेरे बारे में ऐसा कहते होंगें” ……”मेरे बारे में वैसा सोचते होंगें”………
बस अब….ये “मथुरा की नारियों” की बात जैसे ही आयी …
….भाव फिर बदल गया श्रीराधारानी का ।
उन्माद बढ़ गया फिर….
….जाओ यहाँ से मधुप ! जाओ यहाँ से !
वो कैसे रहता है ! हमें बतानें की जरूरत नही है तुम्हे ………
तुम तो अभी दो चार दिन से ही जाननें लगे हो उसे…….हमतो कब से जान रही हैं……..और अब तो कह सकती हैं कि अच्छे से जान गयीं हैं ……वो नारियों को छोड़ सकता है ? वो बिना स्त्रियों के रह सकता है ? वो जार है ……नही नही वो जारों का सरदार है ।
तुम हमें चिढानें के लिये हमारी सौत का नाम क्यों लेते हो ?
हम तो तुम्हारा कितना स्वागत कर रही थीं ……..पर नही ……तुम स्वागत के लायक ही नही हो……..तुम उसी के तो मित्र हो ……जैसे वो प्रेम के लायक ही नही था……फिर भी हमनें उससे प्रेम किया …….
हम पछता रही हैं प्रेम करके मधुप ! हमनें सोचा नही था कि हमारे साथ वो छलिया ऐसा भी करेगा ……………हम को यहाँ पाती लिख लिखकर भेज रहा है ………और वहाँ कुब्जा को रानी बनाकर बैठा है !
श्रीराधा रानी के मुखारविन्द से ये जब सुना उद्धव नें ……वो चौंक गए ।
तन्मयता प्रेम में मुख्य है ……….इनकी तन्मयता कृष्ण में देखकर चकित हो रहे हैं उद्धव । यह कोई मामूली बात नही है वज्रनाभ !
अपनें आपको भूल जाना …..संसार को भूल जाना ……सब कुछ भूल जाना ………मात्र अपनें प्रियतम के लिये ……और प्रियतम को ही देखना जड़ चेतन सब में ………उफ़ !
शेष चरित्र कल –

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