श्रीराधिका का प्रेमोन्माद -7
( पौर्णमासी की कुटिया में )
गतांक से आगे –
नन्दगाँव की सीमा में पहुँचते ही श्रीराधारानी शकट से उतर गयीं थीं….उनकी सखियों ने अनुनय विनय किया कि बैलगाड़ी में ही बैठिये …अभी पौर्णमासी माता की कुटिया दूर है …पर श्रीराधा कहाँ मानने वाली थीं ….ये उनके प्रीतम का गाँव है …प्रीतम के गाँव में वो गाड़ी पर बैठे कैसे चल सकती हैं ! सिर के बल चलने का आदेश दिया है प्रेम शास्त्रों ने प्रेमियों को , प्रीतम के गाँव में ।
श्रीराधारानी उतर गयीं….तो सखियाँ भी उतरीं ….वो गाड़ीवान खाली गाड़ी लेकर पीछे पीछे चल रहा था । श्रीराधा देखती जा रही हैं नन्दगाँव को । क्या था ये गाँव और आज क्या हो गया ! सिर में जल की मटकी लिये नन्दगाँव की गोपियाँ जा रही हैं अपने घरों की ओर किन्तु उनके नेत्रों से अश्रु बह रहे हैं । क्यों रो रही हो ? ललिता ने एक गोपी से पूछ लिया था ….”मटकी साबुत घर में पहुँचती है ,कोई फोड़ने वाला नही है मटकी को “। ओह ! इस गोपी ने अपना हृदय चीर कर दिखा दिया था …क्या बात कह दी थी । श्रीराधा रुक गयीं , उस गोपी को देखा उसके सिर में चार मटकी थी ……
“उन दिनों मटकी फोड़ देता था कन्हैया ….वो गोपी ललिता सखी को बता रही है ….”घर में जाती थी सासु माँ डाँटती थीं ….पर डाँट ? अरे ! उस डाँट से क्या होने वाला था ….”कन्हैया ने मटकी फोड़ दी”……ये कहते हुए भी मन मयूर कैसे नाच उठता था । पर अब ! मटकी फूटती नही है …..मन करता है – काश ! पीछे से आकर कन्हैया ! मटकी फोड़ दे । पर हमारा दुर्भाग्य कि अब मटकी फूटती नही है । श्रीराधा रानी रुक गयीं हैं उस गोपी की बात सुनते ही श्रीराधा के नेत्र बरस पड़े थे …वो वहीं रज में बैठ गयीं थीं और – हा कृष्ण ! हा प्राण ! हा जीवन धन ! पुकारने लगी थीं । ललिता ने जैसे तैसे उन्हें धीरज धराया , अन्य सखियों ने सम्भाला …फिर आगे बढ़ चलीं ।
नन्दालय दिखाई दिया श्रीराधा रानी को तो उन्होंने हाथ जोड़कर उस महल को प्रणाम किया ।
ओह! कितनी रौनक रहती थी इस महल में …पर आज जनशून्य है । कोई उधर नही जा रहा ।
इतना बड़ा महल सूना पड़ा है । मैया यशोदा ! उनका स्मरण होते ही फिर श्रीराधा रोने लगीं थीं ।
ये स्थिति देख ललिता ने विचार किया कि श्रीराधारानी को शकट में ही बिठाकर ले जाना पड़ेगा ….नही तो नन्दगाँव का हर स्थान इनको श्याम सुन्दर की याद दिलाता रहेगा ….ये सोचकर ललिता ने प्रार्थना की ….श्रीराधा के चरणों में वो गिर पड़ीं ….क्या हुआ ? श्रीराधा पूछती हैं ….आप शकट में बैठिये । “प्रीतम की गली में चलना सौभाग्य है ललिते !”
पर आपका इस तरह चलना आपके प्रीतम को प्रिय नही लगेगा । ललिता ने कह दिया ।
क्यों ? अश्रु रुक गये श्रीराधा के ….उन्हें क्यों अच्छा नही लगेगा ?
क्यों की आपको कष्ट हो रहा है स्वामिनी ! आपका ये कोमल श्रीअंग चल नही पा रहा ….और हे स्वामिनी ! ….कहते हुए ललिता रुक गयी …उसे लगा कि मैं तो ये और बड़ा अपराध करने जा रही थी …इन्हें श्याम सुन्दर के प्रेमप्रसंगों का स्मरण दिलाना इस समय उचित नही है …क्यों कि ये फिर उन्माद में डूब गयीं तो ? रुक गयी ललिता सखी ।
श्रीराधा बोलीं – मुझे पता है तू यही कहना चाह रही है ना ….उन दिनों ज्येष्ठ की ग्रीष्म ऋतु थी ….मैं तेरे घर से अपने घर लौट रही थी …कि तभी श्याम सुन्दर आगये …..मैं उन्हें देखते ही स्तब्ध हो गयी ….फिर मैं भागी अपने घर की ओर …..”प्यारी ! सूर्य का ताप बहुत है इस तरह नंगे पाँव न निकला करो” । वो चिल्लाकर बोले थे । मैं खिलखिलाकर अपने महल में चली गयी ….इतना कहकर श्रीराधा रुक गयीं ….शून्य में तांकने लगीं । ललिता ने सम्भाला श्रीराधारानी को ……
हाँ , ललिते ! फिर मैंने अपने महल के गवाक्ष से नीचे देखा …..श्रीराधा इस प्रसंग को ऐसे कैसे छोड़ देतीं ……मैं महल के ऊपर गयी और वहाँ से मैंने श्याम सुन्दर को देखा …..फिर इतना कहकर श्रीराधारानी रुक गयीं ….वही शून्य में तांक़ना । ललिता ने फिर सम्भाला ….तो श्रीराधा ने फिर …..हाँ , ललिते ! मैंने महल के झरोखे से नीचे जब देखा …..ओह ! मेरे पाँव के चिन्ह बन गये थे अवनी में ….उन्हें धूप न लगे इसलिए अपनी पीताम्बर से छाँव करके वो उसी धूप में बैठ गये थे …..ये कहते हुए अब दहाड़ मार कर श्रीराधा रोने लगीं थीं …..कितना प्रेम ! कितना प्रेम किया मुझ से प्रीतम ने , कितना प्रेम दिया मुझ को । पर मैं कुछ न दे सकी । प्यारे ! हे प्राण ! ये कहते हुए अचेत हो गयीं अब श्रीराधा रानी ।
उसी समय शकट में सखियों ने श्रीजी को रख दिया था और जल का छींटा देतीं हुईं , पंखा करती नन्दगाँव से थोड़ा आगे पौर्णमासी माता की कुटिया में ये सब पहुँच गयीं थीं ।
कृष्ण सखा मनसुख की माता हैं ये पौर्णमासी । तपस्विनी हैं , तन्त्र मंत्र आदि की जानकार हैं ।
काशी में मनसुख का जन्म हुआ , बालक का जन्म होते ही पौर्णमासी के पति चल बसे ।
पौर्णमासी के भाई हैं जो महान शिक्षाविद् हैं ऋषि सांदीपनी , पहले काशी में ही रहते थे ….फिर उज्जैन , महाकाल की सेवा में चले गये …..अपनी बहन को भी ले गये थे ….किन्तु बहन अपने शिशु को लेकर पुनः काशी में ही आगयी थीं । तन्त्र-मन्त्र की विख्यात विदुषी पौर्णमासी ….ये कहाँ आने वाली थीं बृजमण्डल में । महादेव की परम उपासिका । काल भैरव इनको सिद्ध थे ।
पर इनको जो पुत्र हुआ वो गोलोक से सीधा उतरा और इन्हीं तपस्विनी का उसने गर्भ चुना । ये अनादिकाल से कृष्ण सखा ही था ….महान वेदज्ञ बनाना चाहती थीं पौर्णमासी , या वेदान्त का श्रेष्ठ वेदान्ती । किन्तु ये तो था एक भक्त । नही नही , भक्त नही सखा । सखा और भक्त में बहुत अन्तर है ।
गले में तुलसी की माला धारण करना , मस्तक में ऊर्ध्व पुंड़्र । मुख में बस कन्हैया का नाम ।
फिर विश्वनाथ भगवान ने भी हृदयाकाश में प्रकट हो , कहा – हे पौर्णमासी ! तुम अपने पुत्र मनसुख के साथ बृज मण्डल जाओ ।
पौर्णमासी कुछ और महादेव से पूछतीं उससे पहले ही महादेव ने कह दिया – “बृज वास करो….क्यों की गोलोक बिहारी वहाँ अवतीर्ण हो रहे हैं “।
फिर ये नन्दराय जी के यहाँ काशी से पधारीं ।
ललिता सखी , भगवती हैं , ललिताम्बा ये आदिशक्ति हैं ….ये सब समझती हैं ….पौर्णमासी का भूतकाल विचार करते हुए …..श्रीराधारानी को अपनी गोद में सम्भाले पंखा करते हुए ….जल का छींटा देते हुए ये पौर्णमासी की कुटिया में पहुँची थीं । कुटिया के बाहर बैठा है मनसुख ।
कन्हैया ! कन्हैया ! कन्हैया !
वो अपनी माता के पास उछलता हुआ भागा था ।
उसने शकट देखी तो उसे लगा उसका सखा मथुरा से लौट आया है ।
माता ! मेरा कन्हैया मेरे पास आया है ….ध्यान में बैठीं थीं पौर्णमासी उठकर बाहर आयीं ।
अपने भोले पुत्र को हृदय से लगाते हुए बोलीं ….नही पुत्र ! कन्हैया नही आया है ….ये तो भानु दुलारी आयीं हैं । ये सुनते ही कि उसका सखा नही आया , तत्क्षण दुःख के अपार सागर में मनसुख डूब गया था ।
आओ भानुदुलारी ! आगे बढ़कर पौर्णमासी ने अपनी कुटिया में स्वागत किया ।
मनसुख देखता है श्रीराधारानी को उसके नेत्रों से अश्रु बहने लगते हैं ….कब आयेगा मेरा कन्हैया ?वो श्रीराधारानी के सामने हाथ जोड़कर पूछता है ।
“मुझे माखन खिलाने वाला कोई नही है”…….ये कहते हुए वो रोने लगा ।
मनसुख ! इनको क्या पता ? ये क्या जानें कन्हैया कब आयेगा ?
पौर्णमासी ने अपने पुत्र को समझाया ।
माता ! इन्हें सब पता है ….मनसुख श्रीराधारानी को देखकर कह रहा था ।
“ये उसकी आत्मा हैं”
मनसुख आगे भी कुछ बोलने जा रहा था किन्तु पौर्णमासी ने उसे रोक दिया ।
श्रीराधारानी पौर्णमासी माता को प्रणाम करती हैं ………
धन्य हो गयी हमारी कुटिया हे राधिके ! तुम मेरी कुटिया में आओ ये मेरी प्रवल इच्छा थी …कन्हैया तो खूब आता रहा ….किन्तु तुम नही आईं थीं । ये कहते आसन प्रदान किया, श्रीराधा उसमें विराजीं । ललिता उनको सम्भाल कर बैठ गयीं । अन्य सखियाँ भी बैठ गयीं थीं ।
क्या सेवा करूँ ? पौर्णमासी ने हाथ जोड़कर पूछा ।
माता ! श्रीराधारानी ही बोलने लगीं – मैं क्या करूँ ? मैं इस जीवन को कैसे धारण करूँ ? ये मुझे सम्भव नही दिखाई देता । मैं एक पल भी उन्हें नही भूल पा रही हूँ ….मैं अत्यन्त कठोर हृदय की हूँ …शायद लौह से भी ज़्यादा कठोर । उन्होंने कहा था …”मैं कल लौट आऊँगा”….नही आये …मेरे प्राण निकल जाने चाहिए ना , पर राधा अभी भी जीवित है । ये प्रेम करने का नाटक करती है …प्रेम नही करती । प्रेम तो वो होता है …जैसे – मीन , जल से विलग होते ही तड़फ कर मर जाती है मछली , मैं कहाँ प्रेम करती हूँ माता ! श्रीराधा फिर उन्मादिनी हो गयीं थीं ।
मैंने आज देखा नन्दगाँव को बिना अपने प्रीतम के …..मैं देख सकी ? यहाँ वो नित्य लीला करते थे ….खेलते कूदते थे …मैं भी यमुना तट आती ….मुझे देखते ही एकान्त की खोज में उनके नयन लग जाते थे …..ये सब मैं जानते हुए भी उनके बिना जीवित हूँ …ये राधा लोभी है …अपने इस तुच्छ जीवन का लोभ है इसे ….तभी तो नही मर रही ! इसे तो तत्क्षण मर जाना चाहिए ।
मनसुख सुन रहा है ….वो अश्रु बहा रहा है श्रीराधा की बातें सुनकर , इनकी प्रेमावस्था देखकर शान्त गम्भीर माता पौर्णमासी भी आज विचलित हो उठीं ….जीवन में पहली बार इनके नेत्र सजल हो उठे थे । मनसुख ने अपनी माता को जीवन में प्रथम बार अश्रु पोंछते देखा ।
माता ! मैं बस यही सोचती रहती हूँ …..कि शायद अब कल आयेंगे । मन को दिलासा देती हूँ ….कल आयेंगे । किन्तु कितने “कल” बीत गए ….
भाग्यशाली तो मथुरा की नारियाँ हैं ….जो नित्य उन दिव्य श्यामवपु का दर्शन करती हैं …दुर्भाग्य तो हम बृजवासियों का हो गया है ….श्रीराधारानी ये कहते हुए तड़फ उठती हैं ….माता ! एक पल भी चैन नही है …..धैर्य तो मानों मुझ से रूठ ही गया है……मैं क्या करूँ अब ? ये कहते हुए श्रीराधा फिर हा कृष्ण ! हा गोविन्द ! हा रमन ! हा प्रीतम ! पुकारने लगीं । उनके नेत्रों से अश्रु धार बह चले ….वो धार एक नाले के रूप में परिणत हो रहे थे । धड़ाम से गिर गयीं श्रीराधारानी , उनके केश बिखर गये थे अवनी में ….इन सर्वेश्वरी की ये स्थिती देख पौर्णमासी का भी धैर्य उत्तर दे गया था । उनकी भी समाधि लग गयी थी ।
मनसुख रोते रोते अब हंसने लगा था ….आजा यार ! आजा ! तेरे बिना मथुरा के लोग मरेंगे नही ….किन्तु तू श्रीवृन्दावन आजाएगा तो यहाँ के लोगों को जीवन मिल जायेगा ।
ओह !
क्रमशः….


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