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April 18, 2025 7:07 pm

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श्रीराधिका का प्रेमोन्माद -8-( विरह-दग्धा ) : Niru Ashra

श्रीराधिका का प्रेमोन्माद -8-( विरह-दग्धा ) : Niru Ashra

श्रीराधिका का प्रेमोन्माद -8

( विरह-दग्धा )

गतांक से आगे –

पौर्णमासी की कुटिया में श्रीराधारानी विरहाकुल हो मूर्छित हो गयी हैं ।

ललिता ने अपनी गोद में उन्हें ले लिया है ….अन्य सखियाँ जो स्वाभाविक ही है अतीव चिन्ता कर रही है । श्रीराधा के नेत्रों से अश्रु , लम्बी लम्बी साँस , पीताभ मुखमण्डल और रोम रोम से श्याम , श्याम, श्याम की पुकार । केशराशि बिखरे हुए हैं …अलकें मुखमण्डल में फैल गयी हैं …अश्रु ललिता के भी बह तो रहे हैं ….पर ये तो हृदय खोल उन्मुक्त रो भी नही सकती है …क्यों की ललिता ही इन भावनाओं में बह जाएगी तो इनकी ये विरह-दग्धा श्रीराधा को कौन सम्भालेगा ?

श्रीराधा की ये स्थिति देख पौर्णमासी की समाधि और लग गयी थी ।

ललिता देखती है ….इनके पास लाड़ली को लाये थे कुछ झाड़ फूँक कर देंगीं …..किन्तु ये तो स्वयं भाव समाधि में चली गयीं ।

अजी स्थिति बहुत खराब है बस इतना समझ लीजिये ।

चार घड़ी तक सब कुछ सामान्य रहा …किन्तु घड़ी चार के बाद ….श्रीराधा की मूर्च्छा टूटी ।

समाधि पौर्णमासी की भी उसी समय खुली ।

उठते ही “श्याम श्याम श्याम” की रट श्रीराधा ने आरम्भ कर दी थी । इस बार इनका मुखमण्डल दमक रहा था …सूर्य के प्रकाश की तरह । वो किसी की ओर नही देख रहीं थीं …उनकी दृष्टि नीचे थी …..हाँ , उनके नेत्रों से अविरल अश्रु बह रहे थे ….अवनी में कीच हो गया था ।

पर ये क्या ? समाधि से उठते ही ….पौर्णमासी ने सर्वप्रथम श्रीराधा को प्रणाम किया ।

किन्तु श्रीराधा का ध्यान अपने श्याम सुन्दर में था इसलिये पौर्णमासी के प्रणाम की कोई प्रतिक्रिया उन्होंने नही दी ।

हाँ , ललिता ने आश्चर्य से देखा था …..तो ललिता सखी को ही देखते हुए पौर्णमासी ने अपने समाधि की घटना का उल्लेख किया ।

मैं समाधि में अपने महादेव से चर्चा कर रही थी …..ललिता ने प्रश्नवाचक दृष्टि से पौर्णमासी की ओर देखा …….मैंने महादेव से पूछा ….श्रीराधा की ऐसी दशा क्यों ? पौर्णमासी ने ललिता सखी की ओर देखते हुए कहा …..मैंने महादेव से पूछा – ये मेरे पास में आयीं हैं …तन्त्र-मन्त्र के द्वारा मैं इनके इस विरहव्यथा को शान्त करूँ , ये इसलिये आई हैं । हे महादेव ! आप बतायें मेरे लिए क्या आज्ञा है ! और इनका ये विरह कैसे शान्त होगा ?

पौर्णमासी इतना बोलकर चुप हो गयीं …फिर उन्होंने श्रीराधारानी की ओर देखा …वो इकटक अपने चरणों की ओर ही देख रही थीं …अश्रु निरन्तर बह ही रहे थे …एक प्रेम की अलग सुवास कुटिया में फैल रही थी । पौर्णमासी का कहना था कि यही सुवास तो मुझे समाधि में ले गया ।

फिर आपसे महादेव ने क्या कहा ? ललिता सखी ने पूछा । कोई उपाय बताया ?

आप ये पूछ रही हो ? पौर्णमासी ने ललिता से ही प्रतिप्रश्न कर दिया था ।

किन्तु ललिता कुछ नही बोली …..तब पौर्णमासी ने कहा ….हे ललिता देवि ! आप स्वयं पराम्बा हो ….आदिशक्ति हो ……ललिता सखी पौर्णमासी के इस बात पर विशेष रुचि नही लेती….वो अपने स्वामिनी के विषय में ही जानना चाहती हैं ।

जिनकी सखी सहचरी सेवा में उपस्थित स्वयं पराम्बा भगवती ललिता हों तो उनकी भी स्वामिनी क्या होंगी ये मुझे कहने की कोई आवश्यकता नही है ।

मुझ से महादेव ने कहा – ये श्रीराधा परब्रह्म की आल्हादिनी शक्ति हैं …..ये परब्रह्म की आत्मा हैं …..ये जिस प्रेम का दर्शन कराने आयीं हैं …इससे ये जगत आनन्द सिन्धु में अवगाहन करने लगेगा । पौर्णमासी की बातों में ललिता को अब रुचि नही हो रही थी ….क्यों कि श्रीराधा की विरह-व्यथा दूर करने का उपाय जानना था ….महिमा नही जाननी थी ।

मैंने भी यही कहा महादेव से ….कि इनका दुःख कैसे कम होगा ये बता दीजिये ….क्यों की ये गोपकन्यायें यही जानना चाहती हैं …..उपाय के लिए मेरे पास आयी हैं ।

मेरी बात सुनकर महादेव कुछ देर बोले ही नही….फिर बोले – वैकुण्ठ लोक के भक्तों का सुख-दुःख और इस संसार के जीवों का सुख दुःख…..हे पौर्णमासी ! दो भागों में बाँटों …एक भाग में समस्त का सुख रखो दूसरे में समस्त का दुःख रखो……इतना कहकर महादेव फिर मौन हो गये थे ….मैंने देखा – उनके भी नेत्र सजल हो उठे । पौर्णमासी ! मैं क्या कहूँ ! उन समस्त का दुःख-सुख मिलाकर भी श्रीराधा के दुःख-सुख की तुलना में – सब बिन्दु हैं । सम्पूर्ण जीवों का दुःख श्रीराधा के दुःख की तुलना में कुछ नही है । क्या कोई तन्त्र मन्त्र है ऐसा जो इस श्रीराधा के विरह दुःख को मिटा सके ? नही है । अरे ! मैं तो यहाँ तक कहता हूँ कि अनन्त ब्रह्मांडों के दुखों का ये विरह दुःख तिरस्कार करता है । कोई दुःख इसकी तुलना नही कर सकता । ये प्रेम मार्ग है ….महादेव ने मुझे बैचैन देखा तो तुरन्त मुझ से कहा …..एक सामान्य सांसारिक प्रेम में भी जीव दुखों को सहता हुआ , रोता विलखता हुआ आगे बढ़ता है …ये तो दिव्यातिदिव्य प्रेम है पौर्णमासी ! अलौकिक प्रेम है ……

क्या इनका फिर मिलन नही होगा ? मैंने महादेव से बीच में ही पूछ लिया ।

महादेव हंसे …..तुम समझीं नहीं ….ये दोनों अलग हैं ही नहीं । ये इनका संदेश है …कि देखो बिना सर्वत्याग के , कुल , धर्म , मान , देह , लोक परलोक इन सबका पूर्ण त्याग किये बिना …प्रीतम नही मिलेगा । श्रीराधारानी इसी करुणा के चलते पृथ्वी में अवतरित हुयी हैं …..ये प्रेम की उच्चावस्था का दर्शन कराने आईं हैं जगत को , महादेव बोले ।

सब कुछ बिना त्यागे …..वो कैसे मिलेगा । ओह ! महादेव अंतर्ध्यान हो गये थे , उन्होंने सब कुछ स्पष्ट कर दिया था ….हाँ , जाते जाते इतना बोले ….श्रीराधारानी प्रेम की चरम सीमा स्वरूपणी आल्हादिनी शक्ति हैं ….ये बात स्मरण रहे ।

हे ललिते ! अब मैं क्या कहूँ ? आप मुझे बताओ ।

पौर्णमासी ने ललिता सखी की ओर देखकर कहा था ।

ललिता क्या कहें ।

श्रीराधारानी उसी समय दृष्टि उठाती हैं ….वो देखती हैं उस कुटिया को ।

मैं कहाँ हूँ ? ललिते ! मैं कहाँ हूँ ? श्रीराधारानी पूछती हैं ।

आप नन्दगाँव में हैं …..ललिता ने अपनी गोद में सुलाते हुए कहा ।

नन्दगाँव ? तुरन्त फिर उठ गयीं श्रीराधा , अपने अश्रु पोंछे …..”नन्दगाँव तो मेरे श्याम सुन्दर का गाँव है ….वो कहाँ हैं ? ललिता कुछ नही बोली ।

बोल ना ! क्या वो गैया चराने गये हैं ? फिर इधर उधर देखा श्रीराधारानी ने ….मनसुख पीछे बैठा हुआ था …….अरे ! मनसुख ! तू ? तू नही गया श्याम सुन्दर के साथ । मनसुख ये सुनते ही हिलकियों से रो पड़ा । श्रीराधारानी मनसुख को इकटक देखती रहीं ….फिर बोलीं …तुझे किसी गोपी ने मारा है क्या ? किसी के घर की मटकी फोड़ दी ? ललिता ! ये रो रहा है ….मनसुख रो रहा है ….मत रो ….अपने सखा से कह देना ….अच्छा ! तू इसलिये गैया चराने नही गया ?

मनसुख और रो रहा है ……सब ही रो रहे हैं …श्रीराधा की ये स्थिति देख कर ।

कल तू था ना , श्याम सुन्दर के साथ ? इधर आ ! श्रीराधा ने अपने पास बुलाया ।

मनसुख आगे आया ।

किसी को कहना नही …कल श्याम सुन्दर ने तुझ से कहा ना …वो बात किसी को मत कहना ।

फिर ललिता की ओर देखा श्रीराधा ने …और कहा …..ललिते ! धीरे से बोलीं ….कान में ही बोलीं …..श्याम सुन्दर ने मेरे लिए इससे कहा ….”ये राधा तेरी भाभी है , मैं इसी से ब्याह करूँगा”। फिर श्रीराधारानी मनसुख को देखती हैं ….है ना ? है ना ? पूछती हैं । अब मनसुख से यहाँ बैठा नही जा रहा …वो रोता हुआ उठकर चला गया बाहर । उन्माद में ताली बजाकर हंसती हैं श्रीराधारानी ….मुझे शरमाना था वो शरमा गया । ये नन्दगाँव के लोग शर्मीले हैं । पर वो शर्मीले नही हैं…….श्रीराधा ये कहते हुए फिर हंसती हैं ….ओह ! उनकी हंसी ….सबके हृदय में वज्र चला रही है । रो भी नही सकतीं सखियाँ , क्यों कि सखियाँ इस दशा में रोयेंगी ….तो श्रीराधारानी समझ जायेंगी ….ललिता ने सबको कह दिया है ….जब श्रीराधा हंसें …तो उस समय कोई नही रोयेगा ….कुछ भ्रम ही सही …भ्रम ही रहने दो । हमारी लाड़ली को कुछ पल ही सही सुख तो मिलेगा ।

ये क्या है ! पौर्णमासी कुछ नही समझ पा रही ।

अति वेदना में हंसी ? श्रीराधारानी की इस दशा की कल्पना भी आप कर सकते हैं ?


मैं नन्दमहल जाऊँगी । नही नही , मार्ग में ही खड़ी रहूँगी । श्रीराधा ललिता से कहती हैं ।

अब नन्दगाँव आई हूँ तो उन नीलसुन्दर को एक बार तो निहार लूँ …..फिर पीछे मुड़कर देखती हैं ….कुटिया के बाहर । अरे ! सन्ध्या होने को आई है ….गौचारण करके अब लौट रहे होंगे श्याम सुन्दर …चलो अब चलो । श्रीराधा उठ गयीं ।

पर पौर्णमासी ने उन्हें बिठा लिया ।

बहुत दिन हो गये हैं …..मैंने श्याम सुन्दर को देखा नही है ….आज देखने दो ना ।

तभी बाहर आवाज आई किसी के गिरने की ….पौर्णमासी बाहर गयीं तो देखा मनसुख गिर गया था …..माता ने जाकर उसे सम्भाला । लेकर आईं भीतर ।

वो मथुरा से कब आयेगा ? मनसुख रोता हुआ पूछ रहा था ।

श्रीराधा के कानों में ये शब्द गये ……मथुरा ? क्या वे मथुरा गये ?

फिर वही उन्माद , फिर विरह की चरम अवस्था ।

माता ! माता ! मैं आपके चरणों में पड़ती हूँ ….कोई उपाय बताओ ना , कि मेरे श्याम सुन्दर मथुरा से इस बृज में आजाएँ । वो मुझ से रूठ गए हैं …..फिर हिलकियाँ शुरू ।

मेरी एक बात आप मान लो । श्रीराधा रानी हाथ जोड़ रही हैं ….

आपके पास विष है ? ये सुनते ही परम धैर्यवान गम्भीर पौर्णमासी भी रो पड़ीं ।

या कोई विषधर नाग हो …..ऐ मनसुख भैया ! तू किसी नाग को पकड़ कर ले आ …मुझे डसवा दे ….तेरी कृपा होगी बहुत कृपा होगी । श्रीराधा बोले जा रही हैं ।

हे भानुदुलारी !

गम्भीर स्वर गूंजित हुआ कुटिया में । पौर्णमासी नेत्रों को मूँद के बोल रही थीं ।

तुम को हम सब जानती हैं …..तुम श्याम सुन्दर की आल्हादिनी हो । तुम को वे एक क्षण के लिए भी छोड़ नही सकते ….फिर वियोग सम्भव कैसे है ? हे कीर्ति कुमारी ! सब माया है ये जो दिखाई दे रहा है …अक्रूर माया है ….माया का प्रकाश है ….श्याम सुन्दर कही नही गये …..वो यहीं हैं ….वो बृज को छोड़कर कहीं जा सकते नहीं हैं ।

तो क्या वो मेरे साथ रास रचायेंगे ? कितने भोलेपन से पूछा था श्रीराधा ने ।

पौर्णमासी ने तुरन्त उत्तर दिया …..हाँ , वो रास रचायेंगे ….बस यही समझो की रस वृद्धि के लिए ही उन्होंने ये लीला की है ….माया की लीला ।

माया की लीला ? श्रीराधा सोचती हैं ….फिर वो शून्य में देखने लग जाती हैं ……

ललिते ! ये माया कौन है ? क्या मथुरा की कोई नारी है ? जिसके साथ मिलकर श्यामसुन्दर ने हमें छोड़ दिया । ओह ! फिर उन्हें ये बाबरी राधा क्यों चाहिये ? माया तो उनके पास है ना ?

पौर्णमासी अब क्या कहें ?

तभी श्रीदामा भैया वहाँ पहुँच गये …..रात्रि होने वाली है इसलिए अपनी बहन को लेने आये थे ….बैलगाड़ी ये भी लाये । ललिता ने देखा श्रीदामा को तो वो उठ गयीं ….और हाथ जोड़कर पौर्णमासी से बोलीं …”श्याम सुन्दर ही कुछ कर सकते हैं माता ! आपको हमने कष्ट दिया क्षमा करें”।

पौर्णमासी ने सिर झुकाया अपना …श्रीराधारानी के पद रज को बाद में अपने माथे से लगाया ।

बाहर मनसुख खड़ा है …श्रीदामा से रोते हुए बतिया रहा है । श्रीराधा अपनी सखियों के साथ बैलगाड़ी में बैठ गयी हैं ।

अश्रु प्रवाहित करते हुए देखती रहीं पौर्णमासी ।

बैलगाड़ी चलने ही वाली थी कि ….श्रीराधारानी ने मनसुख को बुलाया …मनसुख आया तो श्रीराधा ने पूछा ….मनसुख ! एक बात बता !

ये माया कौन है ? मथुरा में रहती है क्या ? कैसी है ? मुझ से सुन्दर है ?

उफ़ ! मनसुख फिर रो पड़ा …….बैलगाड़ी बरसाने के लिए चल दी थी ।

क्रमशः….

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