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June 6, 2025 5:15 am

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दमन में सड़क सुरक्षा अभियान को मिली नई दिशा, “Helmet Hero “मुहिम के अंतर्गत आयोजित हुई जागरूकता ग्राम सभा माननीय प्रशासक श्री प्रफुलभाई पटेल के कुशल नेतृत्व में दमन में सड़क सुरक्षा के प्रति जनजागरूकता अभियानोंको नई गति

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श्रीराधिका का प्रेमोन्माद – 9-( वंशीवट में ) : Niru Ashra

श्रीराधिका का प्रेमोन्माद – 9-( वंशीवट में ) : Niru Ashra

श्रीराधिका का प्रेमोन्माद – 9

( वंशीवट में )

गतांक से आगे –

रात में शयन किया बरसाने जा कर श्रीराधारानी ने ?

अब शयन की बात छोड़ दो ….

जो साधारण प्रेम होता है उसका वियोग भी आपकी नींद , भोजन , हंसी और व्यर्थ की बातें सब कुछ उड़ा देती है तो ये तो अलौकिक , विलक्षण प्रेम का वियोग है …..इसमें बस प्राण नही निकलते …निकल भी जायें किन्तु “प्रीतम को दोषी ठहराया जाएगा” ये बात हृदय में आते ही मृत्यु को टाल दिया जाता है ….वो उन्माद मृत्यु से भी कष्टकारी होता है …..किन्तु ! प्रेमियों का यही जीवन है ….”हम आह करें , वो वाह करें”…..प्रीतम की याद में रोना , रात रात भर सिसकना , उसी उन्माद में फिर हंसना , मूर्छित हो जाता है …प्रीतम के अतिरिक्त चर्चा से चिड़चिड़ापन आजाना, अजी , अन्य बातों को ही भूल जाना , बैठे बैठे प्रीतम में खो जाना , कभी रूठ जाना , कभी रिसाय जाना , कभी रीझ जाना , और फिर कभी प्रीतम ही बनकर खिलखिला उठना । ये हैं प्रेम उन्माद के लक्षण ।

श्रीमद्भागवत जी के एकादशस्कन्ध में जब उद्धव प्रश्न करते हैं अपने श्रीकृष्ण से …हे भगवन्! ये वसुधा किसके द्वारा पवित्र होती है । कौन है वो पुण्यात्मा जिसके कारण ये धरित्री अपने को धन्य मानती है ?

तब श्याम सुन्दर के नेत्रों से अश्रु बहने लगे ….वो कुछ देर के लिये मौन हो गए …फिर बोले –

हे उद्धव ! जिसकी वाणी गदगद हो जाती है प्रेम के कारण , प्रेम के कारण जो रोने लगता है …..प्रेम में रोने के कारण उसका चित्त अत्यन्त पवित्र हो जाता है ….भाव में डूबने के कारण वो लज्जा को छोड़कर उच्च स्वर से गाने लगता है , फिर उन्मत्त हो नाचने भी लगता है ….ऐसा प्रेमी भक्त ही पूरे संसार को पवित्र बना देता है ।

ये भगवान श्रीकृष्ण के वाक्य हैं ।

अब विचार करो ….गोपियों के प्रेमोन्माद की क्या महिमा होगी ? फिर उन गोपियों की भी जो ईश्वरी हैं ….श्रीराधिका जू , उनके विषय में तो बोला ही क्या जाये ?

साधकों ! ये लिखना सरल नही है ….अपनी स्वामिनी को बिलखते रोते देखकर लिखना पड़ता है ….लिखते लिखते रोना पड़ता है , फिर रोते रोते संभल कर लिखना ।

आह !


रात भर कराहती रहीं श्रीराधारानी , अश्रुओं की धार पूरे महल में बह चली । कभी कभी साँस अटक जाती थीं श्रीराधा की तो ललिता सखी के प्राण अटक जाते थे ।

हा कृष्ण ! हा बल्लभ ! हा प्राण ! हा प्रियतम !

यही पुकार रातभर चलती रही थी ।

प्रभात की वेला हुई …..किन्तु आज नभ में बादल और छा गये …ओह ! ललिता का हृदय चीख उठा …बदरा ! ये तू कहाँ से आगया यहाँ ! जा यहाँ से । मथुरा जा , वहाँ छा जा , किन्तु मेरी प्रार्थना है यहाँ से चला जा …मैंने रात भर जैसे तैसे सम्भाला है अपनी स्वामिनी को ….तू फिर उनको उन्मादिनी बनाने आ गया । तू जा ! तू काला है …काले से ही मिल , आज कल काला बृज में नही रहता ….तू मथुरा में जा ! ललिता सखी रो उठती है ।

ललिते ! भीतर महल से पुकार उठीं श्रीराधिका ।

ललिता दौड़ी आईं …..क्या बात है ?

मुझे वंशीवट जाना है । मुझे वंशीवट ले चल । हाथ में बाँसुरी है श्रीराधा के …..बाँसुरी देखकर ही इन्हें स्मरण हो आया था ।

जाते जाते क्यों दे गए तुम बाँसुरी श्याम सुन्दर ? प्रेम दिखाना है तुम्हें तो आओ , देखो अपनी आँखों से तुम्हारी प्राणप्रिया की दशा ! ललिता को कभी कभी श्याम सुन्दर के ऊपर बड़ा ही क्रोध आता है ….उसकी इच्छा है कभी श्याम सुन्दर मिलें तो उन्हें खूब सुनाऊँगी । बता दूँगी कि तुमने कितना बड़ा अपराध कर दिया है ।

ललिते ! श्रीराधिका फिर बुला रही हैं । मुझे वंशीवट ले चल ।

पास आई ललिता , वस्त्र लेकर आई थी …..अश्रुओं से भींग गए हैं वस्त्र ….पहनाने लगी नवीन वस्त्र ….तो श्रीराधा बोलीं …मैं स्नान करूँगी । आपका स्नान ही तो है ….अश्रुजल से शताधिक स्नान आपका नित्य होता है ….ललिता मन ही मन बोली थी । नही , मुझे स्नान करना है । ललिता कुछ नही बोली । ललिते ! मुझे स्नान करा …मेरा श्रृंगार कर । मेरी वेणी बना दे ।

ललिता ने देखा ये क्यों ऐसे बोल रही हैं …सजना चाहती हैं ? वेणी बनाना चाहती हैं ? क्यों ?

“वंशीवट में श्याम सुन्दर मिलेंगे ना”! श्रीराधारानी ने कहा ।

किन्तु ये उन्माद में नही बोलीं थीं श्रीराधिका ।

ये बाँसुरी देख रही है ना ललिता ! ये श्याम सुन्दर ने मथुरा जाते जाते मुझे दिया था …मैंने मना किया पर वो बोले थे ….”राधे ! ये रख लो ….मेरी याद आये बजा लेना , मैं मथुरा से दौड़ा चला आऊँगा “। बाँसुरी को हाथ में लेकर बड़े प्रेम से श्रीराधारानी बता रही थीं ।

मैं आज वंशीवट में, और सुन ललिता ! उसी कदम्ब वृक्ष के नीचे खड़े होकर मैं बाँसुरी बजाऊँगी ….फिर देखना श्याम सुन्दर आजाएँगे , मैं उनसे मिलूँगी , उनके हृदय से लग जाऊँगी , हम दोनों , बस हम दोनों …..ये कहते हुए श्रीराधा के नेत्र बन्द हो गये थे …वो भाव के सर्वोच्चतम स्थिति में विराजमान थीं ।


आज बड़े मन से स्नान किया था श्रीराधारानी ने ….साड़ी भी नीले रंग की पहनी थी ….वेणी सुन्दर गुँथी थी …..”पर श्याम सुन्दर जैसी नही” ….ललिता की ओर देखकर मुस्कुराते हुए श्रीराधा रानी बोलीं थीं …ललिता को अच्छा लग रहा है …कितने दिनों के बाद आज मेरी लाड़ली प्रसन्न है ।

नाक में श्रीराधा के बेसर लगाते हुए रो पड़ी ललिता ।

हे श्याम सुन्दर ! तुम आजाना । वंशीवट में आजाना ! अगर तुम नही आये तो इस इस भोरी किशोरी को आज मैं सम्भाल नही पाऊँगी । तुम आना , मेरी प्रार्थना है । नेत्रों के अश्रु पोंछती है ललिता …..

बेसर कौन की अति नीकी ? है ना ! फिर श्रीराधा ललिता की ओर देखकर हंसती हैं ।

सोलह शृंगार किए हैं श्रीराधा जी के ललिता ने …..ये श्रीराधा ने ही कह कहकर करवाया था ।

ये श्याम सुन्दर को अच्छा लगता है ….तो ऐसा कर । ये श्याम सुन्दर को प्रिय है तू इसे ऐसा कर ….ललिता शान्त है आज , वो भीतर से डरी हुयी है ….और कोई बात नही , डर यही कि श्याम सुन्दर नही आये तो कैसे श्रीराधा संभलेंगी ?

सज गयीं ….माला सुन्दर पहनी ….एक माला श्याम सुन्दर के लिए भी ले ली श्रीराधा ने ।

अरे ! महावर तो लगाया नही , ललिता ! महावर तो लगा दे …..विशाखा महावर लेकर आइ ….और ललिता ने श्रीजी कि चरणों में महावर भी लगा दिये ।

ललिता ! पता है “उन्हें” महावर लगाना भी आता था ….

ये कहकर फिर अपना मुँह बंद करने लगीं ….हाय ! फिर हंसीं …..मैंने ये बात बता दी ….सुन ! तू ये बात उनसे मत कहना ….कहीं वो रिसाय गये तो । ललिता मात्र “हाँ ना” में सिर हिला रही है ।

अब कलेवा !

कीर्तिरानी ने देखा महल में आकर ….फिर ललिता को बुलाकर कहा …आज लाड़ली ठीक लग रही है , है ना ? लम्बी साँस लेकर ललिता बोली …पता नही कब तक मैया !

कीर्तिरानी देखती रहीं अपनी लाड़ली को …..आइने के सामने खड़ी हैं श्रीराधा ….अपने को ही देख रही हैं …इधर उधर उनका ध्यान ही नही है ।

कहाँ जा रहे हो ? कीर्तिरानी ने पूछा ।

वंशीवट …..ललिता ने उत्तर दिया ।

कलेवा करवा दो लाड़ली को …और तुम लोग भी कर लो । कीर्तिरानी ने अपनी दासियों से माखन आदि मँगवाये …..और ललिता को बड़े प्रेम से कहा ….खिलाकर ही ले जाना ।

ललिता ने सिर “हाँ” में हिलाया….और माखन लेकर कक्ष में आगयीं ।

ओह ! ये माखन है ? उछल पड़ीं श्रीराधा । ललिता! तू कितनी अच्छी है ….मैं सोच ही रही थी कि माखन भी ले जाती , श्याम सुन्दर आयेंगे मथुरा से तो माखन उन्हें खिलाऊँगी । ये ठीक है , चल मटकी ले चलते हैं ….उन्हें माखन खिलायेंगे । ये ठीक रहेगा ।

ललिता ने धीरे से कहा – आप स्वामिनी ! थोड़ा तो माखन खा लो ।

पागल है क्या ! प्रीतम के लिए है ये माखन …..वो खायेंगे फिर उनका प्रसाद मैं चखूँगी । मैं कैसे खा सकती हूँ पहले । कुछ भी बोलती है तू । चल अब ।

श्रीराधा माखन की मटकी एक हाथ में लेकर और दूसरे हाथ में बाँसुरी लेकर आगे चल पड़ीं ।

अब श्रीराधा ने ही कलेवा नही किया तो औरों के करने का तो कोई मतलब ही नही था । बैलगाड़ी में बैठकर वंशीवट के लिए सब चल पड़ीं थीं ।


ये है मेरा वंशीवट !

श्रीराधा वंशीवट में आकर घूमने लगीं ….सखियों का हाथ पकड़ कर वर्तुल में थिरकने लगीं थीं । ललिता देख रही है …उसका हृदय काँप रहा है …विरह-उन्माद में रोते रहना ये फिर भी ठीक है …किन्तु हंसना ? नृत्य करने लगना , थिरकना , ये क्या है ? उन्माद की पराकाष्ठा ?

हे कदम्ब ! हे वृक्षराज ! कैसे हो ? तुम भी दुखी हो स्पष्ट लग रहा है ।

यहीं आकर मेरे प्रियतम बाँसुरी बजाते थे ना ? वो रसराज चले गये , तुम तो जानते ही हो ! हम सब तुम्हारे पास आई हैं उनको बुलाने के लिये …..श्रीराधारानी कदम्ब वृक्ष से बात कर रही हैं ।

ये बाँसुरी पहचानते हो ना ? कदम्ब ! ये बाँसुरी मुझे दी थी मथुरा जाते जाते श्याम सुन्दर ने ….और कहा था …”मेरी याद आए बजा लेना” । श्रीराधा रुक गयीं यहीं ….फिर पीछे देखकर ललिता को बुलाया ….यही कहा था ना ? कि मेरी याद आए तो इस बाँसुरी को बजा लेना …राधे ! तुम रखो इस बाँसुरी को । किन्तु ललिता ! याद आये तो बजाना ? याद कहाँ आती है ? भूल ही नही पाते तो याद कहाँ से आयेगी ? श्रीराधा रुक गयीं …कदम्ब को देखा फिर बाँसुरी को ….वो कदम्ब के नीचे गयीं ….खड़ी हो गयीं त्रिभंगी बनकर …श्याम सुन्दर की तरह ही …..सखियाँ देख रही हैं …..ललिता इस झाँकी को देख रही है ….उसे लग रहा है …स्वामिनी यहाँ नही होतीं तो वो कितना रोती …खुल कर दहाड़ मार कर रोती ।

नेत्र बन्द कर लिए हैं श्रीराधारानी ने …….बाँसुरी अपने अधरों पर धरने लगीं ……

ललिता ने प्रार्थना करनी प्रारम्भ कर दी ….हे श्याम सुन्दर ! आजाना ! तुमने ही कहा था कि बाँसुरी बजाओ तो मैं आ जाऊँगा । तुम आजाना ! ललिता के नेत्रों से अश्रु बहने लगे ….तुम नही आये अगर तो फिर अच्छा नही होगा । कृपा करो , आजाओ । ललिता ही प्रार्थना नही कर रही अन्य सखियाँ भी ….कोई देवि कात्यायनी को मना रही है …तो कोई गोपेश्वर महादेव को ….

श्रीराधारानी ने अपने अधरों में बाँसुरी को धर लिया है ….और जैसे ही फूंक मारने लगीं ….रुक गयीं । अपने अधरों से बाँसुरी को उतार लिया ….अपनी साड़ी से बाँसुरी को पोंछने लगीं ….फिर नेत्रों से अश्रु धार । हिलकियाँ । सिसकियाँ । गिर पड़ीं नीचे श्रीराधा ।

धिक्कार है तुझे राधा , धिक्कार है …..श्रीराधा रानी अपने को धिक्कार रही थीं । ओह ! ये क्या हो गया एकाएक स्वामिनी को …ये देखकर सब सखियाँ उनके पास दौड़ीं ।

ललिता ने तुरन्त अपनी गोद में ले लिया ।

ललिते ! पाप हो रहा था इस राधा से ….अपराध , महत्अपराध ! श्रीराधा ललिता को बोल रही थीं ….उनकी दशा वापस उन्माद की हो गयी थी ।

इतनी स्वार्थी राधा क़बसे थी ? अपने स्वार्थ के लिये श्याम सुन्दर को कष्ट दे ये राधा ? ना , ललिते ! तू बता क्या ये प्रेम है ? मैं बाँसुरी बजाती तो मेरे श्याम सुन्दर दौड़े हुए आते , वो किस अवस्था में हैं ? कहाँ हैं ? किसके साथ हैं ? वो दौड़ पड़ते अपनी राधा के लिये ….किन्तु क्या ये उचित होता ? राधा के ऊपर कलंक लग जाता कि ये स्वार्थी है ….स्वार्थ तो प्रेम नही है ?

प्यारे ! तुम जीयो , तुम जहां रहो खुश रहो , तुम प्रसन्न रहो ।

फिर श्रीराधारानी रो पड़ीं …..मैं कभी नही बजाऊँगी बाँसुरी ….क्यों बजाऊँ ? मैं कष्ट नही दूँगी अपने प्रीतम को । उनको जब राधा की याद आये वे आजाएँ , किन्तु राधा नही बुलायेगी । श्रीराधा ये कहते हुए मूर्छित हो गयीं थीं ।

तभी काले काले बदरा छा गये ……

बैलगाड़ी में बैठकर सब वापस बरसाने की ओर ।

बदरा धीरे धीरे चल रहे हैं ……ललिता देख रही हैं …..कभी बादल को देखती हैं कभी भावोन्माद में मूर्छित अपनी स्वामिनी श्रीराधारानी को ।

उफ़ ! उफ़ ! उफ़ !

क्रमशः…

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