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November 21, 2024 12:59 pm

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श्रीराधिका का प्रेमोन्माद – 10-( रोहिणी माता और श्रीराधा का उन्माद ) : Niru Ashra

श्रीराधिका का प्रेमोन्माद – 10-( रोहिणी माता और श्रीराधा का उन्माद ) : Niru  Ashra

श्रीराधिका का प्रेमोन्माद – 10

( रोहिणी माता और श्रीराधा का उन्माद )

गतांक से आगे –

कितना रोका यशोदा मैया ने रोहिणी माता को पर वो नही रुकीं । नन्दबाबा का कहना था तुम बाबरी हो गयी हो …क्यों रुके रोहिणी यहाँ ? उसका पति वसुदेव मथुरा में है …उसका पुत्र बलराम मथुरा में है । फिर वो यहाँ क्यों रुकेगी ?

आज वसुदेव जी ने रथ भेज दिया है मथुरा से अपनी धर्मपत्नी रोहिणी के लिए ….तो सुबह से मथुरा जाने की तैयारी में लगीं हैं रोहिणी माता । और रोहिणी माता के आगे पीछे कर रही हैं बेचारी यशोदा मैया ….कहती जा रही हैं …आज रुक जाओ , तुम रहती हो तो थोड़ा मन लग जाता है । रोहिणी ! आज रुक जाओ । यशोदा मैया खूब कह रही हैं ।

जीजी ! आर्यपुत्र ने रथ भेज दिया है ….अब न जाऊँगी तो उन्हें बुरा लगेगा ना !

रोहिणी ! कल मैं स्वयं तुमको लेकर जाऊँगी ….मैं मथुरा जाऊँगी , अपने लाला को भी देख आऊँगी । यशोदा मैया कहती हैं ।

जीजी ! तुम सच में चलोगी मथुरा ? गम्भीर होकर रोहिणी ने पूछा था ।

यशोदा मौन हो गयीं । बड़े प्रेम से रोहिणी माता ने यशोदा मैया को समझाया ।

जीजी ! मैं आती जाती रहूँगी ना ! मुझे जाने दो मथुरा । तुम तो बृज छोड़ोगी नहीं ….मैं ही आजाऊँगी । दाऊ को भी ले आना ! भोलेपन से कहती हैं ये मैया । हाँ , हाँ दाऊ को भी लाऊँगी और कन्हैया को भी लाऊँगी । ठीक है ? अब मुझे जाने दो ….ये कहते हुए रोहिणी माता ने विदा के लिए जैसे ही मैया के चरण छूने चाहें …मैया उठ गयीं , अपना माथा पीटते वो रसोई की ओर भागीं ….वहाँ माखन की मटकी सुबह से ही तैयार करके रखी थी मैया ने अपने कन्हैया के लिए …ले आईं …दो मटकी लाईं और लाकर रोहिणी को देते हुए कहा …”ये मेरे कन्हैया के लिए, और ये दाऊ के लिए ।

रथ में बैठ गयीं हैं रोहिणी माता …सबने विदाई दी ।

किन्तु – जीजी ! मैं बरसाने जाऊँगी । वहाँ से मथुरा के लिए ।

बरसाने ? मैया ने ऐसे ही पूछ लिया ।

भानु भैया से और कीर्तिभाभी से भी मिल लूँ ….बड़ा अपनत्व मिला उनसे भी । और जीजी ! सबसे बड़ी बात उन्होंने गोकुल छोड़ने के बाद नंदगाँव बसाने के लिए अपनी जगह हमें दी ना । अगर नही दी होती तो ?

हाँ , बड़े उदार हैं वृषभानु भैया । यशोदा मैया इतना ही बोलीं ।

“राधा बेटी से भी मिल लेना “। यशोदा मैया कुछ देर के बाद बोलीं थीं । बहुत दिन हो गये वो आयी नही है यहाँ । वो आजाती है तो कन्हैया की उपस्थिति का भान करा जाती है , कोई भी नही आता आज कल , कन्हैया ही नही है ना ! वो होता तो आँगन में भीड़ लगी रहती ……मुझे भगाना पड़ता लोगों को । नेत्रों से अश्रु नही गिर रहे मैया के आज । रोहिणी माता फिर भी सुबुक रही हैं …अपने अश्रुओं को पोंछ रही हैं …..किन्तु आश्चर्य ! आज मैया यशोदा रो नही रहीं ।

ओह ! ये यशोदा जीजी भी । रोहिणी माता समझती हैं मैया को ।

रथ में जैसे ही बैठीं रोहिणी माता रथ चल पड़ा …तभी मूर्छित होकर गिर पड़ीं यशोदा मैया । पीछे जैसे ही मुड़कर देखना चाहा रोहिणी माता ने ….मूर्छित हो गयीं थीं । अब समझ में आया कि – यात्रा में कोई जाये तो रोकर विदा नही करना चाहिये ….इसलिए अपने भावों को इन्होंने दाव कर रखा था ….किन्तु इसका जब विस्फोट हुआ तो मूर्च्छा । अब ये कोई नई बात नही है बृजवासियों के लिए । कन्हैया जब से गया है बृजवासियों में रोना धोना मूर्च्छा, ये लगा ही रहता है । फिर मैया के लिए तो ये “आऐ दिन” की बात हो गयी है ।


बरसाना ।

रोहिणी माता का रथ सीधे रुका बरसाने के महल में । कीर्तिमैया ने और बरसाने के अधिपति वृषभानु जी ने उनका स्वागत किया ।

भैया ! मैं जा रही हूँ मथुरा । वृषभानु सजल नेत्र से इतना ही बोले …भाभी यशोदा आपके जाने पर अकेली हो जायेंगीं । वो तो पथरा गयीं हैं जब से उनका लाला मथुरा गया है । कीर्तिरानी भी अश्रु बहाते हुए बोलीं थीं ।

लम्बी साँस लेकर वृषभानु जी ने इतना ही कहा ….कन्हैया क्या गया मथुरा पूरा बृज ही ऐसा लगता है मानौं दावानल में झुलस गया हो । अब सारी ऋतुएँ एक सी हो गयीं हैं । किसी ऋतु के आने जाने पर उत्साह नही रहता । वृषभानु जी कहते हैं ….बात हमारी नही है ….प्रकृति में भी उत्साह नही रहा , पक्षी अब कलरव नही करते , मोरों ने तो नाचना जैसे बन्द ही कर दिया है …इससे ज़्यादा बोला नही गया वृषभानु जी से । वो मौन हो गये ।

बेटी राधा से भी मिलना था । इधर उधर देखते हुये रोहिणी माता बोलीं । कीर्तिरानी ने कहा…वो किसी से मिलती है नही आज कल , अकेले रहती है । इतना कहते हुए उठीं और रोहिणी माता से बोलीं ….आइये ….आप मिल लेना …..मुझ से उसकी दशा देखी नही जाती ….कीर्तिरानी ये कहते हुए श्रीराधा के महल में ले चलीं थीं ।

ये महल है राधा का ।

ललिता ! ओ ललिता !
आवाज दी कीर्तिरानी ने ।

हाँ मैया ! भीतर से ललिता सखी आयी । देख कौन आया है …रोहिणी आयीं हैं । सिर झुकाकर ललिता ने रोहिणी मैया को प्रणाम किया । ये जा रही हैं मथुरा , तो जाते जाते हमसे मिलते हुए ….ये इनका स्नेह है हम बृजवासियों के प्रति । कीर्ति रानी ने ये सब कहकर अन्तिम में कहा ….”ललिता ! इनको लाड़ली से मिला दे , लाड़ली से मिलकर ये चली जायेंगीं “। ललिता बस सिर हिलाकर कहती है….हाँ , ठीक है । क्या कर रही है लाली ? कीर्तिमैया ने पूछा ।

अभी मूर्च्छा से उठीं हैं …..रुँधे कण्ठ से ललिता ने कहा ।

कीर्तिरानी कुछ नही बोलीं ….इनको भीतर ले जा …इतना कहा …और स्वयं चली गयीं वहाँ से ।

माता ! बस कुछ क्षण आपको यहीं रुकना पड़ेगा । ललिता ने बड़े संकोच से कहा ।

लाड़ली अभी मूर्च्छा से उठीं हैं …..उनको थोड़ा सम्भाल लूँ…..ललिता से ये सुनकर रोहिणी माता ने कहा …हाँ , मैं यहीं हूँ …तुम जाओ । सम्भाल करो ।

ललिता भीतर गयी …..द्वार बन्द हो गया था ।


ललिता सखी ने धीरे से द्वार खोला और कहा ….माता ! आप आइये ।

रोहिणी ने प्रवेश किया श्रीराधा के महल में ।

रोहिणी माता का देह काँप उठा , वो श्रीराधा सदन में जो प्रेम कि ऊर्जा थी उससे रोहिणी माता काँप उठीं थीं । एक गन्ध फैली हुयी है उस वातावरण में , वो गन्ध प्रेम के उन्माद का है , विरह की चीत्कार है उस गन्ध में , सिसकियाँ हैं , आह है । रोहिणी माता साक्षात् दर्शन करती हैं प्रीति की प्रतिमा श्रीराधिका जू की । धीरे धीरे अपने कदम बढ़ा रही हैं रोहिणी , हर कदम में उनको कंपन का अनुभव हो रहा है ….उन्हें ऐसा लग रहा है कि यहाँ की दीवारें चीख रही हैं …श्याम कहाँ हैं ? उन्हें लग रहा है कि यहाँ के परमाणु में ही विरह घुल चुका है , ऐसा लग रहा है रोहिणी को कि प्रेम के उन्माद की पराकाष्ठा है यहाँ तो ।

तभी –

ललिते ! ललिते ! एक चीख निकली । ललिता सखी दौड़ीं ….क्या हुआ स्वामिनी !

रोहिणी देख रही हैं …..वो गौरवर्णी कोमलांगी सुकुमारता भी जिसको देखकर लजा जाये वो श्रीराधिका …..ओह ! बेसुध पड़ी हैं !

हाँ , हाँ क्या हुआ ? ललिता सेवा में है , वो पूछ रही है ।

मृत्यु को मैंने बुला लिया है …वो मान नही रहा था ….मैंने उसके हाथ पैर जोड़े …और कहा …मुझे मार दे ….मार दे , मार दे ।

श्रीराधारानी के मुख से ये सुनकर …ललिता अपना सिर धरती में पटक रही है ….रो रही है ….ऐसा मत कहो …हे राधिके ! ऐसा मत कहो । प्रेम में मरना तो पड़ता ही है ….फिर श्रीराधा कराहते हुए बोलीं – मेरी एक प्रार्थना है …ललिते ! मेरी एक प्रार्थना है । ललिता अपने अश्रुओं को पोंछते हुए कहती है ….क्या स्वामिनी ! कहिये ? बस कुछ नही ललिते ! मुझे जब मृत्यु खींचकर ले जाये तो उस समय मेरे कान में ….प्रीतम का नाम बोल देना । ललिते ! श्रीराधा का उन्माद चरम पर था ….मेरे मृत देह को जलाना मत , न बहाना …सुन ! उस कदम्ब वृक्ष से बाँध देना जिस की छाँव में मेरे प्रीतम बैठते थे । ललिते !

ये सुनते ही रोहिणी माता तो रो पड़ीं …..ये क्या ! भानु दुलारी की ये स्थिति ?

कन्हैया जब था बृज में तब ये सिंहनी की तरह चलती थीं ….मुझ से ही आकर कितनी बार …माता ! श्याम सुन्दर कहाँ हैं ? उस समय की वो ठसक ! और आज ये दशा ?

हे स्वामिनी ! ये आपसे मिलने आई हैं ?

कौन ? कौन मिलने आईं हैं ? क्या राधा मिलने योग्य भी है ? श्याम सुन्दर ने छोड़ दिया है , उससे क्यों मिलना ! श्रीराधा का फिर प्रलाप । मैं तो विरह में जल रही हूँ …कह दो कोई न आये मेरे पास ….जो भी आयेगा जल जायेगा । आहा ! प्रीतम की वो अलकावली ! श्रीराधा फिर खो गयीं । ललिता ! उनकी वो अलकावलियां जैसे ही मुझे याद आती हैं ना …मैं अपने केश नोंचने लगती हूँ …ओह ! उनका वो उन्नत ललाट ! जब उनके ललाट का स्मरण करती हूँ ना तो ललिता! अपना ललाट दीवार पर पटकती हूँ । उनका मुखकमल जब स्मरण में आता है …तब मैं अपना ही मुख नोंचने लग जाती हूँ ।

रोहिणी ये सब सुन रही हैं , उनका देह काँप रहा है ….ये क्या है ? विरह की पराकाष्ठा? ऐसा भी होता है …सुना था पर आज साक्षात् दर्शन हो रहे हैं ।

ललिता ! उन कमल नयन के बरछीले नयन …उनका स्मरण होते ही ऐसा लगता है …ऐसा लगता है अपने सिर की बलि चढ़ा दूँ । ओह ! श्रीराधारानी का उन्माद इतना ही नही है ….वो आक्रामक हो चुकी हैं …..उनके कमल नयन ! श्रीराधा फिर कहना आरम्भ करती हैं , उन कमल नयन का स्मरण होते ही मेरी आँखें पथरा जाती हैं सखी ! उनके वो अरुण अधर ! मैं अपने अधरों में जीभ फेरने लग जाती हूँ ।

इधर आ ! ललिता ! इधर आ ! एकाएक अपने अत्यन्त निकट ललिता को बुलाकर श्रीराधा बोलने लगती हैं …कुछ दिखा रही हैं …रोहिणी देख रही हैं ये है उन्मादिनी श्रीराधा की लीला।

देख ये घाव है , बाहों में घाव है श्रीराधारानी के । वो दिखा रही हैं ललिता को ।

ललिते ! ये श्याम सुन्दर के नख की खरोंच है …मुख में चमक आगयी है एकाएक ….ये घाव ठीक हो जाता …पर मैंने होने नही दिया । ललिता स्तब्ध देख रही है अपनी इस विरहिणी सखी को ।

मेरी बाहों को पकड़ लिया था प्रीतम ने …जब मैं छुड़ाने लगी तो उनके नख की खरोंच लग गयी ….खरोंच ठीक होने लगे ….तो मैं और खुरच देती । इसको मैंने ठीक होने नही दिया ..न दूँगी …श्रीराधा बड़े आनन्द से कहती हैं …मेरे प्रीतम की निशानी है ….मैं इसे कैसे ठीक होने दूँ ।

रोहिणी माता ने अपने को सम्भाला …..चार घड़ी बीत चुके थे ….रथवान सन्देश भिजवा चुका था कि मथुरा जाना है विलम्ब हो जायेगा । रोहिणी माता संभलीं ….और आगे बढ़ीं । ललिता भी भूल चुकी थी कि रोहिणी माता भी हैं वो प्रतीक्षा में हैं कुछ बातें करते हुए फिर निकलेंगी ।

ओह ! स्वामिनी ! ये रोहिणी माता !
मथुरा जा रही थीं तो आपसे मिलने आयीं हैं । ललिता ने बताया ।

रोहिणी माता ?
तुरन्त सिर में पल्लू डाल लिया और धरती में प्रणाम किया श्रीराधारानी ने ।

जीती रहो बेटी ! आशीष दिया ।

नही माता ! अब नही जीना ! श्रीराधारानी ने रोते हुए हाथ जोड़ लिये …..उनके बिना जीवन ही व्यर्थ लगता है माता । फिर अपने को सम्भालकर श्रीराधा बोलीं ….आप मथुरा जा रही हो ?

हाँ बेटी ! कुछ कहना है कन्हैया से ? रोहिणी ने पूछा ।

श्रीराधा मौन हो गयीं कुछ देर के लिये …..फिर बोलीं – माता ! उनसे कहना तुम्हारी राधा तुम्हें बहुत याद करती है । फिर बोलीं ….ये क्या बात हुई …राधा याद करती है ? मैं भूली कब ? वो फिर ललिता की ओर देखती हैं …मैं उनको भूली हूँ क्या ? नही ना ? माता ! ये मत कहना । आप उनको कहना …कि राधा आपकी याद में बहुत रोती है । फिर ….नही नही माता ! ये कहोगी तो उन्हें दुःख होगा , वो कहीं अपने को दोषी मानें …नही ये मत कहना । कुछ सोचकर फिर …..माता ! आप कहना कि … राधा ने प्रार्थना किया है – वृन्दावन चले आओ । फिर श्रीराधारानी कहती हैं ….ये भी आदेश हो गया ना ? नही , मैं तो उनके चरणों की दासी हूँ आदेश कैसे दे सकती हूँ ! मैं तो प्रार्थना ही कर सकती हूँ ….वो स्वामी हैं उनकी इच्छा , जब चाहें आयें ….न आयें । ये सब मत कहना । अब श्रीराधा उन्माद में बोलीं …एक बात पूछना …क्या उनके सुरभित श्रीअंग का आलिंगन राधा को फिर मिलेगा ? ये कहने के कुछ देर बाद ही ……

ललिता ! राधा को क्या हो गया है ? वो इतनी स्वार्थी तो कभी नही थी …अपने स्वार्थ के लिए वो प्रीतम को कष्ट दे रही है …..क्यों ? माता ! उनसे कहो …वो न आयें वृन्दावन । फिर श्रीराधा बोलीं …नही , ये रूखे वचन होंगे …रसराज को ये वचन अच्छे नही लगेंगे ….श्रीराधा बैचैन हो उठीं ….बोलीं – कहना माता ! जो अच्छा लगे वही करो । नही , ये भी ठीक नही है …ये तो अपनत्व की भाषा नही हुई ।

हे श्याम सुन्दर ! मैं क्या कहूँ तुमको , तुम स्वयं सब समझते हो । नगर में बस गये हो हम गाँव की हैं …बोलना आता नही है ….बस इतना ही कहेंगी …कि इस गँवार राधा से कोई अपराध बन गया हो तो मूर्खा समझ कर क्षमा कर देना । हे प्रीतम ! भूलना नही ….हे प्राण ! ये राधा तुम्हारे लिए ही जीवन धारण करके बैठी है । इतना कहते हुए अश्रु धार बहने लगे ….चीत्कार छूट गयी …और श्रीराधा वहीं मूर्छित हो गयीं ।

रोहिणी माता ,
इसी श्रीराधा के प्रेमोन्माद का चित्र अपने हृदय में अंकित कर मथुरा में चली गयीं ।

रोहिणी भी रोते हुए ही गयीं थीं मथुरा ।

क्रमशः….

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