श्रीराधिका का प्रेमोन्माद – 19
( श्रीकृष्ण और ललिता का अद्भुत संवाद )
गतांक से आगे –
कौन हो ? सामने आओ !
कृष्ण के ऐसा कहते ही वह जोगन बनी ललिता सामने आगयी थी ।
किन्तु इसका भेष जोगन जैसा था …अपने सुन्दर केशों को इसने ऊपर की ओर कर के बाँध रखा था । बाग में ललिता दिखाई तो दे रही थी ….पर स्पष्ट नही , वेला भी तो अर्धरात्रि की है ।
कृष्ण कोशिश कर रहे हैं …इसे कहीं देखा है ….परिचय घनिष्ठ है ….किन्तु कौन है ये ?
तुम मेरे कक्ष में आसकती हो ! कृष्ण ने अब ललिता सखी से कहा ।
नही , मैं नही आसकती आपके कक्ष में । वो गौर वर्णी सुन्दरी ने यही उत्तर दिया ।
पर क्यों ? कृष्ण झरोखे से ही पूछ रहे हैं ललिता से ।
क्यों कि मैं एक जोगन हूँ …वैसे भी शास्त्र कहते हैं ….कि पुरुष अकेले हो …तो वहाँ स्त्री को अकेले प्रवेश नही करना चाहिये ….फिर मैं तो एक जोगन हूँ …जोगन को तो राजा के रजोगुण से भरे कक्ष में कदापि प्रवेश नही करना चाहिए । ललिता सहज बोली ।
किन्तु तुम्हारी बोली मुझे जानी पहचानी लग रही है ।
कृष्ण अपलक देख रहे हैं ललिता को ।
तुरन्त ललिता ने अपना मुँह पीले चादर से ढँक लिया …..मुझे आप ऐसे न देखें ।
ओह ! तुम कौन हो ? बताओ तो ? यहाँ कैसे आयी हो ?
ललिता इसका उत्तर देती कि इधर उधर देखकर कृष्ण झरोखे से ही बाग में कूद कर आगये ।
आप ? ललिता को रोमांच होने लगा ।
आहा ! मेरी स्वामिनी ! बस यही अवसर मैं चाहती थी ….अब शायद श्याम सुन्दर को आपकी यथा स्थिति समझाई जा सकती है । ललिता अपनी स्वामिनी श्रीराधारानी को याद करती है …..प्रसन्न है अब ये ….इसने जो चाहा था वो हो रहा था । अब बस ….हे कात्यायनी देवी ! कृष्ण वृन्दावन चलें …ऐसी कृपा करो । कात्यायनी देवी की प्रार्थना भी कर रही है ललिता ।
मैं यहाँ बैठ जाता हूँ …..कृष्ण पीपल वृक्ष के नीचे जाकर बैठ गए …..
तुम यहाँ तो बैठ सकती हो ! अपने सामने ललिता को बैठने के लिए कहा ।
हाँ , ललिता मुँह छुपाये है । किन्तु कृष्ण भी कुछ नही बोल रहे ।
हाँ , तो तुम्हारा नाम क्या है ? कृष्ण ने अब पूछा ।
ललिता के कानों में अमृत घुल रहा है । स्वामिनी जू ! मेरे सामने श्याम सुन्दर बैठे हैं । वो मन ही मन कह रही है ।
क्या हुआ ? तुमने बताया नही , तुम्हारा नाम क्या है ? कृष्ण ने फिर पूछा ।
मेरा नाम है – “प्रेम भिखारन” …ललिता ने उत्तर दिया ।
ये कैसा नाम है ?
कृष्ण मन ही मन सोच रहे थे ….फिर दूसरा प्रश्न कर दिया …कहाँ से आयी हो ?
ललिता चुप हो गयी ….वो अपने चादर के कोने से कृष्ण को देख रही है ।
बोलो ! कहाँ से आयी हो ? कृष्ण ने फिर पूछा ।
हे महाराज ! क्षमा कीजिये …मैं मथुरा में आते ही सब कुछ भूल गयी हूँ ….मुझे कुछ याद नही आरहा ….कि मैं कहाँ की हूँ ? ललिता ने ये विचित्र सा उत्तर दिया था ।
कृष्ण हंसे …..अपने माता पिता तो याद होंगे …कि वो भी याद नही हैं ? कृष्ण का ये व्यंग ।
ललिता ने भोलेपन से कहा ….नही याद ….सच में याद नही है ।
कृष्ण ने कहा …जहां हम खेले कूदे ,
जिन्होंने हमें पाल पोस कर बड़ा किया कोई उन्हें कैसे भूल सकता है !
यही तो …चहक उठी थी ललिता । यही तो महाराज ! इस मथुरा में ही कुछ है …सच कह रही हूँ ……इस मथुरा में कुछ है ……अरे क्या कुछ है ? कृष्ण झुंझलाये ।
यही कि – यहाँ आते ही लोग सब कुछ भूल जाते हैं …सब कुछ… अपनी भूमि भी ….अपने माता पिता भी …जिन्होंने पाल पोस कर हमें बड़ा किया ….किन्तु ये बात सब को समझ में नही आती …है ना ? हे महाराज ! आप तो समझ ही गये होंगे ? कृष्ण ने जैसे ही ये सुना ….वो स्तब्ध हो गये ….उठ कर खड़े हो गये ….तुम कौन हो ? बताओ तुम कौन हो ?
महाराज ! आप उठिये मत ….विराजे रहिये ….क्यों की आप विराजे रहें , यही आपकी शोभा है …..बाकी लोगों का क्या ? वो आपके लिए रोते हैं …तो रोते रहें ….मरें तो मरते रहें । ललिता के मुख से ये सुनकर कृष्ण उसके पास आये । किन्तु ललिता खिसक गयी पीछे …और कृष्ण वहीं बैठ गये ।
हाँ , महाराज ! मैं झूठ नही बोलती …आप भी अनुभव कर लीजियेगा …इस मथुरा में ही कुछ है कि यहाँ आते ही लोग अपने पूर्व जीवन की सारी बातें भूल जातें हैं । ललिता ने फिर इसी बात को दोहराया ।
अच्छा ! छोड़ो …तुम्हारा नाम ?
कृष्ण सोचने लगे कि उसी समय ललिता हंसी …और बोली ..मैंने कहा था ना ? मथुरा के पानी में ही कुछ है जो सब कुछ भुला देता है …”प्रेम भिखारन”…..यही नाम है मेरा ।
हाँ , तो सुनो ……तुमने ये नाम , जो अभी नाम लिया था ना ?
ललिता बोली – क्या ! प्रेम भिखारन ?
नही , तुम इकतारा में जो नाम लेकर गा रही थी ….वो नाम तुमने कहाँ से सुना ?
कौन सा नाम ? मैं भूल गयी …महाराज ! आप भी भूल गए ना ?
मैं गम्भीर हूँ …..कृष्ण ने कहा ।
हंसी ललिता ….हम कहाँ विनोद कर रही हैं ……पर ये कहते ही उसके नेत्रों से अश्रु बरस पड़े । हमारा तो जीवन दाँव पर लगा है महाराज !
आँखें बन्द कीं कृष्ण ने , फिर लम्बी स्वाँस लेकर बोले , ये “राधा नाम” कहाँ , कहाँ से सुना तुमने ? कहाँ से जाना ? तुमको ये नाम कहाँ से मिला ?
कृष्ण प्रेममय हो उठे थे ।
ललिता बोली ….महाराज ! ये आपने क्या पूछ लिया ….ये “राधा” नाम तो हमारी उपासना का प्रमुख अंग है । हे मथुराधीश ! ये हमारा धन है , परम धन । “राधा राधा राधा” ललिता ने फिर तीन बार इस नाम का उच्चारण किया । कृष्ण ने अपनी आँखें बन्द कर लीं ….वो इस नाम में डूब गये थे …ललिता देख रही है ….उसे असीम आनन्द आरहा है ये देखकर कि श्याम सुन्दर के हृदय में स्वामिनी अभी भी विराजमान हैं ।
तभी – ये कौन है ? ये कहाँ से आयी हैं ? एक सुन्दरी बाग में चली आयी थी ….ललिता ने उसे देखा ….फिर कृष्ण को …पर कृष्ण उसकी उपेक्षा ही कर रहे थे ।
तुम कौन हो ? ललिता ने उस सुन्दर नारी से पूछा ।
मैं कुब्जा ….वो बोली । ललिता हंसी ….फिर कृष्ण की ओर देखा ।
क्या चाहिए तुम्हें ? माँगों क्या चाहिये ? कृष्ण ललिता को देखकर बोले ।
क्या दोगे ? ललिता फिर हंसी ।
यही कि सुवर्ण , मणि माणिक्य …जो माँगों । कृष्ण ने कहा ।
“इन सबको तो हम धन ही नही मानतीं”…….कृष्ण स्तब्ध थे ललिता की बातें सुनकर ।
कुब्जा कुछ कुछ बोलती रही …पर कृष्ण ने उसकी पूर्ण उपेक्षा की तो वो वहाँ से चली गयी ।
धन नही मानतीं ! सुवर्ण आदि को तुम धन ही मानतीं ? कृष्ण चकित होकर पूछ रहे हैं ।
हाँ , क्यों कि हम वहाँ की निवासिनी हैं जहां की भूमि चिंतामणि की है । जहां के हर वृक्ष कल्पवृक्ष हैं …हाँ महाराज ! ललिता बोलती जा रही है …..हमारे पर्वत नित्य मणियाँ प्रकट कर देते हैं ….और हम मणियों से खेलती हैं …इसलिए हमारे लिए ये सब महत्वपूर्ण नही हैं ।
फिर क्या महत्वपूर्ण है तुम्हारे लिये ? कृष्ण ने स्पष्ट जानना चाहा ।
लम्बी स्वाँस लेकर ललिता सखी बोली …..बस दो बात पूछनी है …आप बता दीजिए ।
पर मुझ से ही क्यों ? कृष्ण ने पूछा ।
अरे वाह ! आप महाराज हैं …राजा हैं …मात्र सिंहासन में बैठने के लिए महाराज हुए हैं क्या ?
हम आपकी प्रजा हैं …हम किससे कहेंगीं ? बताइये , हम किसको अपनी समस्या कहें ?
ललिता तेज है …..अपनी स्वामिनी की ठसक इसके भीतर है ।
हाँ , ठीक है ….बोलो …क्या बात है ? कृष्ण को आखिर कहना ही पड़ा ।
गम्भीर हो गयी ललिता ….नयनों में उसके अश्रु भर आये …किन्तु अभी इन्हें दिखाना नही है …इसलिये रोक लिया है ।
“मेरी एक सखी हैं ….ललिता ने बताना शुरू किया ……वो सखी भी हैं और ….महाराज ! ये समझिये कि वही हमारी सर्वस्व हैं । ललिता बोल रही है …कृष्ण स्वयं नही समझ पा रहे कि अकेले अर्धरात्रि में बाग में बैठकर वो इस जोगन की बातें क्यों सुन रहे हैं ।
महाराज ! हमारी वो सखी एक अमूल्य श्याम मणि रखती थीं ….हृदय में छुपा कर रखती थीं ….ललिता ने अपनी बात बतानी शुरू की …….क्यों कि वो मणि कहीं नही पाया जाता था …पृथ्वी की बात छोड़िए …स्वर्ग के ख़ज़ाने में भी ऐसा मणि नही है महाराज । ललिता बोल रही है …कृष्ण उसकी एक एक बात को सुन रहे हैं ।
मेरी प्राणप्रिय सखी उस श्याम मणि को सुरक्षित रखती थीं ….लेकिन एक दिन ….ये कहते हुए ललिता एकाएक हिलकियों से रो पड़ी …….मत रोओ , मुझे अच्छा नही लग रहा ….आगे बताओ क्या हुआ ? कृष्ण बोले । आगे महाराज ! एक दिन दुष्ट कंस का एक दूत हमारी सखी के गाँव में पहुँच गया और उसने जाकर …..निर्दयता पूर्वक हृदय से श्याम मणि को खींच लिया और मथुरा चला आया ।
महाराज ! मेरी सखी उन्मादिनी हो गयी हैं……ललिता अब गम्भीर है ……आप राजा हैं उसको बचा लीजिए अन्यथा वो मर जायेंगीं …और अगर वो मर गयीं तो आप पर अपयश का कलंक लगेगा …जो आप नही चाहेंगे ।
ललिता की बातें सुनकर कृष्ण के देह में रोमांच होने लगा था …….अपने आप उनके नेत्रों से अश्रु झरने लगे थे ।
वो मणि कहाँ है ? कृष्ण ने रुँधे कण्ठ से पूछा ।
आपके मथुरा में ……दे दीजिये महाराज ! दे दीजिए ….जैसे मणि के बिना सर्प पागल हो जाता है वैसे ही हमारी सखी हो गयीं हैं …..आप की चारों दिशाओं में बड़ी प्रशंसा हो रही है …आप न्याय प्रिय हैं …इसलिये मैं यहाँ आयी हूँ । ललिता बोलती गयी …..आपकी कीर्ति का विस्तार होगा …बहुत विस्तार होगा महाराज ! हम लोग ही इकतारा लेकर गाँव गाँव में जायेंगी और आपके गुणों का गान करेंगीं ….”महाराज मथुराधीश की जय हो”…..सदा सर्वदा यही जय घोष करती रहेंगीं …महाराज ! वो श्याम मणि हमारी सखी को लौटा दिजीए । ये कहकर ललिता अब हाथ जोड़ने लगी थी ….कृष्ण ने ललिता का मुख देखा ….और उसे पहचानने की कोशिश करने लगे थे ।
क्रमशः….


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