“श्रीराधाचरितामृतम्” 86 !!
अथातो “प्रेम” जिज्ञासा
भाग 2
मैं आगया विद्या पूरी करके………मेरे श्रीकृष्ण भी मथुरा पहुँच गए थे……उद्धव विचार कर रहे हैं ………उनकी उतरी धोती ही पहनता था मैं ………..उनकी प्रसादी पीताम्बरी ……..उनकी प्रसादी माला ……..क्या यही प्रेम है ?
छुप छुप के मैं भी उनका जूठन खाता था …………..ये क्या है ?
यही प्रेम है ……….पर इन श्रीराधारानी के हृदय में जितनी उद्विग्नता है अपनें प्राणनाथ से मिलनें की ……….वो मेरे में नही है ।
कुछ समझ में नही आता ………इस अव्यक्त रस भाव सिन्धु को क्या नाम दूँ ? क्या यही प्रेम है !
ये प्रेम का सागर कितना अद्भुत और कितना गहरा है ………दिव्य !
डर मुझे भी लग रहा है ………हाँ मैं अभी तक किनारे में ही खड़ा हूँ …..बस देख रहा हूँ……….मुझे पता है मैं भी अगर इस प्रेम सागर में डूब गया तो निकल नही पाउँगा ……….पर मुझे डूबना है ……..अब मुझे डूबना है …….डूब के देखना है ।
उद्धव सुगभीरता से विचार करते हैं ………आत्मा के अनुकूल प्रेम ही तो है ………नही नही …आत्मा स्वयं प्रेम रूप है …………इस संसार में अगर कुछ पवित्रतम है …..तो वह प्रेम ही है ……….सब कुछ अनित्य है ….प्रेम ही नित्य है …………उद्धव आनन्दित हो जाते हैं ।
पर श्रीराधारानी कुछ कहना चाहती हैं …….उद्धव सुन रहे हैं ।
अच्छा हुआ कंस का वध कर दिया हमारे श्याम सुन्दर नें ।
तुम यदुवंशी लोग परेशान से …कहाँ कहाँ छुपते फिर रहे थे ना ?
पता है उद्धव ! हमारे प्राण प्यारे श्याम सुन्दर जब मथुरा जा रहे थे ना ……..तब उन्होंने हमसे कहा था – मैं कंस के आतंक को समाप्त करके शीघ्र आऊँगा ……..श्रीराधारानी नें कहा ।
तब उद्धव ! हमनें उनसे कहा था …..प्यारे ! झूठ मत बोलो …….तुम यहाँ कहाँ आ पाओगे …..वहाँ तो महल है ……यहाँ तो वन है ….
वहाँ तो छप्पन भोग होंगें……यहाँ तो माखन और बेझर की रोटी है ।
राज्य को चलाओगे कि यहाँ आकर गौ चराओगे ?
उद्धव ! ये बात हमनें कही थी अपने प्रिय से …………
पर उनका उत्तर था ………मेरी प्यारी ! मेरे मन में राज्य की कोई लालसा नही है ……न महल सुख की ………..मुझे तो यहीं अच्छा लगता है …….यहीं वृन्दावन में……..मैं आऊँगा …….जल्दी आऊँगा ।
उद्धव ! तुम कह सकते हो …………कि वो तो तुम लोगों से कहा होगा …..ऐसे ही सांत्वना देनें के लिये …………..तो उद्धव ! उसनें तो अपनें माता पिता से भी ऐसे ही कहा है ……….पूछो नन्द बाबा से ?
क्रमशः …
शेष चरित्र कल –


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