“श्रीराधिका का प्रेमोन्माद – 23”
( श्रीकृष्ण के हृदय का उमड़ता प्रवाह )
गतांक से आगे –
राधा ! राधा !
पास के सरोवर जल के छीटें जब श्रीकृष्ण के मुखमण्डल में ललिता ने डाले ….तब कृष्ण को चेत हुआ था …..उन्होंने राधा ! राधा ! पुकारा ।
हाँ श्याम सुन्दर ! ललिता ने कृष्ण के हाथों को अपने हाथ में लिया ।
मेरी राधा कैसी है ? फिर हिलकियाँ ।
बता ना ! मेरी राधा कैसे रहती हैं मेरे बिना ? ओह ! वो मेरे वक्ष का स्वर्णहार हैं….वो मेरा जीवन है , नही नही , वो मेरी आत्मा है । ललिता ! राधा के समान कोई नही है …कोई हो नही सकता ।
कृष्ण श्रीराधा के विषय में बोलते बोलते …अत्यधिक भाव के कारण काँपने लगे थे ….उनके अंग शिथिल हो रहे थे ।
ललिता ! उस दिन मेरी प्रिया के साथ विशाखा थी …..मैं गौचारण करते करते दूर चला गया था …और एक सुन्दर घना कदम्ब देखकर उसकी छाँव में सो गया था । तभी मेरी राधा वहाँ आयीं ….वो मेरे पास ही बैठ गयीं ….उन्होंने मुझे जगाया भी नही …मैं सोच रहा था कि ये मुझे जगायेंगी …किन्तु वो बैठी रहीं ….मुझे देखती रहीं ….अपने अश्रुओं को पोंछते हुए कृष्ण आगे बोले …वहाँ विशाखा पास के सरोवर से एक कमल पुष्प तोड़ लाई थी ….और मेरे नयनों में वो कमल पराग उड़ाने लगी ….ताकि मैं उठ जाऊँ । किन्तु मेरी राधा का प्रेम ! राधा ने जब ये देखा तो तुरन्त विशाखा को मना किया और कहा ….कि ये प्रेम नही है विशाखा ! किन्तु स्वामिनी ! मैं तो उन्हें इसलिये जगा रही थी कि …वो आपको देख सकें ! हंसीं थी मेरी राधा ….फिर कुछ देर मौन रहकर मेरी प्रिया ने कहा था ….अपना सुख देखना प्रेम नही है !
देख ! थके हैं मेरे प्रीतम …सो रहे हैं ….इन्हें सुख मिल रहा है …मत जगा । हे विशाखा ! इनके सुख में अगर हम सुखी नही हैं …तो हमारे जीवन में प्रेम भी नही है …कृष्ण विकल हो उठे हैं इस प्रसंग को स्मरण कर । आहा ! अपने सुख की तनिक भी परवाह नही थी मेरी राधा को । ये प्रेम कहाँ है ? ऐसा प्रेम कहाँ मिलता है ? कृष्ण विह्वल हो उठे थे ।
मैं उठा और अपनी प्यारी से बोला ……मैं तो जगा था ! बस इतना मेरे कहते ही मेरी प्यारी ने मुझे अपने हृदय से लगा लिया । हम दोनों उस दिन वन में ही विहार करते रहे ।
हे ललिता ! मैं क्या बताऊँ उस दिन जो प्रेम वैचित्री अवस्था का प्रिया ने मुझे दर्शन कराया वो ……कृष्ण ये कहते कहते रुक गये उनकी वाणी अवरुद्ध हो गयी ….वो फिर – हा राधा ! हा राधिका ! कहते हुए गिर पड़े ।
ललिता इधर उधर देख रही है …..क्यों की अब भोर भी तो होने वाली है ….लोग आयेंगे और इन्हें खोजेंगे ….ये पूर्व की तरह अब ग्वाले तो नही हैं , न वृन्दावन में हैं …ये तो मथुरा में हैं और यहाँ के राजा हैं , मथुराधीश हैं । ललिता ने कृष्ण के चरण तल को अपने हाथों से मलना शुरू किया…
ललिता !
उस दिन हम दोनों वन में विहार कर रहे थे ….तभी एक वट छाँव में मेरी प्रिया जाकर बैठ गयीं ।
कृष्ण को फिर जब चेत आया तो उठ गये …ललिता का हाथ पकड़कर पूर्व की घटना का स्मरण करने लगे थे । इस बार अपने नयन मूँद लिए थे कृष्ण ने बोलते हुए ।
ललिता ! मैं भी वहाँ जाकर बैठ गया था ….मुसकुराईं थीं मेरी प्रिया, तो मैं आगे बढ़कर उनकी गोद में लेट गया …आहा ! वो मेरे केशों को सहला रही थीं ….मुझे निहार रही थीं ….मैं प्रेम के सुख में डूबा हुआ था कि तभी एक मधुप वहाँ आगया । भ्रम में आया था वो मधुप , उसे लगा कि कोई कमल है….कमल की सुगन्ध मेरी प्रिया के अंगों से आती है । ये कहकर कृष्ण ने लम्बी स्वाँस ली ….कुछ देर रुके ….फिर बोलना आरम्भ किया ।
मधुप मेरी प्रिया के मुख पर बैठना चाहता था ….वो हटाने लगीं …किन्तु मधुप भी जिद्दी ….वो जा नही रहा था …..वो बार बार अपनी चुनरी से उसे भगा रही थीं …मैं देखता रहा और सुख लूटता रहा । मैं अपनी प्रिया के मुख अरविंद में खो रहा था ….किन्तु जब मैंने देखा कि प्रिया दुखी हो रही हैं मधुप के चलते ….तो मैंने उस मधुप के लिये अपनी माला से एक कमल निकाल कर दूर फेंक दिया ….वो मधुप वहाँ चला गया और कमल पुष्प का रस पीने लगा । किन्तु इधर मेरी प्रिया उस मधुप को उड़ाने में ही लगी हैं ….वो है नही …किन्तु प्रिया लग रहा है वो फिर आया ।
मैंने हंसते हुए कहा ….प्यारी जू ! मधुसूदन तो गया ।
ओह ललिता ! , मैंने तो भ्रमर के लिए “मधुसूदन” कहा था ….किन्तु प्रिया ने मुझे समझ लिया ।
ललिता ! ऐसी प्रेम वैचित्र स्थिति मैंने न सुनी न देखी थी । कृष्ण भाव प्रवाह में बहते जा रहे हैं ।
मैं प्रिया की गोद में ही लेटा हुआ हूँ …..
हे मधुसूदन ! तुम कहाँ गये ? वो रोने लगीं …मैं उठ गया ….उन्हें मैं कहने लगा कि – मैं यहीं हूँ ….
पर मेरे पूर्व शब्दों को उनके हृदय ने पकड रखा था ….वो बस विकल हो उठीं ….कहाँ गए …वो उठकर इधर भागने लगीं ….उनकी वो दशा उन्माद पूर्ण थी …मैंने सोचा था कि कुछ समय में ये उन्माद शान्त हो जायेगा …किन्तु नही ।
हे नाथ ! हे प्रिय ! हे मेरे जीवनधन ! कहाँ गये ? वो चीत्कार उठीं ….तुम्हारे कारण मेरा ये देह विरह की ज्वाला में धधक रहा है ….मुझे बचाओ । ललिता ! वो यमुना में कूदने जा रही थीं वो गिरि गोवर्धन से गिरने वाली थीं …..उनकी ये दशा देखकर वन के जीव सब व्याकुल हो उठे थे ।
मैं सम्भालना चाह रहा था ….पर वो …….
मैं तुम्हारे अयोग्य हूँ …इसलिये तुमने मुझे त्याग दिया ? ओह ! मैं कहाँ …और तुम कहाँ ?
हे श्याम सुन्दर ! मैं अभिमान से भरी थी …इसलिए तुमने मुझे त्याग दिया । मत त्यागो …मैं कहीं की न रहूँगी ….मैं कहाँ जाऊँ ? बताओ नाथ ! तुम्हारे बिना इस राधा का कौन है ! ये कहते हुए मेरी राधा शून्य में देखने लगी थी …उनकी वाणी अवरुद्ध हो गयी थी ।
कृष्ण के नेत्र बरस रहे हैं ….इस प्रसंग को बताते हुए ।
ललिता ! फिर मैं अपनी प्राण प्रिया को लेकर आया उसी कदम्ब वृक्ष के नीचे ….वहाँ उन्हें बिठाया …उन्हें भान नही है । मैंने इधर उधर देखा उस कमल को खोजने लगा …वो कमल वहीं था …और मधुप भी वहीं था । मैंने शीघ्र उस कमल को लिया और अपनी प्रिया के निकट रख दिया …स्वेद के कारण मेरी राधा के देह की सुगन्ध पहले से तीव्र फैल रही थी । उस मधुप ने उसी गन्ध के कारण कमल को छोड़, जैसे ही प्रिया के मुख कमल की ओर उड़ा ।
प्रिया जू ! मधुसूदन आगये । मैंने ही कहा ।
कहाँ हैं ? कहाँ ? प्रिया इधर उधर देखने लगीं ….मैंनें उनके कोमल करों को लेकर अपने कपोल में जैसे ही धरा ……वो उसी क्षण मुझ से लिपट गयीं …और – मुझे छोड़कर क्यों गए तुम ! ये कहते हुए फिर रोने लगीं थीं ।
कृष्ण की दशा अवर्णनीय थी ।
वो मेरी राधा कैसी हैं ?
ललिता ने इस प्रश्न को सुना तो ………..
क्रमशः….


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