श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! “पनघट पे” – एक प्रेम प्रसंग !!
भाग 3
कन्हाई नें जैसे ही देखा बृषभान दुलारी को…….उनकी तो “मन की भई” हो गयी थी ।
दौड़ पड़े फेंट में बाँसुरी को रखकर कन्हाई ।
आप ? यहाँ कैसे ? वो भी तो बोल नही पा रहे हैं अपनी प्रिया से ।
मैं ………….शरमा गयीं किशोरी ।
मुझे सिखा दोगे नृत्य ? हये ! कितनी मधुर आवाज ।
मैं आपको सिखाऊंगा ? हँसे कन्हाई ।
आप तो स्वयं सर्वगुण सम्पन्न हैं …….मैं आपको क्या सिखाऊँ ?
कन्हाई विनम्र हो रहे थे अपनी किशोरी के आगे ।
नही नही ……आप बहुत सुन्दर नृत्य करते हैं ………..कृपा नही करेंगें हमारे ऊपर ? श्रीजी भी जिद्द पर ही उतर आईँ ।
हा हा हा हा हा ………कृपा मेरी ? या आपकी ?
प्रेमस्वरूप हैं ……प्रेम ही प्रेम से तो इनका ये विग्रह बना है ।
चलिये – आपको सिखा ही देता हूँ……..वैसे मुझे आता नही हैं ।
ये कहकर किशोरी जु के पास गए ……..हाथों को पकड़ा ………और संकेत में बोले………इन हाथों को ऐसे रखना है ……..बोल नही रहे क्यों की अति प्रेम के कारण शब्द रूक गए हैं ।
एक हाथ ऐसे घुमाते हुए वापस यहीं लाना है …………और प्यारी !
ये प्यारी शब्द मुँह से सहज निकल गया ……..फिर रुककर बोले …..मैं “प्यारी” कह सकता हूँ ना ? शरमा गयीं राधा रानी ।
सुनिये अब – आपके हाथ जैसे चलें अपनें इन चरणों को भी उसी लय से चलाना है ………..और ये ग्रीवा इसको ऐसे मटकाइये ……….ओह ! कन्हाई की नकल करते हुए श्री जी नें ऐसे ग्रीवा मटकाई कि कन्हाई को भी कहना पड़ा ………..जय हो ……..मुझे बेकार में आप गुरु बना रही हैं ……गुरु तो मेरी आप हैं ।
श्रीजी कन्हाई की हर बात पर हँसती हैं ………..उनकी हर बात ध्यान से सुनती हैं ………….कटि प्रदेश को भी थोडा कष्ट दीजिये ………
हाथों को छूते हैं …….ग्रीवा का स्पर्श करते हैं …….अपनें कपोल से श्री जी के कपोल को मिलाते हैं ……………..।
और तात ! पता है इनके दर्शक कौन हैं……वही सहस्रों मोर ……वृक्ष में बैठे पक्षी …….बहती हुई यमुना …….और यमुना का पनघट ।
प्रियतम साथ हों …..प्रेमास्पद साथ हों ……तो काल की गति का किसको भान रहता है …………
“समय बहुत हो गया है …….अब मैं जाती हूँ ……मेरी सखियाँ मेरी वाट देख रही होंगी……..आपनें मुझे नृत्य सिखाया……आपका आभार ।
किशोरी जु नें धन्यवाद किया……फिर बोलीं ……..मैं अब जा रही हूँ ।
प्रेमावतार ऐसे ही तो नही कहा जाता इन कन्हाई को …….झट् से आलिंगन में भर लिया “कर कंज” में अपनें “कर” फंसा दिए ।
और चिन्हारी के रूप में किशोरी जु की मुद्रिका उतार ली ।
उद्धव विदुर जी को ये प्रसंग सुना रहे हैं ……।
क्या श्रीजी को पता नही चला ? विदुर जी नें पूछा ।
उद्धव हँसते हुए बोले…ये ऐसे चोर हैं …..जो सामनें वाले के आँखों से काजल चुरा लें……और उसे पता भी न चले ….मुद्रिका की क्या बात है !
अच्छा ! नयनों में अपार प्रेम भरकर कन्हाई को देखा किशोरी जु नें …….फिर चली गयीं ………
मोर बोलनें लगे….पक्षी कोलाहल करनें लगे किशोरी जु के जाते ही ।
चुप ! चुप ………….देखो ! ये है मेरी प्यारी की मुद्रिका …………सब मोरों को दिखाया ……….मोर आनन्दित हो उठे ।
उस मुद्रिका को चूम कर श्याम नें अपनी फेंट में रख ली थी ।
उद्धव भी आज प्रेम सिन्धु में डूबकर ये सब सुना रहे हैं ।
आप कहाँ थीं किशोरी जु ! दूर से आती हुयी राधिका को देखा तो सब सखियों नें दौड़कर पूछ लिया ………………
पहले तो शरमा गयीं ………..फिर बता ही दिया ………वो कन्हाई यमुना के किनारे नृत्य कर रहे थे ……….मैं मुग्ध होकर देखती रही …….सखी ! मैने उनसे बाद में प्रार्थना करी …….कि मुझे भी सिखा दो ………सखी ! उन्होंने मेरी बात मान कर मुझे सिखा भी दिया …..
ये बातें किशोरी जी मन्त्र मुग्ध होकर बोल रही थीं ।
नृत्य भी सिखाया और दक्षिणा भी दे दी ? ललिता सखी नें आगे बढ़कर कहा ।
नही सखी ! वो ऐसे नही हैं……..उन्होंने मुझ से कुछ नही माँगा ।
माँगा नही ….चुरा लिया ना ! ललिता सखी नें श्रीजी के हाथों को देखा ……….यहाँ की मुद्रिका कहाँ गयी ?
श्रीजी ने देखा ……….नृत्य में खो गयी होगी ! पर उन्हें दोष मत दो ….वो ऐसे नही हैं ………..श्रीजी कह रही हैं ।
अजी ! रहनें दो ……….उन्हीं नें चुराया है ………….हम सब जानती हैं …..गोकुल में बड़ा नाम कमाकर आये हैं वो ……..चोर हैं ।
ललिता सखी बोले जा रही हैं ।
नही ……ललिता ! ऐसे मत बोल ………..उन्होंने हमें नृत्य सिखाया और हम उन्हें चोर कहें…….ये गलत है । राधिका जु मानती ही नही ।
आप चलो ! आप मत बोलना ……हम बोलेंगी …….और हम साँची कहती हैं …………मुद्रिका उन्हीं के पास है ……हम लेकर ही रहेंगी …….
ये कहकर श्रीजी को ले सखियाँ उसी पनघट पर पहुँच गयीं थीं ।✍️


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