“एक अद्भुत काव्य – “प्रेम पत्तनम्”
!! “प्रेम नगर” – भूमिका !!
इन दिनों शाश्वत गोवर्धन की तलहटी में वास कर रहा है । मिले हुये कई दिन हो गये थे , इसलिए इच्छा हुयी कि शाश्वत से मिलकर आया जाये । बरसाने में गौरांगी है ….वो दो दिनों से राधा बाग के निकट वास कर रही है ….गौरांगी का सन्देश मेरे पास आया तो मैंने उससे कहा ….मैं गिरिराज जी जा रहा हूँ ….गिरिराज जी के दर्शन और शाश्वत से मिलना है ।
हरि जी ! आप गिरिराज जी आरहे हो तो बरसाना भी आजाओ …लाड़ली जू के दर्शन कर लो …और मुझे भी शाश्वत से मिलना है फिर हम दोनों चलेंगे गिरिराज जी ।
गौरांगी ने मुझ से ये बात कही ।
मुझे गौरांगी की बात ठीक लगी ….मैं चल दिया बरसाने के लिए ….दर्शन करके वहीं मन्दिर में ही प्रसाद ग्रहण किया फिर गौरांगी के साथ गिरिराज जी चला आया था ।
शाश्वत हमें जतीपुरा में ही मिल गया ….वो कुछ पंजाब के युवा साधकों के साथ था …..मुझ से अतिउत्साह में वो मिला ….”श्रीराधिका का प्रेमोन्माद” की रचना के लिए मुझे बधाई भी दी ।
इस तरह आनन्द से चर्चा करते हुए हम उसकी कुटिया में चले आए थे ….वास्तव में साधकों की कैसी रहनी होनी चाहिये ये बात शाश्वत से सीखो । किसी की कोई निन्दा स्तुति नही …व्यर्थ की कोई बात नही । अपनी कुटिया की दीवारों में अनेक सुवाक्य लिखकर रखें हैं शाश्वत ने ।
एक वाक्य – “क्रोध करने से हृदय का रस सूख जाता है, इसलिये क्रोध से बचो” ।
शाश्वत ने मुझे पढ़ते हुए जब देखा तो उसने कहा …इस तरह से हम सावधान बने रहते हैं ….जीवन में कोई असावधानी वाला काम न हो इसलिये मैं ये सब लिखता हूँ । ठीक । मुझे अच्छा लगा ।
गौरांगी और मैं फिर दो वो पंजाबी साधक …..हम लोग आसन में बैठ गए थे ।
उसकी एक छोटी सी गुफा है ….उसमें वो किसी को जाने नही देता ….उसके भजन करने की गुफा…..मुझे उसने उस गुफा में बुलाया …..मैं गया तो बड़े प्रेम से मेरे दोनों हाथों को पकड़ कर उसने कहा …..बस ऐसे ही रस की चर्चा करते रहो …..उसके नेत्र सजल हो गये थे …..वो आगे कुछ बोलना चाह रहा था किन्तु वो बोल न सका । फिर उसने अपना एक संदूक खोला …उसमें से एक ग्रन्थ निकालते हुए बोला …..इस पर लिखो । ये क्या है ? मैंने सबसे पहले ग्रन्थ का नाम पढ़ना चाहा …..आहा ! नाम में ही जादू था । “ प्रेम पत्तनम् “ । प्रेम नगर ।
लेखक कौन हैं इसके ? और जब लेखक के विषय में जाना …तो और आनन्द आया …परम रसिक परम विद्वान श्रीरसिकोत्तंस जी । ये श्रीश्रीगदाधर भट्ट जी के ज्येष्ठ पुत्र थे । बृज रस के क्षेत्र में कौन होगा ऐसा जो श्रीश्रीगदाधर भट्ट जी का नाम न जानता हो । इस “प्रेम पत्तनम्” के लेखक ने जो उपकार रसिक समाज का किया है उसे भुलाया नही जा सकता ।
इस ग्रन्थ को लिखने का उद्देश्य क्या है ?
मैंने उस ग्रन्थ के दो तीन पृष्ठ पढ़ें ….तो मेरे मुँह से भी ये प्रश्न निकल गया ।
बस – रसानन्द का अनुभव । वो रस ही मूल है …उस रस तक पहुँचना ही लक्ष्य है ।
शाश्वत बोला ।
मैंने उस ग्रन्थ को अपने माथे से लगाया, और जैसे ही बाहर जाने लगा, आप लिखोगे ना ! इस ग्रन्थ पर ? शाश्वत ने मुझ से पूछा ।
मैंने कहा ….मैं तो नही लिख पाऊँगा , हाँ अगर “मधुरमेचक” ( श्याम सुन्दर का यही नाम है इस ग्रन्थ में , यही इस प्रेम नगर के राजा हैं ) लिखवा लें …तो लिख जायेगा । शाश्वत हंसा ….श्याम सुन्दर चाहते हैं कि आप इस ग्रन्थ पर लिखो ।
लम्बी साँस ली मैंने ….फिर ग्रन्थ को देखा ….मेरे लिए तो असम्भव ही है ….फिर कुछ पृष्ठ मैंने पलटे , लिखा था – “जहां अधर्म ही धर्म है , जहां झूठ ही सच है , जहां रति के सामने मति का परित्याग कर दिया जाता है …जहां सती का संग नही , असती ( कुलटा ) का संग ही श्रेष्ठ माना जाता है …..वो नगरी है प्रेम की नगरी” । ओह ! ये तो प्रेम का उच्चतम ग्रन्थ है । शाश्वत ने कहा …तभी आपको लिखने के लिए कह रहा हूँ । किन्तु ….ये सामान्य लोगों के लिए नही है …..मैंने कहा …और मैंने ये भी कहा ….सामाजिक लोगों के लिए इसमें कुछ नही है ।
शाश्वत मेरी बात पर खूब हंसा …..फिर बोला ….श्रीहित चौरासी जी क्या सामाजिक लोगों के लिए था ? “श्रीराधिका का प्रेमोन्माद” क्या सामाजिक है ? आप सामाजिक लिख कहाँ रहे हो इन दिनों ….आप जो लिख रहे हो ….वो भ्रमरों के लिए है …मक्खियों के लिए नही । ये “प्रेम पत्तनम्” भ्रमरों के लिए है ….जिसे मधु चाहिए …मधुर चाहिए …रस और आनन्द चाहिए ।
शाश्वत इतना ही बोला ….उसने गौरांगी को बुलाया और अपनी गुफा दिखाई ….शाश्वत गौरांगी के पाँव छूता है ….श्रीजी की सखी मानता है गौरांगी को ।
फिर वहाँ से हम लोग निकल गये बरसाना के लिए वापस ….गौरांगी को बरसाना छोड़ना है ….श्रीराधाष्टमी ये यहीं मनायेगी ।
तभी ….मेरे एक अच्छे साधक हैं ….लोनावाला से ….उन्होंने उसी समय मेरे बिना कुछ कहे …”प्रेम पत्तनम्” की एक पी डी एफ और भेज दी ….ये सब क्या हो रहा था ….मुझे पता नही ।
गौरांगी को छोड़कर जब मैं बरसाने से चला तो गौरांगी ने भी मुझ से पूछा ….अब क्या ?
मैंने कहा ….लाड़ली जू को कहना ….मुझे थोड़ी हिम्मत दें ….”प्रेम नगर” इस नाम से अब लिखने जा रहा हूँ ।
इसमें क्या होगा ? गौरांगी ने पूछा । मैंने कहा ….पढ़ना । और मैं वहाँ से चल दिया था ।
“कौन पावै याकौ पार , प्रेम नदिया की सदा उलटी बहै धार”
यही गुनगुनाता हुआ मैं श्रीवृन्दावन में आगया था ।
आगे की चर्चा कल –


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