!! “एक अद्भुत काव्य – “प्रेम पत्तनम्” !!
( “प्रेम नगर 1”- मंगलाचरण )
हम वासी वा देश में , जहँ बारह मास बिलास ।
प्रेम झरै , बिकसै कमल , तेज पुंज परकास ।।
हे रसिकों ! हम उस प्रेम देश के वासी हैं ….जहां रास विलास नित्य निरन्तर हो रहा है ।
प्रेम झर रहा है , जीवन का कमल खिल रहा है ….क्या यही जीवन नही है ? या तुम उसे जीवन कह रहे हो …जिसमें राग , द्वेष , हिंसा , कलह , अशान्ति , महत्वाकांक्षा की धधकती आग ….इसे जीवन कह रहे हो ? जहां धर्म की परिभाषा या तो स्वर्ग आदि के लोभ से है या नर्क के भय में । लोभ या भय …यही दिखाकर जहां जीवन को बांधा जाता है ….इतने सुंदर जीवन को । ना , ये जीवन नही है ….ये तो मुर्दों का देश है । जीवन तो यहाँ है , जीवन तो ये है ।
प्रेम की झिलमिल है नगरी !
अखिल अण्ड ब्रह्माण्ड परे , सब लोकन ते अगरी ।।
अति सै चित्र विचित्र अलौकिक , सोभा चहुँ बगरी ।
नही तहँ चंद नहीं तहँ सूरज , तौहूँ जगमगरी ।।
रस की भूमि नीर हूँ रस कौ , रसमय है सगरी ।
भर्यो रहत रस सदा एक रस , पिय रस की गगरी ।।
अजी ! ऐसा देश , ऐसा नगर , जहां रस ही रस है ….भूमि भी रस की और पीना भी रस ही ….क्या कहें …सब कुछ रस ही रस । मत्त रहना है हर समय , प्रेम की खुमारी जो चढ़ी वो यहाँ उतरती ही नही ….उतर भी जाये तो प्रीतम को नयन भर देख लिया तो फिर चढ़ गयी ।
यही तो हमारे रसिक जन हमें समझाते हैं ….चलो ना ! क्यों नही चलते ऐसी प्रेम नगरी में ….क्यों व्यर्थ मोह के दलदल में पड़े हो …..गन्दगी में तुम्हें मज़ा आता है ! क्यों पीछे पड़े हो इन मलमूत्र के भांडों के । चलो उस प्रेम नगरी में …चलो ।
मोह को प्रेम समझने की भूल कर रहे हो ….मत करो ऐसा ….प्रेम मणि है और मोह काँच है ….मणि की तुलना तुम काँच से कर रहे हो ! काँच को मणि समझने की भूल मत करो ।
क्या कहा ! प्रेम और मोह क्या है ?
प्रेम देना है …..और मोह हाथ फैलाना है । प्रेम तुमको राजा बनाता है और संसार का ये मोह तुम्हें भिखारी बनाकर दुःख के कीचड़ में धकेल देता है ।
मोह इसे कहते हैं –
“एक सिसकता है , एक मरता है ।
हर तरफ़ ज़ुल्म हो रहा है यहाँ ।।”
और प्रेम ये है –
“मेरी प्रीति होय नन्दनन्दन सौं आठों याम ।
मोसों जनि प्रीति होय नन्द के किशोर की ।।”
भले ही तुम उसे “इश्क़” का नाम दे दो …जहां मरना है , जहां सब ख़ाक है …अजी ! यही मोह है …इसे मोह कहो । प्रेम के नगर में कब्र नही होती ….प्रेम के नगर में कोई दुखी नही होता ….वो दुःख , वो आँसु , अहोभाव के होते हैं …कोई विषाद के नही । याद रहे प्रेम कभी मरता नही है …मरते तो मोह वाले हैं ….प्रेम में जीवन है ….प्रेम ही जीवन है …प्रेम नही तो जीवन भी नही …मोह में पड़ा हुआ जीव मुर्दा है ।
इसलिए आज के बाद हमें मोह नही करना है …प्रेम करना है ….यानि देना है …बस देना है …अपनी करुणा , स्नेह , प्रीति सब कुछ देना है ….उनकी ओर आसा भरी निगाह से कभी मत देखना ….देखना भी तो …देने के लिए ….दिल खोलकर दानी बनो …..अपने प्रीतम को भी दो ….कुछ नही तो अपनी दुआ ही दो ….हमारे कई रसिक सन्त ऐसे हैं जो ठाकुर जी को आशीर्वाद देते हैं ….ये अद्भुत है ….ये प्रेम का मार्ग ही विचित्र है , फिर प्रेम नगरी की बात कैसी होगी ?
हे रसिकों ! आज हम उसी “प्रेम नगर” की बात करने बैठे हैं ….वो प्रेम नगर कैसा है ? उस प्रेम नगर का राजा ? रानी ? वहाँ के वासी ? वहाँ का संविधान ? इन सबकी बातें होंगी ।
मैं प्रणाम करता हूँ …..उन परम विद्वान रसिक को जिन्होंने संस्कृत में एक अद्भुत काव्य हम लोगों को प्रदान किया ….उनका नाम मैं यहाँ स्मरण कर रहा हूँ …. .श्रीरसिकोत्तंस जी ।
बड़ा ही सरस और सुन्दर काव्य दिया इन्होंने ….”प्रेम पत्तनम्” यानि प्रेम नगर ।
इस ग्रन्थ के आश्रय से ही मैं ये “प्रेम नगर” लिख रहा हूँ …”प्रेम पत्तनम्” के लेखक मंगलाचरण करते हैं ….चार संस्कृत के श्लोक हैं …उन चार श्लोकों में लेखक ने श्रीचैतन्य देव और भगवान श्रीकृष्ण को स्मरण किया है । अब श्रीचैतन्य देव ही परम प्रणम्य क्यों ? इसलिये क्यों कि श्रीचैतन्य देव प्रेम के अवतार हैं ….अब “प्रेम नगर” लिखने वाले किसको प्रणाम करें तो ? क्या श्रीचैतन्य देव से बड़ा कोई प्रेमी हुआ ? शायद नही ।
हे ललिता ! मैं भी श्रीराधा को बहुत याद करता हूँ …..
कृष्ण ने बिलखते हुए ललिता को समझाना चाहा ।
मुझे विश्वास नही है ……ललिता भी बोली ।
कैसे विश्वास होगा ? कृष्ण पूछ रहे हैं ।
श्रीराधा का श्रीअंग , तुम्हें याद करते करते श्याम वर्ण हो गया है ….क्या तुम्हारा गौर वर्ण हुआ ?
श्याम सुन्दर कुछ नही बोल सके ….किन्तु मन में ये बात रह गयी …..कि मेरी राधा मुझ में इतना डूब गयीं कि श्याम हो गयीं ! अब श्याम सुन्दर भी श्रीराधा का चिन्तन करने लगे …..करते करते डूब गए उस चिन्तन में ….और काल बीतता चला गया …..कलियुग आगया ….और श्रीकृष्ण अब गौर बन गये थे । यही गौरांग बने । श्रीचैतन्य महाप्रभु ।
इस “प्रेम नगर” के मंगलाचरण में उचित ही है कि प्रेम में निरन्तर डूबे रहने वाले गौरांग देव की ही प्रथम वन्दना होनी चाहिए …..और वही किया गया है । दूसरी बात – लेखक स्वयं चैतन्य मत के अनुयायी हैं …इसलिये भी उन्होंने प्रथम अपने आचार्य चरण की वन्दना करके ग्रन्थ को आरम्भ किया है । आइये – हम सब भी इस श्लोक के माध्यम से प्रेमावतार श्रीशचिमाता के नन्दन गौरांग देव को नमस्कार करते हैं ।
अनर्पितचरीं चिरात्करुणयावतीर्ण: कलौ ,
समर्पयितुमुन्नतोज्ज्वलरसां स्वभक्तिश्रियम् ।
हरि: पुरटसुन्दर:द्युतिकदम्बसंदीपित:,
सदा हृदयकन्दरे स्फुरतु नः शचि नन्दन : । ।
ये प्रथम मंगलाचरण है ।
मेरे हृदय में शचि नन्दन गौरांग स्फुरित हों ।
जो सुवर्ण के समान सुन्दर कान्ति समूह से प्रकाशित हैं ….जो उज्ज्वल शृंगार रस से परिपूर्ण हैं …बहुत समय से प्रेम का इस संसार में किसी के द्वारा बोधन नही हुआ था ….उस प्रेम रूपी “श्री” को रसिकों को समर्पित करने के लिए जिनका अवतार हुआ …ऐसे मेरे हृदय में शचि नन्दन स्फुरित हों ।
हृदय में किसी “प्रेमी” का विराजना आवश्यक है ….जब तक कोई प्रेमी हृदय रूपी गुहा में आकर नही विराजेंगे तब तक प्रेम का उदय सम्भव नही है । और दूसरी बात समझनी है कि – प्रेम का दान प्रेम की उच्चतम अवस्था में जो विराजमान है वही कर सकता है । और प्रेम की उच्चतम शिखर पर गौरांग देव ही विराजे हैं …इसलिये इनकी वन्दना आवश्यक थी …जो कि गयी हैं ।
शेष कल –


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