!! एक अद्भुत काव्य – “प्रेम पत्तनम्” !!
( प्रेम नगर 4 – “अब मति ने नगर छोड़ा”)
अद्भुत प्रेम काव्य है ये तो ….क्या सुन्दरता से प्रेम के मनोविज्ञान को समझाया है …और मात्र प्रेम के मनोविज्ञान को ही नही समझाया ….उसमें रस को विशेष स्थान दिया । रसानन्द को मुख्य रखा है …रस ही इस काव्य का मूल है । प्रेम के जितने काव्य लिखे गये उनमें से ये अनूठा है ।
“आकाश में प्रेम नगर स्थित है”….इसका एक अर्थ ये भी हुआ कि वहाँ तक पहुँचना सरल नही है ।
और दूसरा अर्थ ये भी की हृदय ही आकाश है …जहां प्रेम बसता है ।
राजा का नाम “मधुरमेचक” देकर “मधुर रसमय” इस नाम से श्रीकृष्ण को रखा गया । प्रेम नगरी के राजा श्रीकृष्ण ही हो सकते हैं ….कोई और नही । उनकी रानी दो बताईं गयीं …ये बड़ा विलक्षण है …मति और रति । ऐश्वर्य शक्ति ‘मति’हैं …माधुर्य शक्ति ‘रति’ हैं । मैंने दिल और दिमाग़ …ये नाम दिया है । मैंने क्या दिया ! स्थूल अर्थ यही है ….मति माने बुद्धि है और रति माने राग याने प्रेम है । और ये बात तो सब जानते ही हैं की रति का जब राज इस हृदय रूपी आकाश में हो जाता है …..तब मति की वहाँ चलती है क्या ? बुद्धि वहाँ टिक पाती है क्या ?
मैं “सिंहावलोकन न्याय” के आधार पर इस अद्भुत काव्य पर अपनी लेखनी चला रहा हूँ ….रसिक जन मेरी इस शैली को समझेंगे । सिंह पीछे देखकर चलता है मैं भी पीछे के प्रसंगों को पुनः पुनः देखते हुए आगे बढ़ता रहूँगा । जय हो प्रेम की ……जय हो प्रेम नगरी की ।
हरिशरण
कल हमने जाना कि ….प्रेम नगर की दो रानियों में कलह आरम्भ हो गया …मति और रति में । पर ध्यान देने की बात ये है …कि ये कलह खुल कर नही, परोक्ष में चल रहा था…..ये तो सच है कि …जब प्रेम बढ़ता है ….तब बुद्धि की नही सुनी जाती । अजी ! कहाँ सुनी जाती है ! चाहे लाख नर्क का डर दिखाओ ….प्रेम कहाँ सुनेगा ? चाहे लाख बदनामी का डर बताओ …प्रेम ने कब सुनी है ? प्रलोभन में रति फँसती नही है ? इस तरह दोनों में कलह भीतर ही भीतर चलने लगा था ……अब –
“पितृभवनमाधिशमनं विज्ञा विज्ञाय पत्तनं पत्यु: ।
रत्यावमानिता स्त्रीजितेन तेनापि तत्याज ।।”
अब इस मूल श्लोक का अर्थ भी समझ लो ………
अर्थ – समझदार रानी मति ने रानी रति के द्वारा अपमानित होने पर ….अपनी शान्ति के लिये अपने पति का घर छोड़ दिया ….और वो ‘मति’ अपने पिता के घर चली गयी …इस पर भी राजा ने उसकी उपेक्षा ही की ।
राजा गये थे परदेस .....कार्य था इसलिये जाना पड़ा ।
बहुत दिन हो गये ….आज मन्त्री से राजा ने कहा …..अब तो लौटना होगा अपने देश ! किन्तु मन्त्री ! एक बात बताओ …मेरी दो रानियाँ हैं उनके लिए मैं क्या उपहार ले जाऊँ ? मन्त्री ने कुछ सोचकर कहा …हे राजन ! अभी हम पाँच दिन और हैं , क्यों न उन्हीं से सन्देशवाहक को भेजकर पूछ लें ….वो पत्र में लिख देंगीं और जो लिखेंगी वही उनके लिए यहाँ से ले जाया जाये ।
राजा को मन्त्री की ये बात अच्छी लगी ….उन्होंने आदेश दिया आज ही सन्देशवाहक को भेजो ।भेजा गया …दूसरे ही दिन सन्देशवाहक लौट भी आया ।
पत्र में मति ने लिखा था …..”मुझे नौ लखा का हार चाहिये”…ये मति का मतिपना था कि सुवर्ण आदि इकट्ठा करने से भविष्य में लाभ होता है । राजा कल ना रहें तो सम्पत्ति ही काम आएगी ।
क्या सोच होगी इस हार को मंगाने में ? राजा ने पत्र पढ़ा तो मन्त्री से भी पूछा ।
मन्त्री का उत्तर था …महाराज ! कुछ नही …आगे आप रहें न रहें …संपती रहेगी तो जीवन अच्छे से गुजर जाएगा …यही सोच है महाराज ! क्यों की रानी मति के पास हारों की कोई कमी तो है नही…..राजा ने कुछ सोचकर कहा …..ठीक है …नौ लखा का हार मँगवाया जाये ।
छोटी रानी का पत्र ? मन्त्री ने राजा को दिया ……राजा ने खोलकर उसे पढ़ा ….किन्तु ।
मन्त्री ! ये क्या ? हाँ राजन ! ये मात्र लाल स्याही से “सा”लिखा गया है ।
राजा सोचने लगे ….इसका क्या अर्थ होगा ? क्या माँगा है मुझ से इस छोटी रानी रति ने !
मन्त्री सोचने लगे …राजा भी सोचने लगे …समय बीतता जा रहा है । अर्धरात्रि हो गयी …मन्त्री शब्द को दोहरा रहा है …लाल स्याही से “सा” । लाल सा ……लाल सा …..मन्त्री उछल गया …महाराज ! ये तो “लालसा” है …..राजा भी मुस्कुराये …हाँ मन्त्री ! …..महाराज ! आपकी छोटी रानी को कुछ नही चाहिये …आपको देखने की लालसा है बस । राजा के नेत्रों से अविरल आनन्द के अश्रु बहने लगे …..मन्त्री ! अभी चलो अपने देश । अभी ? हाँ , मुझे अपनी छोटी रानी की इच्छा को पूर्ण करना है । राजा की आज्ञा ! रथ तैयार हुआ ! राजा और मन्त्री उसी समय निकल गये ….बड़ी रानी मति के भवन में नौ लखा हार भिजवा दिया …किन्तु स्वयं नही गये …स्वयं गये अपनी छोटी रानी के यहाँ । छोटी रानी प्रतीक्षारत थी ….महाराज को देखते ही वो अतिशय आनन्द के कारण नाचने लगी ….राजा ने उसे अपने हृदय से लगा लिया था ।
बोलो ! मैं तुम्हें क्या नाम दूँ ? क्या कहकर पुकारूँ ? क्या तुम मेरे इस पागलपन के सम्बोधन से प्रसन्न होगे ? बोलो ! मैं तुम्हारी हूँ ….नही , मुझे कुछ नही चाहिये । कुछ नही । बस तुम , हे प्रियतम ! तुम्हारे इस हृदय में मैं रहना चाहती हूँ …मेरे लिए यही सब कुछ है ।
सुनो ! मेरे इस पागलपन के प्रलाप को तुम पसन्द तो कर रहे हो ना ! ये कहते हुए छोटी रानी रति ने राजा के गले में अपने बाहों का हार डाल दिया था ।
तुम पथ हो , मैं हूँ रेणु ।
तुम हो राधा के मनमोहन , मैं उन अधरों की वेणु ।।
तुम पथिक दूर के श्रान्त , और मैं वाट जोहती आशा ।
तुम भव सागर दुस्तार , पार जाने की मैं अभिलाषा ।।
तुम शिव हो , मैं हूँ शक्ति ।
तुम रघुकुल के गौरव राम चन्द्र , मैं सीता अचला भक्ति ।।
ओह ! ये रति है ….अपने प्रियतम के बाहु पाश में बंधी …खिलखिलाती …प्रेमोन्मत्त गीत गाती ….मधुर रस के अगाध सागर में डूबती ऊबरती ….रति । नित्य विहार का इसका मंगल गीत पूरे ब्रह्माण्ड को रसमय बनाने को आतुर । अद्भुत है इसकी छटा , अद्भुत है इसका समर्पण । तभी तो रीझा है जगतपति “मधुरमेचक” ।
सब मिथ्या है …सब झूठ …सत्य है तो केवल ये नित्य विहार ….जिसकी झंकार से ब्रह्माण्ड का अणु अणु गूँजित हो उठा है ।
कुछ चाहिए प्रियतम से ? तो प्रियतम नही मिलेगा ..जो चाहिए वही वस्तु मिलेगी …किन्तु वो वस्तु तो नाशवान है …प्रियतम का ये मिलन अविनश्वर है । ये चाहो तो धन्य हो जाओगे …नही तो मिथ्या को सत्य मानकर बुद्धि का दम भरते रहो । कुछ नही मिलेगा जी ।
ओह !
तोकों पीव मिलेंगे , घूँघट का पट खोल री ।
जोग-जुगुति सों रंगमहल में , पिय आयो अनमोल री ।।
रानी मति के महल में राजा ने जाना कम कर दिया …..इस बात को मति समझ रही थी । फिर रानी रति का व्यवहार ! मति समझदार तो है ..समझदार है तभी तो ‘मति’ है ….किन्तु इस प्रेम नगर में समझदारों की चलती कहाँ है ? आज उसने देखा कि रानी रति उसको चिढ़ाने के लिए …नाना युक्ति कर रही है । ये सब देखकर मति ने नगर छोड़ने का निश्चय किया ….किन्तु कहाँ जाये ? पिता के यहाँ । इससे मति का दुःख दूर होगा ? नही , दूर तो नही होगा …किन्तु रति का मुख देखना नही पड़ेगा , मति ने ऐसा विचार कर नगर को छोड़ अपने पिता के यहाँ चली गयी ।
हाँ , जाते जाते उसने महाराज से कहा …मैं जा रही हूँ अपने पिता के यहाँ ….पर राजा ने भी उसे कोई उत्तर नही दिया । तब उसे लगा कि जो उसका निश्चय था वो उचित ही था । अब रति मुस्कुरा रही थी ….मति को जाते हुए देखकर ।
आगे अब कल –


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