!! एक अद्भुत काव्य – “प्रेम पत्तनम्” !!
( प्रेम नगर – 5 – “ मति की दुरावस्था” )
प्रेक्षावतोखिलजनानिव शिक्षयन्ती लोकोत्तरं रतिपतेरुदयं विलोक्य ।
तातालयं पतिसुतादि विहाय सद्यो याता मतिस्तदिदमेव मतेर्मतित्वम् ।।
तस्याधनस्य जनकस्त्यागमसंज्ञस्य शासनादनिशम् ।
अथ पितृशिक्षापटुभिर्वटुभिर्भिक्षां चिरादटति ।।
अर्थ – मति ने जब देखा कि मेरे पति का लोकोत्तर उदय हो रहा है ….रति उसके साथ है …..ये देखकर , समस्त बुद्धिमानों को शिक्षा देती हुयी …अपने पति को तुरन्त त्याग कर वो अपने पिता के घर चली गयी । यही मति का मतिपना अर्थात् बुद्धिमानी थी ।
मति के पिता का नाम “आगम” है , वह निर्धन है , उसके शासन में रहने वाले जो विद्यार्थी हैं उनके द्वारा लाई गयी भिक्षा पर मति अपना निर्वाह कर रही है ।
मति चली गयी अपने पिता के पास , उसने नगर त्याग दिया और अपने पति और पुत्रों को भी त्याग कर बुद्धिमानी का परिचय देते हुए पिता के पास रहने लगी ।
मति के पिता का नाम है “आगम” । आगम कहते हैं शास्त्र को । बुद्धि शास्त्र से उत्पन्न होती है ….इसलिये ये शास्त्र की ही बेटी है । आपको बुद्धि कहाँ से प्राप्त हुयी ? आपको बुद्धि कहाँ से मिलती है ? अध्ययन से । आप के जीवन में अगर शास्त्राभ्यास नही है …तो बुद्धि भी आपको नही मिलेगी । यहाँ लिखा है कि मति के पिता निर्धन हैं …उनके पास धन नही है । ठीक ही बात है ….शास्त्री जन जो होते हैं ….उनको शास्त्र पढ़ते हुए वैराग्य हो जाता है …क्यों की शास्त्र यही तो बताते हैं कि …मुक्ति ही जीवन का लक्ष्य है ….”सा विद्या या विमुक्तये” । फिर निरन्तर शास्त्राभ्यास वालों को ये बात भी समझ में आजाती है कि धन आदि सब मिथ्या है …मूल बात तो मुक्ति है …इन सबसे से मुक्ति , लोभ मोह से मुक्ति । इन्हीं सब बातों के कारण ही शास्त्र के अध्ययन वाले बाहरी धन से रिक्त रह जाते हैं । मति के पिता निर्धन हैं ।
फिर मति खाती क्या है ?
तो कहा गया …जो विद्यार्थी हैं इनके पिता जिनको पढ़ाते हैं , शास्त्राभ्यास कराते हैं …वो विद्यार्थी भिक्षा लेकर आते हैं उसी से मति अपना जीवन निर्वाह कर रही है ।
अब रति यानि प्रेम से रहित बुद्धि के लिए माँगना ही उचित है ।
रति , शास्त्र जंजाल में फँसती नही है ….उसे शास्त्र और वेद से कुछ लेना देना नही है ।
उसका धर्म ही उसका प्रीतम है , उसका शास्त्र उसका प्रेमी है ।
अरे गोपियों ! जाओ जाओ …..मेरे पास क्यों आयी हो ? क्या कारण है मेरे पास आने का ?
लो , ये मनमोहन भी विचित्र हैं ….वेणु नाद से निमन्त्रण दिया और जब हम आगयीं तो हमसे पूछ रहे हैं क्यों आयी हो ? गोपियाँ कुछ उत्तर देतीं कि श्याम सुन्दर फिर बोल उठे ….देखो ! शास्त्र कहते हैं अपने पति , माता पिता पुत्र आदि की सेवा करो …..गोपियाँ हंसने लगीं । अरे ! तुम हंसती क्यों हो ? शास्त्र यही तो कहते हैं ….गोपियाँ बोलीं ….अरे प्यारे ! हमें तो तू चाहिए …हमें शास्त्रों से क्या प्रयोजन ? श्याम सुन्दर चौंक गये ….अरे धर्म विरुद्ध है इस तरह तुम्हारा मेरे पास आना । गोपियों ने कहा …भाड़ में जाए धर्म ! जो धर्म तुमसे दूर कर दे …ऐसे धर्म से हमें क्या मतलब ? हमें तो तू चाहिए ….हमारे लिए तू ही शास्त्र है और तू ही धर्म , परम धर्म ।
हे प्यारे ! हम सब पंथन ते न्यारे ।
लीनों गहि अब प्रेम पंथ हम , और पंथ तजि प्यारे ।।
गोपियों ने जब ये कहा ….तो ठाकुर जी बोले …पर आगम ( शास्त्र ) मेरे नयन हैं ….गोपियाँ बोलीं – पर आगम में तुम्हारे इन सुन्दर नयनों का दर्शन नही होता ….और जिनको तुम्हारे इन कमल नयन का दर्शन हो गया …उसे आगम पढ़ने की आवश्यकता ही नही रहती ।
श्रीकृष्ण बोले – मेरे षट् दर्शन हैं ….उनको बिना जाने सब जानना व्यर्थ है ।
गोपियों ने कहा –
नाँय कराय सकें षट् दर्शन , दर्शन , मोहन तेरो ।
दिन दूनो नित कौन बढ़ावै , या हिय माँझ अंधेरो ।।
जाने दे यार ! दर्शन – शास्त्र के झमेले में हमें मत डाल….हमारे लिए तू ही सब कुछ है ….अच्छा एक बात तो बता …..क्या ये षट् दर्शन तुम्हारे मोहनी छवि के दर्शन करा सकते हैं ? नही ना ! फिर रहने दो । हमें नही चाहिए ये सब । गोपियों ने तो साफ मना कर दिया ।
शास्त्रन पढ़ी पण्डित भये , कै मौलवी क़ुरान ।
जवै प्रेम जान्यौ नही , कहा कियो रसखान ।।
हे हरि ! हम तो प्रेम दिवानी हैं ….हमारे अलग ही शास्त्र हैं ….ये शास्त्र संसारी के लिए हैं ….हमारे लिए तो किसी का प्रेम रस से सिक्त हृदय ही शास्त्र है …हम उसी को पढ़ना पसंद करती हैं …बाकी इन सब से हमारा कोई मतलब नही है । गोपियाँ यही कहती हैं ।
एक विरहिणी बैठी है यमुना के किनारे …..महान शास्त्रज्ञ उद्धव उसके पास गये …और पूछा – क्यों रो रही हो ? वो अब हंसने लगी …उद्धव चकित थे …अब हंसती क्यों हो ?
उसने कहा …हे शास्त्री जी ! तुम ही बताओ हम रोती क्यों हैं और हंस क्यों रही हैं ?
उद्धव ने देखा उस गोपी को जो प्रेम विरह में आकंठ डूबी हुयी थी । उद्धव ने कहा …हमारे शास्त्र कहते हैं …..उस गोपी ने उद्धव को बीच में ही रोक दिया और बोली – शास्त्र पढ़ लेते हो ? उद्धव बोले …ये क्या प्रश्न है ? मैंने देव गुरु बृहस्पति से शास्त्र का अध्ययन किया है ।
गोपी बोली ….प्रेम अक्षर पढ़ सकते हो ?
प्रेम के अक्षर क्या होते हैं ? उद्धव चकित थे ।
नही पढ़ सकते ? अरे शास्त्री ! प्रेम के अक्षर आँसुओं से लिखे जाते हैं । भले ही तुम लाख शास्त्र पढ़ लो ….किन्तु प्रेम के अक्षर नही समझ सके तो सब व्यर्थ है ।
“दादू पाती पीव की , बिरला बाँचे कोइ ।
वेद पुराण पुस्तक पढ़ें , प्रेम बिना क्या होइ ।।”
अजी ! उस ओर तो देखो …वो मुसल्ली ताज़ बेग़म क्या कह रही है !
गलती कर दई …आगयी श्रीवृन्दावन में ….ये तो दीवानों का नगर है …प्रेमी जन ही यहाँ के वासी हैं …ये अरब देश की ताज़ बेग़म ….जा रही थी आगरा ….दिल्ली से आगरा …तो बीच में श्रीवृन्दावन पड़ा …..क्या है यहाँ ? पूछ लिया उसने । लोगों ने कहा ….हिन्दुओं का स्थान है ….यहाँ हिन्दुओं का ख़ुदा रहता है । उस प्रेम की भूमि ने इसे अपनी और खींचा …तो चली गयी ….बाँके बिहारी को निहारने लगी …..निहारते निहारते अपने आपको भी भूल गयी …प्रेम कहाँ याद रखने देता है …मत-मज़हब को ! क़ुरान- शास्त्र को ! भूल गयी कि मैं एक मुसलमान हूँ ….इश्क़ हो गया …..इश्क़ होने में समय थोड़े ही लगता है ….ये तो घटना है …क्षण में घट जाये ….और कहो तो जीवन भर पति पत्नी बनकर रहें पर इश्क़ दूर दूर तक नही । हो गया ….बाँके बिहारी है ही ऐसा ….हो ही गया । नेत्रों से अविरल अश्रु बहने लगे …हे दिल ज़ानी ! मुझे अपने संग ले ले । हाय ! पुजारी दौड़े …शास्त्र के ज्ञाता सब दौड़े …ये तो मुसलमान है …भगाओ इसे ….भगा दिया । किन्तु इश्क़ हो गया था ….तो बाहर ही जाकर बैठी रही …रोने लगी …हिन्दुओं के ही हो क्या ? मेरे नही हो ? बोलो तो ! हिन्दू हो जाऊँ ? तुम्हारे लिए कुछ भी हो सकती हूँ । वो पुकारने लगी …..
सुनो दिल ज़ानी मेरे दिल की कहानी ,
तेरे हाथ हूँ बिकानी बदनामी भी सहूँगी मैं ।
देव पूजा ठानी नमाज़ हूँ भुलानी ,
तजे कलमा-क़ुरान तेरे गुनन गहुँगीं मैं ।
साँवला सलोना सिरताज सिर कूलेदार ,
तेरे नेह दाग में निदाग हो रहूँगी मैं ।
हे नन्द के कुमार क़ुर्बान तेरी सूरत पै ,
हूँ तो मुग़लानी हिन्दूआनी हो रहूँगी मैं ।।
देखो !
इस मुग़लानी के लिए बाँके बिहारी , मन्दिर से बाहर आगये और अपने हृदय से लगा लिया ।
ये कौन सा शास्त्र-वेद पढ़ी थी ? बताओ तो !
मति के लिए मुक्ति अपेक्षित है ….किन्तु रति के लिए मात्र प्रियतम की बाँहें ।
प्रियतम अपनी बाहों में कस ले ….यही रति के लिए परम मुक्ति है ।
अब मति अपने पिता आगम ( शास्त्र ) के यहाँ रह रही है …और रति अपने प्रीतम की बाहों में ।
शेष अब कल –


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