Explore

Search

July 20, 2025 3:43 pm

लेटेस्ट न्यूज़
Advertisements

महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (001) : Niru Ashra

महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (001) : Niru Ashra

महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (001)


(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )

भूमिका

मुग्धं स्निग्धं मधुरमुरलीमाधुरीधीरनादैः ।
कारं कारं करणविवशन् गोकुलं व्याकुलत्वम् ।।

श्रीशुक उवाच

भगवानपि ता रात्रीः शरदोत्फुल्लमल्लिकाः ।
वीक्ष्य रन्तुं मनश्चके योगमायामुपाश्रितः ।।[1]

अब श्रीमद्भागवत दशम स्कन्ध में रास-पञ्चाध्यायी का प्रसंग आपको सुनाते हैं। ऐसा मानते हैं कि ये भागवत के बारह स्कन्ध भगवान् के बारह अंग हैं। उनमें- से दशम-स्कन्ध भगवान् का हृदय है और हृदय में जैसे संचारी प्राण होते हैं वैसे ही पाँच प्राण के समान रास-पञ्चाध्यायी के ये पाँच अध्याय हैं। जिस समय हम रास-पञ्चाध्यायी के साथ अपने मन, अपने कान, अपने शरीर का संबंध जोड़ते हैं- माने काने से रास-पञ्चाध्यायी सुनते हैं, शरीर को रास-पञ्चाध्यायी मं बैठाते हैं, मनसे रास-पञ्चाध्यायी का चिन्तन करते हैं- उस समय हमारा संबंध भगवान् के प्राणों के साथ हो जाता है; उनके श्वास के साथ हमारा संबंध हो जाता है कि जिसके मन में यह लालसा होवे कि हमारा संबंध भगवान् के साथ बने, उसके लिए उसमें दो पहलू हैं- एक तो संसार में अरुचि होवे और दूसरे भगवान् में रुचि होवे जिसकी रुचि धन में, भोग में, कुटुम्ब-संबंध में ज्यादा है और दुनिया का काम करने में ज्यादा है, उसकी भगवान् में ज्यादा रुचि नहीं होती। भक्तों का तो यहाँ तक कहना है कि जिसकी रुचि मोक्ष में होती है, उसकी रुचि भी भगवत्-लीला में, कथा में ज्यादा नहीं होती है। यह जो भगवत्-लीला-कथा है, यह दो तरह से मनुष्य का कल्याण करती है; एक तो जो संसार में फँसकर दुःख भोग रहे हैं उनको उधर से छुड़ाती है; और दूसरे भगवद् रस का दान करती है।

कल या परसों वृन्दावन से एक चिट्ठी आयी थी; वहाँ के एक विद्वान की चिट्ठी थी। उसमें एक शब्द लिखा था- ‘श्रीभगवत् भागवत-रतिपरायण’ माने भगवद्रतिपरायण, भागवत्- रतिपरायण; अर्थात् जिसका भगवान् में और भगवान् के भक्तों में प्रेम है और उसी प्रेम में लवलीन है, परायण भी है। देखो, संसार में जितने भी मनुष्य होते हैं, मनुष्य ही नहीं पशु-पक्षी भी, देवता-दानव भी, प्राणिमात्र, सबको रस चाहिए।

सबको स्वाद चाहिए। मजा न मिले तो मनुष्य की प्रवृत्ति नहीं होती। थोड़े दिनों तक खींच-खाँचकर जोर जबरदस्ती से कहीं लगे भी तो रस के बिना निष्ठा नहीं होती। ‘यदा श्रद्दधाति निष्तिष्ठाति।’ छान्दोग्योपनिषद् में यह प्रसंग आया है कि जब मनुष्य के हृदय में श्रद्धा होती है, तब उसमें निष्ठा होती है।

मनुष्य के हृदय में जब लालसा होती है तब प्रयत्न होता है। जिस वस्तु की प्राप्ति की लालसा होती है उसके लिए प्रयत्न होता है, जिसमें श्रद्धा होती है उसमें निष्ठा होत है और जहाँ रस मिलता है उसको पाने की लालसा होती है। हमारे महात्मा लोगों को यह मालूम था कि संसार के जीव संसार में क्यों लगे हैं? किसी को धन में रस आता है, किसी को कुटुम्ब में रस आता है, किसी को भोग में रस आता है, किसी को काला धन्धा करने में रस आता है; भगवान में तो ये लोग लगते ही नहीं। इसका मतलब यह है कि भगवद्-रस का आस्वादन इनको नहीं होता-

राम कहने का मजा जिसकी जबाँ पर आ गया ।
मुक्त जीवन हो गया, चारों पदारथ पा गया ।।

भगवान का भजन करने में क्या मजा है, भगवान का स्मरण करने में क्या रस मजा है, भगवद्भक्ति में, भगवत्-प्रेम में क्या मजा है, यह बात मालूम होनी चाहिए।

श्रीमद्भागवत पर एक टीका है। वह टीका मध्वाचार्य से पहले की है। माने बारहवीं–तेरहवीं शताब्दी में मध्वाचार्य हुए और उन्होंने भागवत पर ‘भागवत्-तात्पर्य-निर्णयः’ नामक ग्रंथ लिखा है; उसमें उस भाष्य की चर्चा की है। उसका नाम है ‘वासना भाष्य’। बड़े प्रसिद्ध आचार्य की रचना है। ‘वासना भाष्य’ का अर्थ है कि जैसे तुम्हारे मन में धन की वासना है, स्त्री-पुरुष की वासना है, भोग की वासना है, इसी तरह चित्त में भगवान की वासना उत्पन्न करो भगवान की यह वासना अपने चित्त में कैसे आएगी? कुछ वासना तो अपने चित्त में उदय होती है, देख-देखकर और कुछ उदय होती है सुन-सुनकर। यह श्रवण के द्वारा भगवद् वासना को अपने हृदय में भरना है। भगवान कान के रास्ते हृदय में जाना पसन्द करते हैं।

श्रीमद्भागवत में एक प्रसंग आया है-

प्रविष्ट कर्णरन्ध्रेण स्वानां भावसरोरुहम् ।
धुनोति शमलं कृष्ण सलिलस्य यथा शरत् ।।

‘कर्णरन्धः’ माने कान का छेद। जैसे- चोर किसी की दीवार में रन्ध्र बना दें, सेंध खोद दें, उसमें जाने-आने का रास्ता बना दें, वैसे कान का एक रास्ता है। तो भगवान मनुष्य के हृदय में इसी रास्ते से प्रवेश करते हैं। जैसे कोई मित्र किसी से मिलने जाये और दरवाजा भीतर से बन्द होवे, तो मित्र ने पहले तो पुकारा- भाई! दरवाजा खोल दो, फिर किवाड़ी खट-खटायी, फिर घण्टी बजायी- भीतर से कोई जवाब नहीं आता है और दरवाजा भीतर से बन्द है। उसके मन में आया कि हमारा मित्र से ऐसा नहीं था कि हमारी आवाज सुनकर दरवाजा न खोले, हो – न- हो वह घरके भीतर किसी विपत्ति में पड़ा है, कैसे भी हो उसके पास पहुँचना चाहिए। इधर-उधर देखा कि एक खिड़की खुली हुई थी। चढ़ गया, देखा तो सका मित्र बेहोश पड़ा था। अब उसी खिड़की से उसने अंदर जाकर सफाई की, उसके ऊपर पानी डाला, दवा-दारू की, उसको होश में लाया और जब वह होश में आ गया तो उसने भी देखा कि हमारा मित्र घर आया है, बड़े प्रेम से दोनों मिल गये, बातचीत करने लगे।

इसका दार्ष्टान्तिक यह है कि यह जो जीव है वह अपने हृदय के घर में मूर्च्छित हो गया है, बंद हो गया है। भगवान की मूर्तियाँ सामने से निकलती हैं, भगवान का नाम भी कभी जिह्वा से निकलता है, लेकिन यह भीतर से जागता नहीं है; तब भगवान कान के रास्ते इसके हृदय में प्रवेश करते हैं। और शब्द में ऐसी अचिन्त्य शक्ति है कि सोते हुए को जगाते हैं, जगाकर होश में लाते हैं, उसको पानी पिलाते हैं, उसको खिलाते हैं, उससे बातें करते हैं, हँसाते हैं, उससे बोलते हैं। देखो- तुम्हारा जीव कहीं सो तो नहीं गया? वह पैसे में सो गया, ईश्वर को भूल गया। वह भोग में सो गया, ईश्वर को भूल गया। वह कुटुम्ब में सो गया, ईश्वर को भूल गया। अपने मालिक को भूलकर मूर्च्छित पड़ा है।

उस मूर्च्छित दशा में जगाकर ईश्वर की ओर ले चलने वाली यदि कोई चीज है तो इसी का नाम श्रवण है, भगवत्– कथा

श्रवण- प्रविष्ट कर्णरन्ध्रेण स्वानां भावसरोरुहम् ।
धुनोति शमलं कृष्ण सलिलस्य यथा शरत् ।।

भगवान कान के छिद्र से प्रवेश करके हृदय में, भाव (कमल) सरोरुह पर आते हैं और वहाँ आकर पहले जो दिल की गंदगी है उसको दूर करते हैं-

धुनोति शमलं कृष्णः ।

गंदगी दूर करने पर याद आयी अपने साथ के एक तीर्थयात्री की। ऐसा बढ़िया तीर्थयात्री हमको दूसरा नहीं मिला। तीर्थ – यात्रा में जब हमलोग कहीं जाते थे तो नौकरों को तो वे भेज देते थे बाजार से सौदा खरीदने के लिए कि तुम सब्जी ले आओ, तुम रसोई बनाने का बन्दोबस्त करो, तुम कोयला ले आओ और स्वयं जो मालिक थे वे धर्मशाला में झाड़ू लगाकर उसका बरामदा उसका कमरा साफ करके, धोकर बिलकुल स्वच्छ कर देते थे। उनके साथ हम एक दिन, दो दिन धर्मशाला में रहते और जब चलने लगते तो नौकर तो सामान् चढ़ाते ताँगे पर, मोटर पर जहाँ जैसा प्रसंग होता, और वह अपने हाथ से बरामदे को धोकर, झाड़ू लगाकर, स्वच्छ करेक तब वहाँ से निकलते है। पूछते भाई ! अब तो यहाँ से निकल रह हैं, हाँ फिर से सफाई की क्या जरूरत है? तो कहते हैं- ‘हमारे बाद में जो इसमें रहने आएगा, इसको भी तो सफाई चाहिए। वह गंदा देखेगा तो कहेगा कि पहले का यात्री बड़ा गंदा था। कैसी गंदगी छोड़कर गया है।’

तो नारायण ! जिनकी स्वच्छता में प्रीति होती है वे जहाँ जाते हैं वस्तु को और स्वच्छ बनाते हैं। भगवान का अभ्यास भी क्षीरसागर में रहने का है, कमल पर रहने का है, उनके सामने बन – ठनकर साज-श्रृंगार करके लक्ष्मीजी रहती हैं, वे उनके पांव दबाती हैं। भगवान को मृदुलता में, कोमलता में रहने का अभ्यास है। जब वे जीव के हृदय में आते हैं तो देखते हैं कि यहाँ तो गंदगी है। गंदगी क्या है? ये जो तरह-तरह की इच्छाएं हैं, यही गंदगी है, जो तरह-तरह की वासनाएँ हैं हृदय में, यही गंदगी है।

क्रमशः …….

🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹

admin
Author: admin

Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877

Leave a Comment

Advertisement
Advertisements
लाइव क्रिकेट स्कोर
कोरोना अपडेट
पंचांग
Advertisements