!! एक अद्भुत काव्य – “प्रेम पत्तनम्” !!
( प्रेम नगर – 6 “प्रेम में शान्ति कहाँ” )
सुमति सुताति विनीता , शान्तस्वान्ताभिधेन परिणीता ।
मातुर्वियोगवीता , शान्ति: पत्या निजाश्रमं नीता ।।
हे रसिकों ! अद्भुत रसपूर्ण काव्य है ये ..आइये – अर्थ का अनुसंधान करते हुए ..रसानन्द में डूबें ।
अर्थ – मति की पुत्री जो अत्यन्त विनम्र थी , उसका नाम था “शान्ति” , पति के यहाँ ही मति उसको छोड़कर गयी थी । माता मति की दशा देखकर उस शान्ति पुत्री को बहुत दुःख हुआ और उसने शान्त- स्वांत” नाम वाले व्यक्ति से विवाह कर लिया…..और उसका पति अपने भवन में उसे ले गया । यानि प्रेम नगर से अब शान्ति भी चली गयी ।
ये प्रेम नगर है ….यहाँ शान्ति कहाँ ? अगर होगी भी थोड़ी बहुत , तो जब प्रेम का ज्वार उठेगा तब शान्ति चली जाएगी । प्रेम नगर में अपने कदम रखें हैं तुमने , तो याद रहे शान्ति मिले ये सोचना भी मत ….कहाँ शान्ति ! वहाँ तो आह है , दर्द है , आँसु हैं , तड़फ है , नींद नही है ।
“नींद उड़ी है मेरी , जागरण भी खो गया”
नींद उड़ जाएगी , अगर नींद भरपूर ले रहे हो …तो तुम को प्रेम अभी हुआ नही है । मन शान्त है …तो अभी प्रेम से दूर हो …हाँ बातें बना लो । प्रेम पर लम्बे चौड़े भाषण दे दो …किन्तु जीना प्रेम को ….ये तो बहुत ऊँची चीज़ है । नींद उड़ जाएगी , अच्छा, तो जागरण रहेगा ? ना , जागरण भी नही रहेगा …प्रियतम रहेगा ..उसकी याद दिल को छेदती रहेगी । आह ! दर्द से कराहते रहोगे ।
क्या हुआ ? क्यों कराह रहे हो ? कोई दूसरा पूछेगा …किन्तु तुम उसे बता भी नही पाओगे कि हो क्या रहा है ?
क्या जानूँ कि क्या है ? अंदर ही अंदर कुछ सुलगती आग है जो दिल को जलाये जा रही है ।
किसको कहें ? कौन सुनेगा ? वो समझेगा भी नही कि इसे हुआ क्या है ?
वैद्य के पास जाओगे ? पर उसे कहोगे क्या ? बस दिल में हाथ रखोगे और रो दोगे ।
कोई लाभ नही है जी ! झाड़ फूँक करवा लो , कुछ तन्त्र मन्त्र वालों को देख लो …पर होगा कुछ नही ….उफ़ ! फिर क्या करें ? कुछ नही हो सकता , बस रोते रहो , और तड़फते रहो ।
प्रेम पीर अति ही बिकल , कल न परत दिन रैंन ।
सुन्दर श्याम सरूप बिन , “दया” लहति नही चैन ।।
तो कोई तो उपाय होगा ?
हाँ एक उपाय है ….किन्तु वो उपाय तुम्हारे प्रीतम को करना है ….तुम तो प्रीतम से कहो ।
“हा हा दीन जानि , विनती ये लीजै मानि ।
दीजै आनि औषधि वियोग रोग-राज की ।।
अब यही उपाय है ….अपने श्याम सुन्दर से कहो , उसको कहो …इस दीन दुखी पर दया कर …कुछ औषधि दे ….ये रोग जीने नही दे रहा श्याम ! कहो उससे ।
किन्तु ये तो होना ही है …क्या तुम्हें पता नही था ? प्रेम जब आता है …तो बुद्धि चली जाती है ..बुद्धि का क्या काम यहाँ ? और जब – बुद्धि-विवेक चली जाती है …तो वहाँ से शान्ति भी निकल जाएगी । ओए ! क्या सोचा था …प्रेम नगर में शान्ति होगी ? ना जी ! ना !
बेचारी वो मीरा बाई ! देखो उसे …शान्ति मिली ? आगयी थी प्रेम नगर में …बड़ी बड़ी बातें कर रही थी …किन्तु जब जीया प्रेम को …जब रहने लगी इस प्रेम नगर में….तो बोल उठी …चीखकर बोलने लगी ।
जो मैं ऐसा जानती , प्रीत किये दुःख होय ।
नगर ढिंढोरा पीटती , प्रेम न करियो कोय ।।
शान्ति से रह रही थी अपने महल में …राजमहल में उसका वास था …सुख सुविधा उसके कदमों में थे ….अब क्या ज़रूरत पड़ी कि प्रेम कर बैठी ….नन्दनन्दन श्याम सुन्दर से उसे प्रेम हो गया । ये बाबा जी लोग ही बिगाड़ते हैं । मुझे याद है …बक्सर वाले मामा जी कहते थे …”हम आग लगाना जानते हैं …बुझाना तो वही जानता है”।
आग लगा दी इन बाबाओं ने …इनका काम क्या है , यही तो ..जिसका दिल सुन्दर देखा उसी में प्रेम की चिंगारी छोड़ दी । देखो इस बेचारी मेड़ता की मीरा को ।
“संतन ढिंग बैठ बैठ लोक लाज खोई”
प्रेम नगर में जाना है …तो ये सब तो होगा ही होगा । इसलिए सावधान रहो ।
क्या होगा अब ? बता तो दो ?
कुछ नही होगा ….पड़े पड़े कराहते रहो , दिल में घाव बन गया है …और वो नासूर और हो गया ।
अब तो यही उपाय है कि …श्याम सुन्दर को बुलाओ ….वही करेगा ।
क्या करेगा ?
वो ? वो तुम्हें प्रेम की सेज में लिटायेगा ….फिर अपने सुन्दर रूप से तुम्हारे घाव को सेकेगा ….फिर अपने नयनों के लाल डोरे से घाव में टाँका लगायेगा …..
इसके बाद मैं ठीक हो जाऊँगा ?
तुम्हारे प्रश्नों पर हंसी आरही है ….ठीक तो तुम होगे ही नही ….और यार ! इतने ही कमजोर हो तो क्यों आए इस प्रेम नगर में ? अभी तो देखते जाओ आगे आगे ।
उफ़ !
प्रेम बाण जेहि लागिया , औषधि लगत न ताहि ।
सिसकि सिसकि मरि मरि जियै , उठै कराहि कराहि ।।
मति की बेटी “शान्ति” है । मति उसे पति के यहाँ छोड़कर स्वयं पिता के चली गयी थी …किन्तु शान्ति ने जब देखा कि यहाँ वो कैसे रहे ! उसकी सौतिया माता रति ने चारों ओर अपना साम्राज्य फैला दिया है …और उसकी माता मति को कष्ट मिल रहा है …तो शान्ति ने विवाह करके इस देश प्रेम नगर को छोड़ना ही उचित समझा । हे रसिकों ! शान्ति ने एक व्यक्ति से विवाह किया …जिसका नाम था “शान्त-स्वान्त” । ये भी प्रेम नगर को छोड़कर जा रहा था ..तो शान्ति ने इसी से विवाह कर लिया और उसके साथ चली गयी ।
“ये युवक शान्तरस का उपासक था ।”
अब प्रेम नगर में शान्त का उपासक कैसे रह सकता है ?
हे गोपियों ! अपने हृदय को शान्त रखो ।
वो उद्धव जो ज्ञानियों में श्रेष्ठ है ….वही समझा रहा है ।
आग लगी है हृदय में , कैसे शान्त हो हृदय । गोपियों ने दो टूक कह दिया ।
शान्त करो हृदय को ……उद्धव ने फिर समझाया ।
हंसी गोपियाँ ….तू पागल है क्या उद्धव ! कितनी सरलता से बोल रहा है कि हृदय को शान्त करो।
इतना सरल होता तो बात ही क्या थी ।
पर तुम को व्यथा क्या है ? उद्धव की इस बात पर गोपियाँ कुछ नही बोलीं …क्या बोलें !
गोपियों ! बताओ , मुझे भेजा है तुम्हारे प्रीतम ने …..मुझे कहा है …उनको समझाना ।
गोपियों को बड़ा क्रोध आया उद्धव की इस बात पर …..पर उनका क्रोध तुरन्त आँसुओं में बहने लगा ….बेचारी क्या करें ?
हिलकियों से रोते हुए बोलीं –
“ऊधो ! हम प्रीत किये पछतानी ।
हम जानी ऐसी निबहैगी , उन कछु औरहूँ ठानी ।।
नही नही , उन्होंने कुछ नही सोचा है ….उद्धव ने कहा ।
यही तो दुःख है उद्धव ! हमारे बारे में वो कुछ सोचते ही नही हैं । हमें उपदेश दिया जाता है …हमें समझाया जाता है …पर …..
“हम को लिख लिख जोग पठावत , करी कूबरी रानी”
उधर उस कूबडी को रानी बनाकर बैठा है वो , और हम को जोग सिखाया जा रहा है ।
गोपियाँ ये कहते हुए दहाड़ मारकर रोने लगीं …शान्ति , शान्त सब कुछ चला गया है हमारे हृदय से …उद्धव ! तेरे जोग के ज्ञान से अब कुछ नही होगा ….हमारे पास अब वियोग का सागर लहरा रहा है …हम सब उसी में डूबी पड़ी हैं । ओह !
उद्धव अब इसका उत्तर क्या दें ।
अब आगे कल –
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