महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (002)
(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )
यह गंदगी दूर कैसे हो? तो भगवान अपने प्रति वासना उत्पन्न करते हैं! आस्तिक होना- शाम- सुबह भगवान को हाथ जोड़ लेना, नाम ले लेना, यह दूसरी बात है और भगवान के संयोग से रस लेना तथा भगवान के वियोग में दुःखी होना, यह दूसरी बात है। यह कथा मैं ब्रह्म के लिए नहीं कह रहा हूँ। ब्रह्म-ज्ञानी के लिए यह कथा नहीं है, यह कथा जो मनुष्य हैं, जो सहृदय हैं, जो संसारकी वासनाओं से पीड़ित हैं, जो अपने हृदय को स्वच्छ और निर्मल बनाना चाहते हैं, एक भगवान को अपने हृदय में बसाकर बाकी सब कूड़ा-कचरा निकालकर फेंकना चाहते हैं उनके लिए यह श्रीमद्भागवत है। हृदय को शुद्ध करने वाला और हमारी आँख में भगवान को भरने वाला यह श्रीमद्भागवत है।
हमारे गाँव में कहावत है- ‘छिगुनी पकड़ के पहुँचा पकड़ लिया’। पहले तो उँगली छुई और बाद में हाथ ही पकड़ लिया! यह भगवान श्रीकृष्ण, यह ग्वाला, इसकी पकड़ बड़ी जबरदस्त होती है। एकबार पकड़ ले तो छोड़े नहीं! एक गोपी बोलती है-
एकस्य श्रुतमेव लुम्पति मतिं कृष्णेति नामाक्षरम् ।
प्रेमोन्मादपरम्परामुपनय त्यज्यास्य वंशीकल:।।
कोई सखी यमुनाजी जा रही थी। एक ग्वाला उधर से दौड़ता हुआ आया और बोला- ‘कृष्ण, कृष्ण, कन्हैया, कन्हैया’। बस बावरी हो गयी, घर भूल गया-
कृष्ण नाम जब ते श्रवन सुन्यौरी आली ।
भूलीरी भवन हौं तो बावरी भई री ।।
आगे बढ़ी तो एक ओर से आवाज आयी। अब तो बस प्रमोन्मादिनी हो गयी। इतना मधुर नाम, इतना मीठा नाम- ‘कृष्ण-कृष्ण-कृष्ण, कन्हैया! टेढ़ा है यह, अंकुशाकार है- ‘कृष्ण’ में जो ‘कृ’ है, उसमें अंकुश है। जैसे- किसी के कलेजे में कोई टेढ़ी चीज गड़ा दी जाए और फिर खींचो तो वह कलेजा ही खींचकर निकले; ऐसे ही यह कृष्ण नाम है।
जिसके कलेजे में गड़ जाता है, उसे वहीं पड़े रहने दो तब-तक तो ठीक है; परंतु यदि निकालने की कोशिश करोगे तो कलेजा ही खींचकर ले जाएगा। ‘कृ’ में अंकुश है; कृष्णा नाम- यह जबरदस्ती खींचकर अपने में जोड़ता है। कृष्ण – कृष्ण – कृष्ण !
मधुर मधुरमेतन्मंगलं मंगलानाम् ।
सकलनिगमवल्लीसत्फलं चित्स्वरूपम् ।।
मधुर से मधुर – ‘मधुरादपि मधुरं’, मीठे से मीठा, और ‘मंगलादपि मंगलम्’ मंगल से भी मंगल- यह है भगवान का नाम! यह नाम कान में पड़े तो भी ठीक था मगर यह तो आँख को भी खींच लेता है। आँख को खींचेगा तो नाक को भी खींच लेगा। नाक को खींचेगा तो जीभ को भी खींच लेगा! और जब आँख – कान – नाक – जीभ खिंच जायेंगी तो त्वचा को भी खींच लेगा और यह दिल-दिमाग को भी खींच लेगा। इसीलिए कृष्ण को कृष्ण कहते हैं क्योंकि यह ‘कर्षति आकर्षति’- यह लोगों के दिल-दिमाक को खींच लेता है। जहाँ ब्रह्म विचार भोला-भाला अपनी जगह पर रहता है, कोई उसके पास जाये तो मिले, न जाये तो मिले क्योंकि ब्रह्म तो अवधूत है- ‘ब्रह्म अवधूतवत्’! वहीं यह श्रीकृष्ण अवधूतवत् नहीं हैं। पंढरीनाथ की बात आपने सुनी होगी-
मा यात पान्थ्रा पथि भीमरथ्याः किशोरक कोऽपि तमालनील ।
विन्यस्तहस्तोऽपि नितम्बबिम्बे धूत समाकर्षति चित्तवित्तम् ।।
अरे! ओ बटोहियो! ‘मायात पान्थाः पथि भीमरथ्याः’- भीमानदी के तट पर मत जाना। क्यों? क्योंकि वहाँ एक नौजवान रहता है ‘किशोरकः।’ अच्छा, हुलिया बता दो पूरी उसकी? कहा- तमाल वृक्ष के समान काला है। काले रंग का है, किशोर है। देखो उसका जादू किसी को छूता नहीं, छेड़ता नहीं, बोलता नहीं। हाथ पर कर रखे है और इतना धूर्त है कि उसकी छठी में ही धूर्तता डाल दी हैं यशोदा मैया ने। एक जगह खड़े-खड़े ही लोगों के दिल का जो धन है चित्तवित्त, हृदय को जो पूँजी, उसको छीन लेता है।
मत जाना उधर, मत जाना ।
कृष्ण-कृष्ण-कृष्ण- पहले यह नाम सुना उस गोपी ने; फिर आगे बढ़ी तो वंशी ध्वनि सुनायी पड़ी। यह वंशीध्वनि- तो महाराज ! ‘ध्यानं बलात् परमहंसकुलस्यभिन्दन सनकादि जैसे परमहंसों का ध्यान तोड़ दे! बोले- जब बंशीध्वनि आयी तो हम समाधि लगा रहे थे। फिर तोड़ क्यों दी? समाधि का आनन्द लेते! बोले- हमने थोड़े ही तोड़ा, इस वंशीध्वनि ने आकर तोड़ा। अच्छा, तो फिर लगा लो! बोले- लगान की क्या जरूरत है? समाधि तो इसलिए लगायी जाती है कि रस आये, जब बना समाधि के, खुली आँख, खुले कान से वही मजा आ रहा है जो समाधि में आता है, बल्कि उससे भी ज्यादा मजा आ रहा है, तब आँख बन्द करने की जरूरत क्या? कान में ठेपी क्यों ठूँसे? मन को निर्वृत्तिक, निर्विषय क्यों बनाये? जब सविषय मन में, सवृत्तिक मन में, खुली आँखों में खुले- कान में खुले दिल में वही मजा आ रहा है, तो बंद करने की जरूरत क्या?’ फिर गोपी कान में पड़ा ‘कृष्ण’! जिसको हृदय दिया वही वह वंशीवाला, वह साँवरा! इस ध्वनि से-
ध्यानं बलात् परमहंसकुलस्य भिन्दन सुधामधुरिमाणाम् ।
जो बड़े धैर्यवान् थे उनका हृदय चंचल हो गया। उन्होंने कहा- कृष्ण का नहीं, अब ‘काम’ का राज्य होगा। दुनिया में सबके हृदय में ‘काम’ होगा, अर्थात् अब सबके हृदय में श्रीकृष्ण के प्रति वासना होगी। क्योंकि- वंशीध्वनिर्जयति कंसनिषूदस्य- कंस। निषूदन की वंशीध्वनि सुन लिया।
वंशीध्वनि का बड़ा वर्णन आता है। ऐसा-ऐसा वर्णन आता है कि शेषजी जब वंशीध्वनि सुनते हैं तो झूमने लगते हैं। ब्रह्माजी के हाथ से जीव और जीवों का शरीर गिर जाता है- सृष्टि बनाना भूल जाते हैं। देवता लोग स्वर्ग छोड़कर वृन्दावन चले आते हैं।
क्रमशः …….
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹
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