!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 92 !!
“रुढ़ भावः” – यानि सिर्फ “तू”
भाग 3
वो लटें , वो मधुर हास्य , वो सुन्दरता …..पागल हो गयी वो बहु ।
ललिता सखी उद्धव को ये प्रसंग सुना रही हैं ।
अब तो उस बहु की आँखें चढ़ी हुयी थीं……..पद डगमग हो रहे हैं ……..मटकी तो वहीं फूट ही चुकी थी …….
जैसे तैसे अपनें घर आई …………परिवार वालों नें उससे पूछा – क्या हुआ ? तेरी ये दशा कैसे हुयी ?
पर वो कुछ न बोल सके ……….कभी हँसे कभी रोये ….कभी काँपे ।
समय बीतता गया ….वैद्य बुलाये गए ………बड़े बड़े वैद्य ….मथुरा तक के वैद्य आये ……पर नही …….कुछ नही हुआ ।
उद्धव ! हम तक बात पहुँच ही गयी थी ……पर हमनें सोचा क्या जाना उसके पास ! हमारा अपमान किया था उसनें ………..
पर दिनोंदिन बीतते गए …………..एक दिन मुझे ही दया आगयी ……सोचा चलो …..देख आते हैं उस बहु को …………..रोग क्या है ये बात हमसे छुपी रही नही थी ………सब कह रहे थे – भूत लगा है …..
मैने ही मन ही मन में कहा …..नही ….”नन्द का पूत” लगा है ।
ललिता सखी ये कहकर काफी देर तक हँसती ही रहीं ।
उद्धव ! मैं गयी …..मेरे साथ कुछ गोपियाँ भी थीं ………..
बड़े वैद्य आये थे …..सब नाड़ी देख रहे थे …….कोई दवा दे रहा था ….कोई झाड़ फूँक कर रहा था ……….मैं देखती रही ………..
जब सब चले गए …….तब मैं उस बहु के पास में गयी ………..उसनें मुझे देखा ………..वो मुँह मोड़नें लगी ………तो मैने कहा …….सुन बहु !
तेरा इलाज इन वैद्यों के पास नही है……..बहु ! क्यों की इन्हें पता ही नही है कि तुझे हुआ क्या है ?
मुझे पता है ………….
फिर इसका दवा क्या है ? बहु नें दुःखी होकर पूछा ।
कृष्ण को देख लिया है ना ? ललिता नें कान में धीरे से पूछा ।
सिर हिलाकर “हाँ” में जबाब दिया ।
हे पतिव्रता जी ! अब तो एक ही उपाय है इस रोग के ठीक होनें का …………..कि हम जैसी “कुलटा” का संग करो ……….
ये प्रेम रोग है ……..ये प्रेम रोग लगा है तुम्हे …….इसलिये उपाय यही है अब……कि हम जैसी “कुलटाओं” का संग करो…और अपनें यार के बारें में खूब चर्चा करो…..बतियाओ….तभी तुम्हारा ये रोग ठीक होगा ।
ललिता सखी नें हँसते हुए ये प्रसंग सुनाया था ।
फिर चुप हो गयीं …….लम्बी साँस ली ललिता नें ………..फिर उद्धव को बोलीं ……..कोई बात नही…….कृष्ण के नाम से बदनाम भी हों , तो भी हम धन्य हैं……..हमें मतलब नही है उद्धव ! कि तुम्हारा संसार हमें क्या कहता है ……….हमें तो इस बात से मतलब है कि हमारा कृष्ण हमारे बारे में क्या सोचता है ।
नही …नही …….आप लोग व्यभिचारी नही हैं……..उद्धव जी रो पड़े ।
व्यभिचारी तो हम हैं ……..ललिते ! व्यभिचारी उसे कहते हैं ……”जो एक से नही” ……जो “एक” का नही …….अनेकों से जुड़ा हुआ है ……..पर आप लोग कहाँ अनेकों से जुड़े हैं ……आप तो एक श्रीकृष्ण के प्रति ही रुढ़ भाव रखती हैं……..आप कैसे व्यभिचारीणी हुयीं ?
हम हैं व्यभिचारी तो……..क्यों की अनेकों में लगे हैं ….हमें धन भी चाहिये, पद – प्रतिष्ठा भी चाहिये…..परिवार भी चाहिये…मित्र जन भी चाहिये…….पर आप तो धन्य हैं……आप के व्यभिचार के आगे तो अनुसुइया इत्यादि का पातिव्रत धर्म भी व्यर्थ लगता है …….धन्य है आप का ये रुढ़ भाव ।
उद्धव जी नें ललिता सखी को प्रणाम किया था ।
शेष चरित्र कल –
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