महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (005)
(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )
रास की भूमिका एवं रास का संकल्प -भगवानपि०-1
श्रीशुक उवाच
भगवानपि ता रात्री शरुदोत्फूल्लमल्लिका ।
वीक्ष्य रन्तुं मनश्चक्रे योगमायामुपाश्रित: ।।[1]
भगवान क रूपमाधुरी, वेणुमाधुरी, लीलामाधुरी, और प्रियामाधुरी- ये जो चार प्रकार की माधुरी हैं, वे श्रीकृष्ण में विशेष हैं। उनका रूपसौन्दर्य कैसा है कि ‘यद् दर्शने दृशिषु पक्ष्मकृतं शपन्ति’- जब गोपियाँ श्रीकृष्ण का दर्शन करती हैं, तो उनको बीच में, अपनी आँखों की पलक का गिरना भी बहुत बुरा लगता है। ‘पक्ष्मकृतं शपन्ति’ – पलक गिरने वालीको जिसने बनाया उसको गाली देती हैं कि तुमने हमारी पलकें गिरने वाली क्यों बना दीं? ‘पक्ष्मकृतं शपन्ति’- इतना राग है श्रीकृष्ण के रूपदर्शन में कि सर्वलोक के पितामह, चारों वेदों के वक्ता, भगवत्-स्वरूप, भागवत-धर्म के गुरु ब्रह्मा को गाली देती हैं कि तूने हमारी आँखों में पलकें क्यों बना दीं? ‘जड उदीक्षतां पक्ष्मकृता दृशाम्’ जो श्रीकृष्ण के दर्शन में लगा हुआ है, उसके आँखों की पलकें गिरने व ली जिसने बनायी, वह जड़ है। यह गाली हुई न! यह बात भागवत् में है-
दृशिषु पक्ष्मकृतं शपन्ति जड उदीक्षतां
पक्ष्मकृत् दृशाम्, उदीक्षतां जनानां दृशां पक्ष्मकृतां जडः।
जब किसी से राग हो जाता है और उस राग में कोई बाधा डालता है तो क्रोध आता है चाहे कोई ब्रह्मा ही क्यों न हो। इसी से बाबा! दो के बीच में नहीं पड़ना चाहिए। वंशी-माधुरी तो ऐसी है कि एक दिन गोपियों ने किसी प्रकार वंशी चुरा ली।
बोलीं- बाँसुरी! हम तुम्हारे ऊपर बहुत प्रसन्न हैं, तुमको आशीर्वाद देती हैं। बाँसुरी बोल उठी- ऐसी क्या सेवा मुझसे संपन्न हुई कि आप प्रसन्न हैं और आशीर्वाद दे रही हैं? तो कहती हैं- कारण यह है कि तुम दिन में चुप रहती हो, हमारे ऊपर करुणा करती हो; ‘यद् वासरे मुरलि के करुणां करोषि।’ दोपहर के समय तुम्हारी आवाज हमारे कान में नहीं पड़ती है, तो हम घर का काम कर लेती हैं- रोटी बना लेती हैं, झाड़ू लगा लेती है, अपने पति की सेवा कर लेती हैं; इसलिए अरी बांसुरी! हम तुम्हारे ऊपर प्रसन्न हैं। बाँसुरी ने कहा- अच्छा देवी, आप लोगों का प्रसाद, प्रसन्नता सिर पर जो आशीर्वाद देना हो दे लो। बोलीं- पहला आशीर्वाद यह है कि ‘निश्छद्रमस्तु’-
निश्छद्रमस्तु हृदयं परिपूर्णमस्तु
मौखर्यमस्तु त्वमितमस्तु गुरुत्वमस्तु ।
कृष्णप्रिया सखि दिशामि सदाशिषस्ते यद् वासरे
मुरलि के करुणां करोषि ।।
ब्रह्म लोग जब यज्ञ पूरा हो जाता है तब बोलते हैं ‘निश्छिद्रमस्तु।’ बोलीं- सखि! बाँसुरी! तुम भी निश्छिद्रमस्तु हृदय परिपूर्णमस्त- तुम्हारा हृदय भर जाए। और फिर ‘मौखर्यमस्तु’- तुम्हारे अंदर बहुत बोलने का जो दुर्गुण है वह तुम्हारा मिट जाए, बोलती हैं- ‘मौखर्यमस्तु त्वमितमस्तु गुरुत्वमस्तु’; कृष्ण गोवर्धन को तो उठा लेते हैं, पर सखि! तुम इतनी भारी हो जाओ उनके हाथ से न उठो। देखो यह आशीर्वाद के व्याज से शाप है। इसका मतलब यह है कि आप यह समझें कि बाँसुरी उनके चित्त को कितना विकल करती है। यह बाँसुरी तो महाराज! अद्भुत कर देती है। फिर गोपियाँ कहतीं हैं-
मुरहर रन्धनसमये मा कुरु मुरलीरवं मधुरम्।
हे मुरहर! हे मुरारे! बाँसुरी बजाया करो, लेकिन जब हम रसोई बनाया करें, तब तो न बजाया करो। क्योंकि-
नीरसमेधो रसतां कृशानुरप्येति कृशतताम् ।
क्योंकि हमारी सूखी लकड़ी गीली हो जाती है, हमारी आग बुझ जाती है, बड़ी कठिनाई होती है। रसोईं बनाने का समय बाँसुरी मत बजाया करो।
क्रमशः …….
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹
Author: admin
Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877