!! एक अद्भुत काव्य
– “प्रेम पत्तनम्” !!
( प्रेम नगर 15 – “नगर का वर्णन” )
गतांक से आगे –
यत्रान्तर्बहिरन्त: पद्मरागशकलकलधौतकलितान्यतिललितानि सकलान्येव सद्मानि ।
यत्र विशालविद्रुमद्रुमशकलघटिता कलधौतकीलशृंखलादिजटिता सर्वत्रैव विकटा कपाटपटली ।
यत्र सद्मशिखरोपरिसुवर्णरसरंजितैव पताकावली ।।
अर्थ – जहाँ पद्मराग नामक ( लाल ) मणि उस नगर के भवन गृह प्रासाद आदि में लगे हुए हैं …और बाहर भीतर सुवर्ण के पंक को ही लेप दिया गया है …जिससे भवन गृह आदि अत्यधिक सुशोभित हो रहे हैं । जहाँ के गृह के कपाट यानि द्वार विशाल मूँगा के वृक्षों से निर्मित हैं और कील और साँकर आदि सुवर्ण के बने हुए हैं । प्रत्येक भवन एक जैसे ही हैं ।
जहाँ के भवनों के शिखर में लगे कलशों के ऊपर पीले रंग की पताकाएं लहरा रही हैं ।
हे रसिकों ! अब आप पहुँच गये हैं “प्रेमनगर” में …..थोड़ा रुकिये और दर्शन कीजिए इस दिव्य नगर का । कितने सुन्दर घर हैं यहाँ के ….सुन्दर क्यों नही होंगे …दुनिया में अगर सुन्दर कुछ है तो एक मात्र प्रेम ही तो है । फिर वह प्रेम जहाँ विराजमान हो उसे तो सुन्दर होना ही है …देखिये …जैसी वस्तु जहाँ रहेगी उसे वो वैसा ही बना देगी …ये नियम ही है ।
जैसे – अगर कूड़ा करकट आपके हृदय में रहेगा तो आपका हृदय सुन्दर नही हो सकता …आपका हृदय सुन्दर कब होगा जब उसमें प्रेम रहेगा ….तब देखिये आप कैसे खिल जायेंगे ।
आपको ये बात माननी ही पड़ेगी ….कि आप के अन्दर जो है वही बाहर से दिखाई देता है ।
आप दिन रात गाली देते हैं ….तो मानिये आपके भीतर गाली ही भरी हुयी है …जो है वही निकलता है ….वही दिखाई देता है । जो भीतर से प्रेमपूर्ण होगा उससे प्रेम ही प्रकट होगा ।
एक सन्त मुझे कभी कभी “राबिया सूफ़ी” महिला की कहानी सुनाते थे …..
राबिया एक सूफ़ी सन्त हुयी …जिसने क़ुरान की एक आयात पर प्रश्न चिन्ह लगाया और प्रश्न चिन्ह ही नही लगाया उसे काट ही दिया था । वो आयात थी …”सच्चे आदमी से प्रेम करो बुरे से घृणा” ….राबिया कहती है …ये सम्भव नही है ….ये हो नही सकता कि बुरे से घृणा और अच्छे से प्रेम …राबिया का कहना है …हृदय में या तो प्रेम रहेगा या घृणा …दोनों एक साथ सम्भव नही है ….ये चुनाव आप नही कर सकते । सही बोली है ये सूफ़ी महिला …भीतर जो होगा वही बाहर प्रकट होगा ….तुम्हारे कृत्रिमता का प्रदर्शन कब तक ? कब तक छुपा पाओगे हृदय के प्रेम को या द्वेष को ।
आहा ! कितना सुन्दर नगर है ये …..देखो , अद्भुत दिखाई दे रहा है ….अच्छा , एक बात और ….सारे मकान एक जैसे हैं …होंगे ही ….प्रेम एक है तो वो प्रेम जहाँ रह रहा है वो हृदय रूपी भवन भी एक जैसा ही होगा । भक्तमाल कभी पढ़ी है ….उसमें भी भक्तों के हृदय का ही तो वर्णन है ….कितना सुन्दर हृदय है ….बुरे से बुरे को भी अपने हृदय से लगाया ….इससे सुन्दर और क्या होगा ! ओह ! वो प्रेम रस में पगे “श्रीजयदेव जी” का नाम तो सुना ही होगा …..वही “गीत गोविन्द” के रचयिता ….कितना सुन्दर है उनका भवन यानि हृदय ।
जा रहे थे प्रेम रस में मत्त ….दो चोरों ने उन्हें पकड़ लिया और लूट पाट करने लगे ….किन्तु उन प्रेमी के पास क्या होगा ? कुछ नही मिला तो हाथ पैर काटकर गड्डे में फेंक दिया ।
पर कोई चिन्ता नही ….वहीं बैठे अपने प्रियतम श्याम सुन्दर को याद कर रहे हैं ….धन्यवाद कह रहे हैं उन हाथ काटने वालों को ….कि अब ठहर तो गये …चलो यही ठीक रहा …और “गीत गोविन्द” गाने लगे …मत्त हो गये …उसी समय राजा वहाँ से निकला …वो राजा इनका शिष्य था ….गायन से समझ लिया कि ….मेरे गुरुदेव हैं …ले आया प्रार्थना करके अपने राजमहल में ।
आज्ञा गुरुदेव ! राजा ने हाथ जोड़कर आज्ञा माँगी ।
साधु सेवा करो ……गुरु की आज्ञा ।
बस साधु सेवा शुरू हो गयी ….किन्तु साधु के भेष में एक दिन वही चोर आगये ….वही , जिन्होंने हाथ पैर काट दिए थे इन प्रेमी जयदेव जी के ….जब उन साधु भेष के चोरों ने जयदेव जी को देखा तो डर गये …..किन्तु श्रीजयदेव जी का हृदय कितना सुकोमल ….सुन्दर …क्यों की वहाँ प्रेम देवता विराजमान हैं । राजा से जयदेव जी ने कहा – ये हमारे गुरु तुल्य हैं इनकी सेवा विशेष करो । बस उनकी विशेष सेवा होने लगी ….आहा ! एक दिन वो साधु भेष धारी चोर जब जाने लगे ….तब साथ में विदा करने मन्त्री जी आये ….और बात ही बात में चोरों से पूछ लिया कि हमारे राजा के गुरु आपको इतना क्यों मान रहे हैं ? तो चोर यहाँ भी झूठ बोल दिये …”जो भीतर है वही बाहर आता है” ….बोले ….ये तुम्हारा गुरु चोर था इसने चोरी की इसलिये इसके हाथ पैर काट कर सजा दे दी गयी थी ….ये सुनते ही पृथ्वी से रहा नही गया …पृथ्वी फट गयी और वो दो चोर उसमें समा गए ।
ये बात लौटकर सन्त जयदेव जी से मन्त्री ने कहा …तो सन्त जयदेव को दुःख हुआ …आहा ! बेचारे वो लोग मर गये अच्छे थे ….अश्रुगिरने लगे और अश्रु पोंछने के लिए जैसे ही हाथ बढ़ाया ….हाथ उग गए …घबराहट में चलने की इच्छा हुयी तो पैर उग गये ।
प्रेमियों का ध्यान सदैव उनका प्रीतम रखता ही है ।
मेरा अभिप्राय ये कि “प्रेम पूर्ण हृदय बड़ा ही सुन्दर होता है”…..यहाँ प्रेमनगर के भवनों का जो वर्णन है वो अत्यधिक सुन्दर बताया गया है ….जो स्वाभाविक है ।
“प्रेमनगर” के भवन अति सुन्दर हैं ….भवनों में लाल लाल पद्मराग मणि को लगाया गया है ….और बाहर भीतर दीवारों में पोती गयी है सुवर्ण के कीच । ओह ! क्या सुन्दर !
हमारी श्रीराधारानी को तपते सुवर्ण के समान गौर अंग वाली कहा गया है …..यहाँ पर भी नगर के भवन सुवर्ण कीच से ……यानि पीला ….चमकदार । उसमें लाल मणि जिसे पद्मराग कहा गया है ….उसको मध्य मध्य में लगाया गया है ।
पीला रंग ही क्यों ?
उत्सव का रंग है पीला …उत्साह का रंग है पीला । निकुँज में हमारी समस्त सखियाँ पीले ही वस्त्र धारण करती हैं …हमारे श्याम सुन्दर भी पीताम्बर धारण करते हैं । “प्रेमनगर” में नित्य उत्सव है । नित्य मंगल है । एक बात याद रखना …जहाँ प्रेम होगा वहाँ नित नूतनता रहेगी ही । प्रेम कभी भी एक समान नही रहता । प्रेम बढ़ता है बढ़ता है ….रुकता नही है …आप अगर ये चाहते हैं कि जैसे चल रहा है हमारा प्रेम बस ऐसे ही चलता रहे …इससे ज़्यादा नही इससे कम नही …तो ये सम्भव ही नही है ….वो बढ़ेगा बढ़ेगा …बढ़ना ही उसे आता है …परिणाम की परवाह किए बग़ैर बढ़ता है ।
अब जहाँ नित नूतनता है वहाँ तो उत्सव होंगे …अजी उत्सव के बिना प्रेम रह ही नही सकता ।
इसलिये प्रेमनगर के भवनों की दीवारें जो पुती हैं , वो सुवर्ण की कीच से पुती हैं । उत्सव का प्रतीक ।
अब उन भवनों के द्वार ?
मूँगा , जिसका रंग लाल है ….उसके वृक्ष की लकड़ी से द्वार बने हैं …प्रत्येक भवन के । उसमें सुवर्ण की कीलें हैं और साँकर भी सुवर्ण के हैं ।
इतना ही नही …इन भवनों के ऊपर कलश है , उनमें पीले रंग वाली ध्वजा पताकाएँ लहरा रही हैं ।
ध्वजा पताकाएँ यहाँ हर दिन बदलते हैं …..क्यों की उत्सव नित्य है यहाँ । ऐसा मत सोचना कि एक दिन में एक बार ही उत्सव है …..नही , ये प्रेम नगर है हर क्षण यहाँ उत्सव है । हर क्षण यहाँ आनन्द है । अजी ! यहाँ तो कोई अपने प्रीतम का प्रेमी भी घर में आया तो उत्सव है ।
आहा ! गोपियों को ही देख लो …कैसे घेर कर बैठ गयीं हैं उद्धव को ….कोई बात नही ..प्रीतम नही आए तो क्या हुआ ? तुम प्रीतम की सुगन्ध तो ले आये । तुम्हें देखकर लग रहा है …कि प्रीतम को ही देख लिया ..बैठो , बताओ ..कैसे हैं वे !
ऊधो !
“बिसरे सब दुःख देखत तुमकों , श्याम सुन्दर तुम लागी “
गोपियाँ आनंदित हैं ….उनके सखा आए हैं …..तुम श्याम सुन्दर जैसे लग रहे हो ।
“आज दिवस लेऊं बलिहारा , मेरे घर आया मेरे पीऊ जी का प्यारा”
गोपियाँ आनंदित हैं ।
पर उद्धव भी तो ये सब देखकर रस सिन्धु में डूब गये हैं ।
हे गोपियों !
“तुम्हरे दरस भगति मैं पाई , वह मत त्याग्यो यह मत लाई ।
तुम मम गुरु , मैं शिष्य तुम्हारो , प्रेम सुनाय जगत निस्तारो “ ।
प्रेम नगर में इस तरह , आनन्द है , उत्सव है , उत्साह है , उमंग है ।
ये है प्रेम नगर ….सुन्दर है ना आप जाना नही चाहोगे ?
आगे अब कल –
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