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November 22, 2024 11:16 am

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!! एक अद्भुत काव्य – “प्रेम पत्तनम्” !!-( प्रेम नगर 20 – “नगर के तीन शत्रु” ) : Niru Ashra

!! एक अद्भुत काव्य – “प्रेम पत्तनम्” !!-( प्रेम नगर 20 – “नगर के तीन शत्रु” ) : Niru Ashra

!! एक अद्भुत काव्य – “प्रेम पत्तनम्” !!

( प्रेम नगर 20 – “नगर के तीन शत्रु” )

गतांक से आगे –

यत्र भीरुभावरुद्रविधेयकदर्याख्या भूपतिपरिपंथनो राजनिर्जिता नगरानि किमपि नायान्ति ।।

अर्थ – जहाँ ( प्रेमनगर में ) भयानक, रौद्र और वीभत्स ये शत्रु हैं ….इस नगर में ये आये थे किन्तु राजा से पराजित होकर यहाँ से चले गये । अब ये नगर के समीप भी दिखाई नही देते ।

***एक कथा आती है भक्तमाल में …..दक्षिण भारत के राजा कुलशेखर की ।

ये श्रीराम जी के परमभक्त थे ….श्रीकिशोरी जी के चरणों में इनकी अनन्य निष्ठा थी …अपनी माता मानते थे ये श्रीकिशोरी जी को । नित्य श्रीरघुनाथ जी की कथा सुनते थे …..कथा सुनाने वाले पण्डित जी भी परम भक्त थे ….वो भी जानते थे कि राजा की स्थिति अत्यन्त उच्च है ….भाव से भरे रहते हैं ये ….और श्रीराम कथा ही सुनते हैं…..किन्तु रावण का प्रसंग सुन नही पाते….वो प्रसंग इन्हें असह्य लगता था कि एक राक्षस मेरी माता सीता जी को ले गया । एक बार पण्डित जी ने ये कथा सुना दी थी …तो जो इनकी स्थिति हुयी थी उसको स्मरण रखकर ये कथा नही सुनाते थे । एक दिन पण्डित जी अस्वस्थ हुये तो उन्होंने अपने पुत्र को भेज दिया और कहा …राजा को कथा सुनाकर आओ । किन्तु ये कहना भूल गये कि …रावण हरण का “भयानक रस” मत सुनाना , अपनी माता सीता को भयभीत अनुभव करना ये इनको सह्य नही था ।

पण्डित जी का पुत्र गया ….उसने कथा सुनाते सुनाते वो प्रसंग भी सुना दिया …..रावण राक्षस माता सीता के पास भेष बदलकर आया …और भिक्षा माँगने लगा ….राजा नेत्र बन्दकर के कथा सुनते थे । माता सीता जैसे ही भिक्षा देने बाहर आयीं ….रावण अपने भयानक रूप में आगया ….उसका वो अट्टहास …उसके अट्टहास से पर्वत टूटने लगे थे …माता सीता को उसने पकड़ा ….और लेकर चल दिया ….ये सुनते ही राजा कुलशेखर को अपार कष्ट हुआ । ये सोचने लगे कि ओह ! मेरी माता सीता जी कितनीकोमल हैं …रावण का भयानक रूप देखकर डर गयीं होंगीं …..वो उठकर खड़े हो गये ….कूदकर अपने अश्व में बैठ गये ….और सागर के किनारे अपने अश्व को दौड़ाया …..सामने समुद्र जब आया तो राजा समुद्र में कूदकर लंका जाने का प्रयास करने लगे ही थे कि तभी श्रीसियाराम जी प्रकट हो गये …और राजा को रघुनाथ जी ने समझाया – हे राजन्! तुम्हारी माता को तो मैं ले आया हूँ । राजा ने देखा …फिर माता सीता जी से बिलखते हुये राजा ने कहा …माता ! आप को कुछ हुआ तो नही ? पुत्र ! मुझे कुछ नही हुआ मैं बिल्कुल ठीक हूँ …तुम्हारे पिता मेरे साथ हैं तो मुझे क्या होगा ? सीता जी के ये कहने पर सन्तोष हुआ राजा कुलशेखर को । और वो अपने महल में लौट आए ।

**** हे रसिकों ! प्रेमनगर यानि आपका हृदय …जब आपका हृदय प्रेमनगर बन जायेगा …तो वो अत्यन्त संवेदनशील हो जाएगा ….उसमें “भयानक रस” नही आसकता । आपका प्रेमनगर उसको स्वीकार नही करेगा । तो यहाँ लिखा है ….ये शत्रु हैं प्रेम नगर के । तीन शत्रु बताये हैं …..एक “भयानक रस”, दूसरा “रौद्र रस” , और तीसरा “वीभत्स रस” । प्रेमनगर मूल रूप से “मधुर रस” का क्षेत्र है …..और ये तीन रस इस मधुररस में बाधक हैं । आप अगर किसी को देखकर भयभीत हो जाते हो …या दूसरे के लिए भयभीत हो ….तो वो आपके हृदय के मधुररस को बिगाड़ देगा ….इसलिए प्रेम नगर का ये प्रथम शत्रु है – “भयानक रस” । दूसरा शत्रु है …”रौद्र रस” । “रौद्र रस” का स्थाई भाव है …क्रोध ।

हे साधकों ! क्रोध बहुत हानिकारक है …..”प्रेम नगर” के साधकों को इस क्रोध से बचना चाहिए ।

सात आठ वर्ष पहले की बात है …किसी बात पर मुझे बहुत क्रोध आगया था….मैं घर से निकल कर पागलबाबा के यहाँ पहुँचा …..गलती मेरी नही थी ….मैं सही था ….ये बात मैंने पागलबाबा से कही तो वो बोले ….”देखो ! हृदय कोमल होता है ….क्रोध हृदय को कठोर बना देता है …जो हम प्रेम मार्ग वालों के लिए बहुत हानिकारक है” । मैंने कहा …किन्तु बाबा ! मेरी गलती नही है ….बाबा हंसे बोले …बात गलत सही की है ही नही ….हृदय को तो नुक़सान हो ही गया ना !

बस उस दिन से मेरा प्रयास रहता है कि क्रोध से बचा जाये ।

और तीसरा शत्रु है इस नगर का ….”वीभत्स रस” ।

घिन आना ….ये वीभत्स रस है …..

खून , पीव , मार काट , सिर कटे , ये सब वीभत्स रस में आते हैं ।

हमारे बृज के रसिक सन्त मार काट वाला कोई प्रसंग नही सुनते …भले ही भागवत की कथा में आता हो ….या राम कथा में , वो नही सुनते ।

एक पहुँचे हुए रसिक सन्त थे बरसाना में …..वो नित्य अपने प्रियालाल जू को लाड़ लड़ाते थे ….उन्हीं की लीलाओं में मग्न रहते थे ।

एक दिन श्रीजी महल के गोसाईं जी ने कहा …बाबा ! मेरी भागवत है रही है आप पधारो …अब बृजवासियों की बात को काटना ये अक्षम्य अपराध समझते थे इसलिये वो उनकी भागवत कथा में गए …उस समय जैसे ही इन्होंने कथा सुनी वो कथा इनसे सहन नही हुई और वहीं मूर्छित हो गये ।

लोगों ने जल आदि का छींटा देकर इन्हें जगाया …जब बाबा जागे तो उनसे पूछा गया …कि बाबा! क्या हुआ ? आपको मूर्च्छा क्यों आयी ? उन्होंने जो बात बताई वो अद्भुत थी । बाबा बोले – मैं तो चिन्तन करते हुए आया था कि – श्याम सुन्दर प्रिया जी की बेणी गूँथ रहे हैं …फिर श्रीजी के कपोल को अपने कोमल करों से सहला रहे हैं ….तभी कथा में प्रसंग आया कि – केशी नामका राक्षस आया घोड़ा बनकर श्याम सुन्दर को मारने …और श्याम सुन्दर ने अपना हाथ उसके मुख में डालकर उसकी अंतडियाँ निकाल दीं …ये सुनते ही मुझे लगा ओह ! जिन हाथों से मेरी प्रिया जी के कपोल ये छू रहे थे …उन्हीं हाथों से घोड़े की अंतड़ि पकड़ी …छी । ये मुझे असह्य था इसलिए मैं मूर्छित हो गया ।

अब क्या कहोगे ? क्यों की हृदय प्रेम की चर्चा करते करते “मधुर रस” में डूब गया है …वो अति सम्वेदनशील बन जाता है फिर ये भयानक रस , रौद्र रस , और वीभत्स रस …शत्रु हो जाते हैं ।

अब इनसे बचना ही पड़ेगा । ये आवश्यक है । क्यों की ये प्रेम नगर के शत्रु हैं ।

शेष अब कल –

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