आज के विचार
!! एक अद्भुत काव्य – “प्रेम पत्तनम्” !!
( प्रेम नगर 37 – “जहाँ सुख ही दुःख है” )
26, 10, 2023
गतांक से आगे –
यत्र सुख मेव दुःखं ।।
अर्थ – जहाँ ( प्रेम नगर में ) सुख ही दुःख है ।
****हे रसिकों ! सही कहा है “इस प्रेमनगर में सुख ही दुःख है”…..यानि व्यवहारी जिसे सुख कहते हैं उसे यहाँ दुःख माना गया है । प्रीतम को भूलना सुख है या दुःख ? नींद अच्छी आएगी भूल जाओ प्रीतम को । चैन मिलेगा ….भूल जाओ प्रीतम को । खाओ पीयो मौज करो …कहाँ ये प्रेम व्रेम के चक्कर में पड़े हो ….भूल जाओ प्रीतम को तो सुखी हो जाओगे ….किन्तु प्रेम नगर में ये सुख तो बहुत बड़ा दुःख है …..प्रीतम को भूल जायें ! ओह ! जीवन को ही न छोड़ दें ।
उसे तुम सुख कह रहे हो ? प्रीतम अनादि काल से हमारे द्वार पर खड़ा है …खटखटा रहा है हृदय के द्वार ….किन्तु हमारा उस ओर ध्यान ही नही है ….हमारा ध्यान है …धन बटोरने में …जो साथ रहेगा भी नही , हमारा ध्यान है परिवार को संगठित करने में …जो कभी होगा नही । हमारा ध्यान है …शरीर सुख को महत्व देने में …जो शरीर सदा रहेगा नही ….हमारा ध्यान है …घर संसार बसाने में ….जो कभी बसा नही । ये सुख है ना ? इसे ही सुख माना जाता रहा है ना ? देह निरोगी रहे ? धन रहे ? पत्नी पति परायण हो ? पुत्र आज्ञाकारी हो ? यही ना ?
किन्तु ये सुख कहाँ है ? ये तो दुःख है । महान दुःख है । तुम सनातन प्रीतम को छोड़कर मिथ्या व्यवहार में लग रहे हो ….विषय भोग तुम्हें आकर्षित कर रहे हैं ….वो अपनी ओर खींच रहे हैं तुम्हें …भागवत में प्रह्लाद जी कहते हैं …हे नाथ ! देह में खुजली होती है …तो जीव खुजाता है …उसे वो सुख लगता है …किन्तु खुजाते खुजाते रक्त निकलने लगता है …इसी को वो सुख मान कर चलता है …कितना मूढ़ है ना ये जीव ! ये तो दुःख है …विषय भोगों की ओर मुँह करना ही दुःख को निमन्त्रण देना है । मुँह करो अपने सनातन प्रीतम की ओर । वही आनन्द से भर देगा ।
हे रसिकों ! सत्य बात यही है कि आप जिसे सुख मानकर चल रहे हो , वो दुःख है ।
भागवत में सनकादि ऋषि भगवान से कहते है –
हे नाथ ! जो आपके सुयश का गान करने में लगे हैं …जो आपके नाम,रूप,लीला के चिन्तन में मग्न हैं ….जो आपका स्मरण होते ही ..उन्मत्त होकर कभी नाचने लगते हैं तो कभी उच्च स्वर से गाने लगते हैं …..उन्हें कौन सा सुख चाहिए ? उनके लिए तो आपके सिवा सभी दुःखप्रद ही हैं ….हे नाथ ! मैं और क्या कहूँ ! ऐसे आपके प्रेमीजनों के लिए तो ब्रह्म सुख भी तुच्छ है …ब्रह्मानन्द भी उन्हें फीका लगता है …फिर आपके भृकुटी भंग से जो इंद्रादि देवता काँपते रहते हैं ..उस पद की ओर तो इनका ध्यान भी नही जाता ।
अब आप ही विचार करो …ब्रह्मानन्द का सुख जिसे व्यर्थ लगता हो उन्हें और कौन सा सुख आकर्षित कर सकता है भला ।
देखिये ! गये तो थे वैकुण्ठ , ये भोले भाले बृजवासी जन ।
जिद्द की थी अपने सखा कन्हैया से कि तू नारायण है तो दिखा अपना वैकुण्ठ , अरे , हम भी देखें ….तेरा वैकुण्ठ कैसा है । सखाओं से ये सुनते ही कन्हैया ने तुरन्त बुला लिया था गरुड़ जी को ….और अपने सखाओं को बैठाकर लेकर चल दिये ।
अन्तरिक्ष में जैसे ही पहुँचे ….सखाओं ने देखा ऋषि मुनि सब हाथ जोड़े खड़े हैं …लोक के लोक पीछे छूट रहे हैं ….स्वर्ग , सत्य , तप लोक …सब क्षण में ही जा रहे हैं …ग्वाल बालों ने देखा सबसे ऊँचा सबसे उच्च लोक वैकुण्ठ में ये लोग पहुँच गये थे । ग्वाल बालों ने एक दूसरे से पूछा …उतरना है क्या ? मनसुख बोला …वैकुण्ठ देखना था ना तुम्हें , अब उतरो । सब ग्वाल बाल उतर गये ….शान्त रस है वैकुण्ठ का ….ॐ नमों नारायणाय …यही मन्त्र गूँजता रहता है इस लोक में । ग्वाल बाल संभल कर चल रहे हैं ….कोई किसी से बोलता नही हैं ….सामने एक विशाल द्वार है …..वैकुण्ठ द्वार । उस द्वार पर दो द्वारपाल खड़े हैं …जय विजय । उनको देखते ही ग्वाल बाल दौड़ पड़े और बोले – कितनी सुन्दर मूर्ति है । जय विजय पर ही झूलने लगे , कोई कान पकड़ रहा है तो कोई उनका नाक हिला रहा है । जय विजय से रहा नही गया …वो चिल्लाकर बोले ..शान्त रहो । ग्वाल बाल तुरन्त शान्त हो गये ….एक बोला ..मूर्ति नही है सच्चा आदमी है ..बोल के दिखा दिया है । आगे गये तो भगवान नारायण शेष शैया में पौढे हुए हैं । उसके चरणों को दबा रही हैं महालक्ष्मी । सब ग्वाल बाल दूर से दर्शन कर रहे हैं ….किन्तु हाथ नही जोड़ते ….एक सखा ने दूसरे से पूछ ही लिया ये कौन हैं ? सो क्यों रहे हैं ? बीमार हैं क्या ?
मनसुख ही है पण्डित इन सबमें …तो वही बोला …नारायण भगवान हैं ये । ये अपने कन्हैया जैसे हैं ना ? सुबल सखा ने ये भी कहा । पर हमारे कन्हैया में जो बात है वो इनमें नही है ….उसमें चपलता है …इनमें गम्भीरता है …तोक सखा ने कहा …इनके पैरों को कौन दबा रही है ? लक्ष्मी है । ये लक्ष्मी कौन है ? मनसुख चिल्लाकर बोला …इसी नारायण की घरवाली ।
अरे ! यहाँ ब्याह है गयो कन्हैया को ? श्रीदामा चौंक कर पूछता है ।
हाँ , है गयो । मनसुख ने इतना ही कहा ..और वो इधर उधर देखने लगा । “बोर है गये या वैकुण्ठ में तो”….मनसुख ही भुनभुनाया । कहाँ है अपना कन्हैया ! वो चिल्लाया भी ।
“वैकुण्ठ का सुख सर्वोच्च सुख है”
विधाता ब्रह्मा ने सुन ली थी मनसुख की बात इसलिए वो अपने चार मुख से बोले थे ।
किन्तु हमारे लिए तो ये महादुःख है वैकुण्ठ में रहना । मनसुख भी बोल दिया था ।
क्यों ? महालक्ष्मी ने पूछा ।
क्यों कि यहाँ हमारा कन्हैया नही है, मनसुख फिर बोलता गया …क्यों की यहाँ प्रेम की बाँसुरी नही है, क्यों की यहाँ यमुना नही है , क्यों की यहाँ वंशीवट की छाँव नही है , क्यों की यहाँ वात्सल्य करने वाली हमारी मैया यशोदा नही है , क्यों की यहाँ माखन नही है ।
आहा ! हे विधाता ब्रह्मा ! हे विष्णुपत्नी महालक्ष्मी ! हे नारायण के पार्षदों ! भले ही लाख सुख मानें लोग ….कि वैकुण्ठ में सर्वोच्च सुख है …किन्तु क्षमा प्रार्थी हैं हम बृजवासी कि जहाँ हमारा प्यारा कन्हैया नही है …वो स्थान भले ही बैकुण्ठ क्यों न हो …हमारे लिए वो स्थान भी दुःखप्रद ही है । अब हमारे ऊपर कृपा करो …और हमें हमारे श्रीवृन्दावन में ही पहुँचा दो । हमारे लिए वही स्थान सुख देने वाला है ।
कहा करौ वैकुण्ठ हि जाय ?
जहाँ नहिं नन्द यशोदा गोपी , जहाँ नही ग्वाल बाल अरु गाय ।।
जहाँ न जल जमुना कौ निर्मल , और न कदम्ब की छाँय ।
परमानन्द दास कौ ठाकुर , बृज रज तजि मेरी जाइ बलाय ।।
हमें कोई सुख नही चाहिये …हमारे लिए सब सुख दुःख हैं जिसमें हमारा प्यारा न हो ।
ओह ! अब क्या कहोगे इन पागलों से…..अजी ! वैकुण्ठ के सुख को त्याग कर वापस श्रीवृन्दावन आगये थे ये बृजवासी ग्वाल बाल ।
“प्रीतम मिले उजार में , तो वो उजार बजार ।
प्रीतम न हो बजार में , तो वो बजार उजार”।।
अजी ! प्रीतम के बिना तो सुख भी परम दुःख है ।
अब शेष कल –
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