!! एक अद्भुत काव्य – “प्रेम पत्तनम्” !!
( प्रेम नगर 43 – “जहाँ बिन सिर वाले ही सिर वाले हैं” )
गतांक से आगे –
यत्राशिरस एव सहस्रशिरस : ।।
अर्थ – जहाँ ( प्रेम नगर में ) बिना सिर वाले ही हजार सिर वाले हैं ।
****हे रसिकों ! इस प्रेम नगर में सिर होना भी ग़ुनाह है । यहाँ तो सिर काट कर उस सिर को पैर से मारते हुए चलना है । इसलिये तो यहाँ कहा गया है …कि जिसके सिर नही हैं वही हजारों सिर वाला है । सिर का अभिप्राय रसिकों! आप जानते ही हो , अहंकार ….सिर अभिमान का प्रतीक है ….यहाँ अहंकार वालों का प्रवेश कहाँ है ।
जब तक धड़ में सिर है …तब तक समझना कि साहब का घर अभी दूर है …साहब के घर में जाना है तो पहले सिर को उतारो …अपने हाथ में रखो ..फिर चलो , देखो साहब का घर आगया ।
सिर को उतारते ही प्रेमनगर आजाता है ….सिर धड़ में है तो दूर है अभी प्रेमनगर ।
कबीरदास जी की वाणी आप लोगों ने नही सुनी क्या ?
“प्रेम न बाड़ी ऊपजे , प्रेम न हाट बिकाय ।
राजा परजा जो रुचे , शीश देइ लै जाय ।।”
प्रेम सस्ता नही है …प्रेम कोई गाजर मूली नही है …जो तुम्हें ऐसे ही मिल जाएगा । प्रेम नगर कोई तुम्हारी मौसी का घर भी तो नही है ….जब चाहो चले जाओ ….ऐसे कैसे प्रवेश मिल जाएगा …प्रवेश तब मिलेगा …जब प्रवेश का शुल्क चुकाओगे । क्या शुल्क है भई ! इस प्रेम नगर में प्रवेश का ? हाँ , शुल्क है …अपना सिर काटो और इस प्रेम नगर के द्वार पर रखो …तब प्रवेश मिलेगा । ओह ! बड़ा महँगा सौदा है । जी ! बहुत महँगा है प्रेम ! ऐसा नही है ….कि कोई भी मुँह उठाए चला आये ।
जब तक सिर है , तब तक खुदी है …और जब तक खुदी है खुदा अभी दूर है यार !
हे रसिकों ! सूली पर चढ़ना होगा , इस सिर को सूली देनी होगी …ये सिर ही तो सारे फ़साद की जड़ है ….जिस सिर ने सूली नही देखी …वो प्रीतम का घर भी नही देख सकता । उफ़ ! ये प्रेम देवता किसी ओर की नही तुम्हारी ही बलि चाहता है ….किसी ओर के सिर पर तलवार चला कर अपने को वीर समझते हो ! अरे ! वीर , महावीर तो वो है जो प्रेम की वेदी में अपना सिर काट कर चढ़ा दे …..ये वीरता अन्यों में कहाँ पायी जाती है जी !
“मज़ा कुछ तो मिला होगा अनोखे इश्क़ में तेरे ,
वर्ना ज़ान क्यों अपनी फ़ना मंसूर कर देता ।।”
अच्छा ! हम हो जायेंगे बेसर वाले ….अपना सर काट के चढ़ा देंगे प्रेम की वेदी में …फिर क्या मिलेगा ? ये क्या प्रश्न हुआ ? अरे ! अपने धड़ से सिर को अलग तो करो …फिर देखो …क्या मज़ा आता है ….ये मंसूर ऐसे ही नही गया ….उसे वो मज़ा आया था अपने सनातन साजन के इश्क़ में कि अपना सिर कटवा दिया ….उफ़ तक न की उस दीवाने ने । वो हंसते हंसते प्रेमनगर में प्रवेश कर गया ।
“जब लगि मरने से डरै, तब लगि जीवन नाहीं ।
बड़ी दूर है प्रेम घर , समझ लेहु मनमाहिं ।।”
हे रसिकों ! बाबा पलटू दास का नाम तो सुना ही होगा , अगर नही सुना तो सुन लो ..उनको जान लो ..अपने ही कुल गोत्र के हैं ….प्रेम ही कुल है और अच्युत ही गोत्र है ….इसलिए कह रहा हूँ अपने कुल के व्यक्तियों को याद रखना चाहिये । अच्छा, क्या कहा है बाबा पलटू ने ?
“जीते जी मर जाय , करै ना तन की आसा ।
आशिक़ का दिन रात रहे सूली पर बासा ।।”
लो , ये तो मंसूर से भी बड़े आशिक़ निकले ….मंसूर तो एक बार सूली पर चढ़ा …पर बाबा पलटू कहते हैं …एक बार कहाँ , एक बार से क्या होगा ? अहंकार रूपी सिर फिर उठ जाएगा …दिन रात सूली पर ही लटके रहना होगा ….सिर कटे , ये सिर ही बड़ा खतरनाक है …फिर उग जाता है …रावण की कथा नही सुनी …भगवान श्रीराम उसका सिर काट देते थे ..किन्तु फिर उग जाता था …ये अहंकार है …एक अहंकार को काटोगे तो दूसरे ढंग से वो फिर प्रकट है ।
एक गुरु ने अपने शिष्य को समझाया …अहंकार मत रखो ..विनम्र बनो ।
तो बस उस शिष्य ने विनम्रता का चोला ओढ़ लिया किन्तु भीतर अहंकार था ही ।
अब तो किसी को भी देखें …बस पैरों में पड़ जावें …और कहें ….हम तो आपके पैरों की धूल हैं …लोग वाह , वाह कहें ….कहें कि देखो …कितनी नम्रता है ….इतने बड़े आदमी और ऐसी विनम्रता ! किन्तु एक साधु ने पहचान लिया कि ये भी अहंकार का दूसरा ही रूप है । अब ये उन साधु के पास में गये और चरण पकड़ कर बोले ….हम तो इन चरणों की धूल हैं …साधु ने उपेक्षा करते हुये कहा …पैरों की धूल तो तुम हो ही ..इसमें कहने की क्या बात है । बस ये सुनते ही वो तो क्रोध से भर गये …और उल्टा सीधा कहने लगे उन साधु को ….कि अहंकार अच्छी बात नही है ….साधु हंसते हुये बोले ….ये वास्तविकता है तुम्हारी …क्यों बेकार में लोगों के सामने ढोंग करते हो …..अहंकार अभी गया नही है …उसने बस रूप बदल लिया है ।
हे रसिकों ! बड़ा खतरनाक है ये अहंकार ….इसके रूप बदलते रहते हैं …इसलिए बाबा पलटू दास ठीक कहते हैं ……
।। आशिक़ का दिन रात रहे सूली पर बासा ।।
हर समय सूली पर चढ़ाए रखो अपने अहंकार को , इस अहंकार रूपी सिर को सूली दिखाये रखो ..तभी कुछ होगा …नही तो ….अहंकार ही अपना रूप बदल बदल कर आता रहेगा …पहले कहते थे …मेरे पास करोड़ हैं …अब कहते हो …मैंने करोड़ त्याग दिये …अहंकार तो अहंकार ही रहा ना , पहले संग्रह का अहंकार अब त्याग का अहंकार । इसलिये बेसिर हो जाओ ….तभी तुम सिर वाले कहलाओगे । ये तो अद्भुत सूत्र है ।
सखी ! आज मन में एक कामना उठी है ….का करूँ ?
ये सखी यमुना किनारे से आयी है …वहाँ से जब से आयी …तब से इसके मन में बैचेनी है ।
दूसरी सखी ने उसका हाथ पकड़ लिया …और उसकी धड़कन को महसूस करते हुये बोली …सखी ! मुझे बता क्या बात हुयी ।
वो सखी आह भरते हुए बोली ….क्या कहूँ सखी ! श्याम सुन्दर यमुना किनारे गेंद खेल रहे थे ….मैं भी देखने के लिए रुक गयी ..और उनकी कंदुक लीला देखने लगी ..वो बड़े प्रेम से गेंद को अपने हाथों में ले रहे थे …फिर उस गेंद को अपनी पीताम्बर से पोंछ रहे थे ..फिर उछाल रहे रहे थे फिर पकड़ लेते …हाय सखी ! क्या कहूँ ये सब देखकर मुझे तो लगा कि …मैं अपना सिर काट कर श्यामसुन्दर को ही दे दूँ । आहा ! वो मेरे सिर से खेलें …फिर वो अपनी पीताम्बर से पोंछे । हाय सखी ! मैं अपने सिर को कंदुक बना पाती तो कितना अच्छा होता ।
हे रसिकों ! ये है बेसिर होना , बिना सिर का होना । ये आवश्यक है ।
अगर आशिक़ होने का शौक़ रखते हो ….तो प्रेम के मैदान में अपने सिर को गेंद की तरह उछाला करो …उससे खेला करो …..या अपने प्रीतम को खेलने दो । उफ़ ! ये प्रेम जो कराये कम ही है ।
“ मुहब्बत में ये लाज़िम है , जो कुछ हो फ़ना कर दे “
शेष अब कल –


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