महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य)
श्रीकृष्ण की रासलीला का अर्थ🙏
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श्रीमद् भागवत में रास पंचध्यायी का उतना ही महत्व है जितना हमारे शरीर में आत्मा का। श्रीमद् भागवत में रास पंचध्यायी दसवें स्कंध में 29 से 33 अध्याय में है। रास लीला के अर्थ को इस लेख में समझाया है। एक गोपी जो भगवान कृष्ण के प्रति कोई इच्छा नहीं रखती। वह सिर्फ कृष्ण को ही चाहती है। उनके साथ रास खेलना चाहती है। उसकी खुशी सिर्फ भगवान कृष्ण को खुश देखने में है।
भागवत में श्री शुकदेवजी कहते हैं श्रीकृष्ण वृंदावन के जंगलों में रास लीला करना चाहते थे। वास्तव में भगवान कुछ नहीं चाहता, वह तो स्वयं ही साध्य भी है, साधन भी।_
वास्तव में रास क्या है? रास भगवान कृष्ण और कामदेव के बीच का युद्ध एक है। कामदेव ने जब भगवान शिव का ध्यान भंग कर दिया तो उसे खुद पर बहुत गर्व होने लगा। वो भगवान कृष्ण के पास जाकर बोला कि मैं आपसे भी मुकाबला करना चाहता हूं। भगवान ने उसे स्वीकृति दे दी। लेकिन कामदेव ने इस मुकाबले के लिए भगवान के सामने एक शर्त भी रख दी। कामदेव ने कहा कि इसके लिए आपको अश्विन मास की पूर्णिमा को वृंदावन के रमणीय जंगलों में स्वर्ग की अप्सराओं सी सुंदर गोपियों के साथ आना होगा। कृष्ण ने यह भी मान लिया। कामदेव ने कहा कि उसे अपने अनुकूल वातावरण भी चाहिए और उसके पिता मन भी वहां ना हों।
फिर जब तय शरद पूर्णिमा की रात आई। भगवान कृष्ण ने अपनी बांसुरी बजाई। बांसुरी की सुरीली तान सुनकर गोपियां अपनी सुध खो बैठीं। कृष्ण ने उनके मन मोह लिए। उनके मन में काम का भाव जागा, लेकिन ये काम कोई वासना नहीं थी, ये तो गोपियों के मन में भगवान को पाने की इच्छा थी।
आमतौर पर काम, क्रोध, मद, मोह और भय अच्छे भाव नहीं माने जाते हैं लेकिन जिसका मन भगवान ने चुरा लिया हो तो ये भाव उसके लिए कल्याणकारी हो जाते है। उदाहरण के लिए जैसे जिसके भी मन में भगवान कृष्ण थे, उसने क्रोध करके भगवान से युद्ध किया तो उसे मुक्ति ही मिली, जैसे कंस और शिशुपाल।
ऐसे ही गोपियों में जब कृष्ण के प्रति काम का संचार हुआ, वे उत्साहित हुईं और गहरी नींद से जाग गईं। भगवान ने बांसुरी की तान पर हर एक गोपी को उसके नाम से पुकारा। हर गोपी ने ये सोचा कि उसने कृष्ण को मोहित किया है और वे बिना किसी को कहे, घर से जंगल के लिए निकल पड़ीं। जबकि रात में कोई गोपी अकेली जंगल में नहीं जा सकती थी।
एक स्त्री कई मर्यादाओं में बंधी होती है। लेकिन गोपियों के मन में जो प्रेम था उसने उन्हें डर के बावजूद हिम्मत दी। जहां डर और स्वार्थ हो, वहां ऐसे भाव को वासना कहा जाता है। रावण बहुत शक्तिशाली था लेकिन वासना के कारण, जब वो सीता का साधु के रुप में अपहरण करने गया तो पेड़ की सामान्य पत्तियों से भी डर रहा था। कागभुशुंडी गरुड़ से कहते हैं कि हे गरुड़, मनुष्य गलत रास्तों पर अपनी विवेक और ताकत खो देता है, उसके पास सिर्फ डर ही रह जाता है। यहां गोपियों के मन में कोई भय नहीं था। क्यों? क्योंकि वे जानती थीं कि वे कोई गलत काम नहीं कर रही हैं। वे वो लक्ष्य प्राप्त करने जा रही है जिसके लिए जीव को जन्म मिलता है। श्रीकृष्ण के साथ रास खेलना यानी परमात्मा को प्राप्त करना है।
सभी गोपियों ने महसूस किया कि भगवान सिर्फ उन्हें ही पुकार रहे हैं। लेकिन वो एक नहीं थी, कई थीं। मतलब भगवान को पाने के रास्ते पर कई लोग चल रहे हैं और सभी यही सोचते हैं कि वे अपने दम पर चल रहे हैं। भगवान से हमारे रिश्ते में कोई गोपनीयता नहीं होती है लेकिन निजता जरूर होती है।
इसलिए, गोपियां डरी नहीं। उन्होंने अपना सबकुछ छोड़ दिया। घर, परिवार, रिश्ते-नाते, जमीन-जायदाद, सुख-शांति और वृंदावन के उस जंगल में पहुंच गईं, जहां कृष्ण थे। श्रीकृष्ण ने सभी गोपियों का स्वागत किया। भगवान ने एक बातचीत के जरिए सबके मनोभावों को परखा। उनके निष्काम भावों से भगवान प्रसन्न हुए और उन्होंने गोपियों से कहा “आओ रास खेलें।”
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जीव को रास में प्रवेश कब मिलता है
भगवत रसिक जी अपनी वाणी में जीव के रासलीला में प्रवेश का क्रम बता रहे हैं’-
” प्रथम सुने भागवत, भक्तमुख भगवत वाणी “, :-
1. सबसे पहले किसी भगवद्भक्त के मुख से भागवत की कथा अर्थात भगवान व उनके भक्तों के चरित्र की कथा सुने।
2. ” द्वितीय अराधिये भक्ति, व्यास नव भाति बखानी ” :-
व्यास जी द्वारा बताई गई नवधा भक्ति (श्रवणम् ,कीर्तनम् ,स्मरणम् ,वन्दनम् अर्चनम् ,पादसेवनम् ,दास्यम्, सख्यम् एवं आत्मनिवेदनम् ) का अभ्यास करें। जिससे पापमोचन होकर चित्त शुद्धि होगी, अनर्थ निवृत्ति होगी, और भगवान मीठे लगने लगेंगे।
3. ” तृतीय करे गुरु समुझी, दक्ष सर्वज्ञ रसीलो ” :-
भली भांति सोच विचारकर किसी सतगुरु (रसिक भक्त अर्थात भगवत्प्रेम में रचे पचे सन्त) के चरणों में आत्म समर्पण करे। ( वेदादि शास्त्रों के रहस्य को जानने वाले व राधा-कृष्ण के चरणों के प्रेमदान में पूर्ण दक्ष रसिक सन्त को गुरु बनाये।)
4. ” चौथे होई विरक्त, बसे वनराज जसिलो ” :-
सांसारिक पदार्थो से विरक्त होकर श्री धाम वृंदावन में वास करे।
5. ” पंचे भूले देह सुधि, :-
जब ऊपर के चार चरणों को अपराध मुक्त होकर पार कर लेगा ( रस भजन के आंनद के लिए अपने को इन्द्रिय सुख भाव से परे कर लेगा, सांसारिक क्षणिक सुख की कामनाओं के ऊपर उठ जाएगा), तब उस साधक की ऐसी स्थिति हो जाएगी कि भगवान के स्मरण में देह सुधि ही नहीं रहेगी। (स्त्री पुरुष के भेद से ऊपर उठ जाएगा।) रसभजन में देहाभ्यास भान नहीं रहता। स्त्री-पुरुष भाव से ऊपर उठकर गोपीभाव में प्रवेश होता है। तब जाकर…
6. छठे भावना रास की ” :-
……वो रास रस में प्रवेश पाने का अधिकारी होता है।
7. ” साते पावे रीति रस श्री स्वामी हरिदास की ” :-
फिर रास रस और निकुंज लीला में प्रवेश होता है। स्वामी हरिदास जी की जो रस रीति है अर्थात निकुंज लीला की अष्टयाम सेवा है, उसमें उस जीव का प्रवेश होता है
अब आगे आज की कड़ी —–
महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (035)
(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )
रास-रात्रि में पूर्ण चंद्र का दर्शन
प्रियः प्रियायाः इव दीर्घदर्शनः- ऐसा माहौल है। चंद्रमा आया आकाश में और एक महीने के बाद आने वाली पूर्णिमा नहीं, एक वर्ष के बाद आने वाली शारदीय पूर्णिमा आयी। एक वर्ष नहीं, एककल्प के बाद जब श्रीकृष्ण का अवतार होता है तब वह शारदीय पूर्णिमा आती है जिसमें रास करते हैं। वह शारदीय पूर्णिमा आज चंद्रमा को मिली तो जैसे कोई प्रियतम दीर्घकाल के बाद अपनी प्रिया को मिले और उसके आँसू पोछकर उसके शरीर पर रंग लगा दे और उसको अनुराग के रंग से तर कर दे, सराबोर कर दे, इसी प्रकार चंद्रमा ने रासविलास के प्रारंभ में प्राची दिशा के मुख को हर्षोल्लसित किया और जनता को जो दुःख है उसको दूर किया। प्रियः प्रियाया इव दीर्घदर्शनः।
गीता में भी आता है- एक जगह अर्जुन ने कहा कि यदि हमसे कोई गलती हुई हो तो माफ करना- पितेव पुत्रस्य सखेव सख्युः प्रियः प्रियायार्हसि देव सोढुम्। वहाँ तो अर्जुन से महाराज बोला नहीं गया- मुँह ही नहीं खुला। आपको उस श्लोक में जो दोष है सो बताता हूँ भला। प्रियाः प्रियाया अर्हसि देव सोढुम्- ऐसा बोलना चाहिए था। लेकिन स्त्रीलिंग बोलने की जगह अर्जुन से पुल्लिंग निकल गया- प्रियः प्रियाय- सखेव सख्युः यह बात जब पहले आ गयी तो दुबारा प्रियः प्रियायाः बोलना चाहिए।
अरे भाई। पति से अथवा अपनी प्रेयसि से कोई गलती होती है तो जो प्यारा होता है वह क्षमा करता है। बोले भाई! हम दोनों को एक ही हैं, तुम्हारी गलती तो हमारी गलती है। अर्जुन बोला कि अगर हम स्त्रीलिंग शब्द का प्रयोग कर देंगे तो इसका अर्थ यह होगा कि हम और कृष्ण तो सखा-सखा हैं और प्रेयसी कोई दूसरी है, वह हमसे बड़ी होगी। नहीं, हम ही सबसे ज्यादा प्रेमी हैं- प्रियाः प्रियायार्हसि- पुल्लिंग शब्द प्रियाय का प्रयोग करके अर्जुन ने यह प्रकट किया, नहीं तो प्रियायाः होना चाहिए, लेकिन भले पुल्लिंग निकला, विद्वान् लोग समझ जाते हैं कि यह स्त्रीलिंग है।*
वृत्रासुर के प्रसंग में भी आया है-
अजातपक्षा एव मातरं खगाः स्तन्यं यथा वत्सतराः क्षुधार्त्ताः ।
प्रियं प्रियेव व्युषितं विषण्णा मनोऽरविन्दाक्ष दिदृक्षते त्वाम् ।।
हे कमलनयन; प्यारे श्यामसुन्दर। मेरा मन तुम्हारा दर्शन करने के लिए व्याकुल हो रहा है- कैसे? जैसे- प्रेयसी का मन अपने प्रियतम के दर्शन के लिए व्याकुल होता है- प्रियं प्रियेव व्युषितं विषण्णा बहुत दिन से परदेश गया प्रियतम और प्रेयसी उसके लिए विषण्ण-विषादग्रस्त-व्याकुल और उसका रोम-रोम चाहता है कि प्यारे का दर्शन होवे। बिना चाह के, बिना व्याकुलता के प्यारे का दर्शन नहीं होता।
यह प्रिय शब्द प्रेम शब्द का मूल है। धातु ‘प्रीञ्’ है और इससे पहले ‘प्रिय’ शब्द बनती है और फिर भाव में ‘प्रेमा’ या ‘प्रेम’ शब्द बनता है, दोनों तरह का बनता है। ‘प्रीञ्’ धातु से प्रयति-प्रयते-प्रीणाति, भिन्न-भिन्न गणों, में भिन्न-भिन्न गणियाँ बनाती हैं- प्रियते, प्रीणाति, प्रीणयति, प्राययति- तरह तरह के रूप बनते हैं। तो प्रीणाति इति प्रियः प्रीञ् तर्पणे- जो अपने प्रेमी को तृप कर दे उसका नाम प्रेम है। जिसको देखकर आँख तृप्त हो जाय जन्म अबधि हम रूप निहारे-नयन न तिरपित भयेल जैसे चकोर चंद्रमा के दर्शन का प्यासा है वैसे आँखें जिसके दर्शन की प्यासी हैं और दर्शन करके आनन्द लेती भी जाती हैं और अतृप्त रहती हैं, उसका नाम होता है प्रिय।
जिसकी आवाज सुनने के लिए, जिसका वचन सुनने के लिए कान प्यासे रहते हैं, जिसको छूने के लिए त्वचा प्सासी रहती है, जिसको सूँघने के लिए नासिका प्यासी रहती है, जिसका स्वाद लेने के लिए जिह्वा प्यासी रहती हैं, एक क्षण जिसकी याद भूल जाए तो मन व्याकुल हो जाता है, उसको बोलते हैं प्रिय, जिसके बिना किसी भी इन्द्रिय को तृप्ति नहीं है, न आँख को, न कान को, न त्वचा को, न नाक को, न जीभ को, न दिल को, न दिमाग को, जिसके बिना जीवन में तृप्ति आती ही नहीं है, उसका नाम प्रिय है।
एक बार की बात है। कल्याण-परिवार में ऐसा बढ़िया गुट इकट्ठा हुआ था- हनुमान प्रसाद पोद्दार तो थे ही, पंडित लक्ष्मण नारायण गर्दे (शरीर हो गया पूरा उनका), पण्डित नन्ददुलारे बाजपेयी (जो आजकल उज्जैन में कुलपति हैं, विक्रम विश्व विद्यालय में), पण्डित भुवनेश्वर प्रसाद मिश्र ‘माधव’ (जो डायरेक्टर हैं बिहार के शिक्षा विभाग में विहार राष्ट्रभाषा परिषद् के वही संचालक हैं) सब लोग इकट्ठे थे- गर्देजी ने पूछा- कि देखो दुनिया में मोर नाचते हैं बरसात में- वह चाहे विलायत का हो चाहे हिन्दुस्तान, अमेरिका, यूरोप, अफ्रीका या एशिया का; कहीं का मोर हो, वह आसमान में बादल देखकर नाचने लगता है। तो यह बात तय हो गयी कि मोर का प्यारा है बादल। परंतु यह जो मनुष्य जाति है, इसका भी है कोई ऐसा प्यारा जिसको देख करके मनुष्य जाति प्यार में नृत्य करने लगे?
अरे इसने तो अपना प्यार बिखेर दिया भाई! टुकड़े-टुकड़े कर दिया। कुछ यहाँ कुछ वहाँ। प्यार जब तक सिमटता नहीं, तब तक उसका मजा नहीं आता। प्यार में सात बातें होनी आवश्यक हैं (1) एक तो वह कभी टूटे नहीं।
सर्वथाध्वंसरहितः सत्यपि ध्वंसकारणे ।
यद्भावबन्धनं यूनोः स प्रेमा परिकीर्तितः ।।
टूटने की चाहे कितनी वजह आवें- सत्यपि ध्वंसकारणे- टूटने की वजह साफ-साफ आ जाने पर भी जो कभी न टूटे ऐसा जो भावबन्धन है, दिल का दिल के साथ बँध जाना है, यह प्रेम की पहली चीज है। टूटना हो तो प्रेम काहे का? (2) दूसरी बात प्रेम में यह होती है कि महाकवि भवभूति बोलते हैं देखो- एक बार प्यारा आया तो उसने हथेली ठोंकी और दूसरी बार आया तो इतने जोर से चिकोटी काट गया कि खून निकल आया। एकबार खूब दर्द हुआ और एक बार खूब मजा आया। तो प्रेमी कौन है?
क्रमशः …….
प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹


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