महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (036)
(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )
रास-रात्रि में पूर्ण चंद्र का दर्शन
जिसने न तो चिकोटी की तकलीप देखी और न प्यार का मजा देखा- जिसने यह देखा कि यह हमारा प्यारा है, उसकी क्रिया पर नजर नहीं गयी, उस पर नजर गयी। एक बार तमाचा जड़ दिया उसने और एकबार चूम लिया और दोनों में यह मालूम पड़ता है कि यह हमारा प्यारा है, उसका नाम प्रेमी है-
अद्वैतं सुखदुः खयोरनुगुणं सर्वास्ववस्थासु यत्,
विश्रामो हृदयस्य यत्र जरसा यस्मिन्नहार्यो रसः ।
कालेनावरणात्ययात्परिणते यत्स्नेहसारे स्थितं,
भद्रं प्रेम सुमानुषस्य कथमप्येकं हि तत्राप्यते ।।
भले मानुष को यह प्रेम मिलता है। सुख में सुख देने वाला, जो दुःख में दुःख देने वाला भी वही। प्रेमास्पद के सिवाय ईश्वर भी प्रेमी को सुख-दुःख नहीं देता। प्रेमी ईश्वर के राज्य से बाहर निकल जाता है, प्रेमी को ईश्वर बुखार नहीं देता, बोले- अपना प्रियतम जरा रूठ गया तो बुखार आ गया। प्रियतम ने वह बुखार दिया, ईश्वर नहीं। एकदिन वजन बढ़ गया, कैसे? तो कहा- एक दिन जरा हँस कर उन्होंने देख लिया था। अद्वैतं सुखदुःखयोरनुदिनं सर्वासु अवस्थासु यत्- अरे सोते भी हैं तो उसके लिए, सपना भी देखते हैं तो उसके लिए, जागते हैं उसके लिए, गरीब हो जाते हैं उसके लिए, धनी हो जाते हैं उसके लिए। मरते हैं उसके लिए, जिन्दा हो जाते हैं उसके लिए- सर्वासु अवस्थासु यत्। दिल चाहे जितना भटक आवे दुनिया में, चाहे जो-जो देख आवे, चाहे जो-जो खा आवे, मांग आवे लेकिन विश्राम मिलता है उसी के पास। बुढ़ापे से यह प्रेम घटता नहीं। ज्यों-ज्यों समय बीतता है त्यों-त्यों यह गाढ़ा होता है। जैसे- दूध को जितनी-जितनी आँच लगती है उतना-उतना। उसका मजा निकलता है।
तो प्रीति बड़ी विलक्षण है। प्रेम में पहली बात बतायी कि चाहे टूटने के कितने कारण मौजूद हों, परंतु टूटे नहीं। और दूसरी बात यह होती है कि प्रेमी के हृदय में कठोरता नहीं आती। उसके पास कोई वस्तु अदेय नहीं है, कोई भी अपनी वस्तु नहीं है। और (3) तीसरी बात है कि प्रेम हमेशा पूर्ण रहता है फिर भी बाँका, थोड़ी आँख टेढ़ी हो जाती है, थोड़ा मुँह टेढ़ा, थोड़ी बोली में बाँकपना आ जाता है। (4) चित्त जब विश्वास की भूमिका में पहुँचता है तो वहाँ से अखण्ड प्रेम का उदय होता है, तब हृदय नरम हो जाता है, हृदय का निर्माण होता है, हृदय कोमल हो जाता है परंतु उसके बाद? उस निर्माण में भी मान रहता है। निर्माण में मान रहता है और निर्भय होता है प्रेम। (5) पाँचवीं बात है कि जिससे प्रेम हो, उसमें यदि दोष दिखें तो सेवा की भावना बढ़ती है, घटती नहीं है।
यदि दोष देखकर सेवा की भावना घट जाय तो समझना प्रेम नहीं है। कहा- रोज तो घण्टों कंपनी देते थे, फिर एक दिन आ गया उन्हें बुखार तो बोले आज मत जाओ नहीं तो हमको भी इन्फेक्शन हो जाएगा। कहा- नहीं प्रेम में जर नहीं होता- तन्वानं सम्प्रदोषे। अरे भाई पहले तो बहुत अच्छे थे तब हमने प्रेम किया अब पीने लगे शराब तो तोड़ दो। जिससे पहले यह बात हुई थी कि हम धर्म के अनुसार चलेंगे, उसने धर्म तोड़ दिया तो सारी मर्यादा ही तोड़ दी। लेकिन प्रेम तो दूसरी चीज है। अरे, अब उस समय आओ, उसकी नाली से उठाओ उसका नशा उतारो, उसको धीरे-धीरे समझाओ कि बाबा! ऐसा काम नहीं करना। यह देखो- प्रेम अटूट है, प्रेम से हृदय की कठोरता मिट जाती है, प्रेम हृदय का निर्माण तो करता है पर थोड़ा मान रखता है, अपने प्रियतम की सेवा के लिए। प्रेम में निर्भयता होती है और दोष में वह बढ़ता है। (6) अब छठी बात प्रेम नित्य नया रस देता है। और (7) सातवीं बात प्रेमी और प्रियतम दोनों मिलकर एक हो जाते हैं।
ये सात बातें प्रेम में आनी अनिवार्य हैं। प्रेम द्वैत नहीं है, प्रेम अद्वैत है। प्रेम बीच में कोई बात सहता ही नहीं है। आज किसी से चर्चा कर रहा था- कोई भी चीज दो तब होती है जब उसके बीच में तीसरी चीज होती है, और जहाँ तीसरी चीज नहीं होती वहाँ दो चीज नहीं होती। दो उँगली दो हैं क्योंकि दोनों के बीच में पोल है। हम तुम दो हैं क्योंकि बीच में पोल है। यह अवकाश नहीं हो, यदि दोनों का अभाव दोनं के बीच में न हो तो दो चीज होवे ही नहीं। रस्सी और साँप दो हैं कि एक? हे भगवान्! अज्ञान है तब दो हैं और अज्ञान मिट गया तो दो नहीं एक ही है। जिस चीज का नाम रस्सी उसी चीज का नाम साँप। हे नारायण; मिथ्या और सत्य दो वस्तु नहीं होवें, सत्य के प्रतिद्वन्द्वी का नाम सत्य नहीं है, मिथ्या के प्रतिद्वन्द्वी का नाम सत्य नहीं है, क्योंकि मिथ्या किसी का प्रतिद्वन्द्वी हो ही नहीं सकता क्योंकि वह है ही नहीं। इसलिए सत्य और मिथ्या दोनों असल में एक ही होते हैं।*
परब्रह्म परमात्मा और जगत् एक। अच्छा, यह तो हुआ दृष्टान्त! क्योंकि प्रेमदर्शन का विषय है, प्रेमी और प्रियतम एक हैं अद्वैत हैं। अरे फेंक माला, निकाल दो हार। क्यों भाई क्यों? कि-
हारो नारोपितः कण्ठे मया विश्लेषणभीरुणा ।
क्योंकि हम दोनों के बीच में जो यह हार है वह हार नहीं है, यह प्रेम की हार है। प्रेमी और प्रियतम के बीच में तीसरी वस्तु को प्रेम सहन करता नहीं, यह प्रेम का स्वभाव है, शरीर को भी नहीं सहता, साँस भी अलग नहीं हों। प्रेमी प्रियतम का शरीर एक, प्राण एक, मन एक, बुद्धि एक, आनन्द एक और आत्मा तो सबकी एक है ही। यह मत कहो कि प्रेमी और प्रेमिका आत्मा की दृष्टि से एक हैं। आत्मा की दृष्टि से तो कीट-पतंग, पशु पक्षी, देवता-दानव, मानव सब एक हैं। प्रेम का तो मतलब होता है कि व्यावहारिक दृष्टि से भी एक है। श्रीवल्लभाचार्य जी महाराज कहते हैं कि जगत् और ब्रह्म दो नहीं एक हैं। और शंकराचार्य जी महाराज भी कहते हैं कि ब्रह्म और जगत् दो नहीं, एक हैं। पर इसमें कुछ बोलने में फर्क है कि नहीं? दो दर्शन क्यों हो गये? केवलाद्वैत दर्शन अलग और विशुद्धाद्वैत दर्शन अलग। एक दूसरे का खण्डन करें, पर बात बोलें एक। इसका कारण क्या है? वह कल सुबह मैं सुनाने वाला हूँ। प्रेमाद्वैत दूसरा है और केवलाद्वैत दूसरा है। यह तो प्रेमाद्वैत है। प्रेमाद्वैत है माने हिलमिलकर अद्वैत है। आँख से आँख मिली, नाक से नाक मिली, ओंठ से ओंठ मिले, त्वचा से त्वचा मिली, दिल से दिल मिला, यह तो बिलकुल व्यावहारिक अद्वैत है। प्रिय प्रियाया इव दीर्घदर्शनः- चंद्रमा भी अनुराग की लाली में नहाकर निकला, और प्राची दिशा को भी उसने लाली में रंग दिया- दोनों एक-एक हो गये-प्राची और चंद्रमा। इसी समय श्रीकृष्ण की दृष्टि चंद्रमा पर पड़ी। अब तक नहीं देखा था-
दृष्टा कुमुद्वन्तमखण्डमण्डलं।
दृष्टा कुमुद्वन्तमखण्डमण्डलं रमाननाभं नवकुंकुमारुणम् ।
वनं च तत्कामलगाभिरञ्जितं जगौ कलं वामदृशां मनोहरम् ।।
प्रेम के सारे लक्षण इस श्लोक में हैं। कृष्ण ने कल बजाया। कल क्या? एक कल था श्रीकृष्ण के पास। जागौ कलं- एक ऐसा कल था, एक ऐसा यंत्र था श्रीकृष्ण के पास कि चाहे कोई तिजोरी में बंद हो, लेकिन माल निकलकर कृष्ण के पास आ जाएगा। कहते हैं अद्वितीय चोर थे श्रीकृष्ण। गोपियों का जो प्रेम शरीर के भीतर हृदय की पिटारी में और धर्म का ताला लगाकर बंद था, उसको, ऐसा चोर महाराज! कि मालिक को पता ही न चले और माल निकलकर बाहर आ गया।
क्रमशः …….
प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹


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