!! एक अद्भुत काव्य – “प्रेम पत्तनम्” !!
( प्रेम नगर 50 – “जहाँ मृत्यु ही जीवन है” )
गतांक से आगे –
यत्र मरणमेव जीवनम् ।।
अर्थ – जहाँ ( प्रेमनगर में ) मृत्यु ही जीवन है ।
हे रसिकों ! अगर आप प्रेमोपासक हैं, आप रस मार्ग के पथिक हैं …तो ये “प्रेमपत्तनम्” आपके लिए बहुत उपयोगी साबित होगा । आप इसको गम्भीरता के साथ पढ़िए , बार बार पढ़िए …समझ न आये तो समझने का प्रयास कीजिये …पूछिये । ये बहुत दुर्लभ और अलौकिक काव्य है । इसके विषय में और क्या कहें !
अब देखिये …आज का सूत्र ….”प्रेम नगर में मृत्यु ही जीवन है” । ये आज का सूत्र है ।
प्राणों से मोह किसका नही होता ? किन्तु प्रेमी मृत्यु को ही जीवन समझ कर चलता है ।
कुछ झाँकियाँ “प्रेमनगर” की मैं आपको दिखा रहा हूँ ….आप बस दर्शन कीजिये ।
*सायंकाल की वेला बीत रही थी ….बृजगोपियाँ अपने अपने गृहकार्य में व्यस्त थीं …कोई अपने पति को भोजन करा रहीं थीं तो कोई गाय दुहकर दूध लेकर आरही थीं …कोई गोपी अपने को सजा रही थी …तो कोई गोपी आँच में हलुआ बना रही थी ….कोई गोपी अपने नवजात को दूध पिला रही थी । तभी मुरलीधर की मुरली बज गयी । मुरली तो बजी किन्तु उस मुरली को जिन जिन गोपियों ने सुना उन्हें लगने लगा कि ये तो मेरा नाम ले रहे हैं …मुझे पुकार रहे हैं …मुझे बुला रहे हैं ….ओह ! मेरे प्यारे ने मुझे बुलाया ! बस फिर क्या था …जो पति को भोजन करा रही थी ….उसके पति ने दाल माँगीं ….वो लेकर भी आयी थी …किन्तु जैसे ही बाँसुरी सुनी …दाल हाथ से गिर गया ….वो चल दी । अब जो गोपी गाय दुहकर दूध लेकर आरही थी ..उसने बाँसुरी सुनी ….बाँसुरी में अपना नाम सुना …ओह ! मेरे प्रीतम ने मुझे बुलाया ….दूध का पात्र हाथ से गिर गया और वो भागी । अब जो गोपी हलुआ बना रही थी , सीरा बना रही थी …उसने बाँसुरी की ध्वनि सुनी ….ओह ! श्याम सुन्दर मुझे बुला रहे हैं ….वो हलुआ जलता रह गया और वो भागी ।
अब जो गोपी अपने नवजात को दूध पिला रही थी उसने भी जब सुनी बाँसुरी की ध्वनि …तो बालक गोद से गिर गया और गोपी भाग गयी । इनके पतियों ने देखा तो किसी को बड़ा दुःख हुआ कि हाय ! हमारी पत्नी पागल हो गयी …देखो , एकाएक इसपर न जाने कौन भूत प्रेत चढ़ गया ….अब पत्नी को ऐसे थोड़े ही जाने देता उसने पत्नी की साड़ी पकड़ी खींची किन्तु ये क्या साड़ी उसके हाथ में , वो तो भीतर का लहंगा पहने ही चल दी ….कोई पति क्रोध में आगया …उसने चिल्लाकर कहा …अब घर में आना नही वापस । किन्तु इन गोपियों को कुछ और सुनाई ही नही दे रहा …इन्हें तो सुनाई दे रहा है ….बाँसुरी अपना नाम , कि उनके प्राणधन उन्हें आज बुला रहे हैं …आज हमारे लिए कितने सौभाग्य की बात है । गोपियाँ तो बस यही सोच कर भाग रहीं हैं ।
किसी के पति ने अपनी पत्नी की चोटी पकड़ कर खींचना चाहा , वो गोपी गिरी किन्तु दूसरे ही क्षण तुरंत उठकर वो भाग चली …उसने पति की ओर देखा भी नही ।
अब देखिये – इस गोपी का पति तो अत्यधिक क्रोध से भर गया था उसने अपनी सुकोमल पत्नी को पकड़ा ….वो जिद्द करती करती रही …पर पुरुष बल के आगे इसकी क्या चलती । अपने कक्ष में ले गया और बाहर दरवाज़ा लगा दिया और उसमें ताले भी जड़ दिए । गोपी को ये सब कुछ नही भान …उसे बस जाना है अपने प्राणधन के पास , उसे बस जाना है…अपने सनातन साजन के पास ….उसका प्रेमी उसे बुला रहा है …नाम लेकर बुला रहा है ….कक्ष में बन्द वो गोपी छटपटा रही है ….वो जगह देख रही थी बाहर जाने की लेकिन जा नही पा रही । तभी …जब उसे कहीं से भी जाने के लिए स्थान नही मिला …तो वो धीरे धीरे श्रीकृष्ण में खो गयी ….उसका मन श्रीकृष्ण बन गया उसकी बुद्धि कृष्णाकार बन गयी ….उसके चित्त में श्रीकृष्ण ही छा गया …उसका अहंकार श्रीकृष्ण है अब । और उसकी आत्मा वो श्रीकृष्ण परमात्मा में लीन हो गयी ।
ओह ! ये है प्रेम नगर । जहाँ मृत्यु ही जीवन बनकर मुस्कुराती है ..और रास करती है ।
इसके बाद में श्रीशुकदेव मुनि लिखते हैं – ये गोपी अन्य गोपियों से पहले महारास के लिए वंशीवट में उपस्थित थी । अब क्या कहोगे ? जी , यहाँ मृत्यु ही जीवन है ।
क्या है उन बृजगोपियों में ? कि आप जैसा “परमपुरुष”उनके लिए अश्रुपात करे ! क्यों ?
उद्धव को अच्छा नही लगा , उद्धव ने स्पष्ट बोल दिया …कोई विशेषता नही है उनमें ।
श्रीकृष्ण ने उद्धव के मुख की ओर देखा ….और बोले …बिना जाने निर्णय में पहुँच गये तुम उद्धव ! सीधे कह दिया कोई विशेषता नही है मेरी गोपियों में ? पहले समझ तो लेते कि वो क्या हैं ? मुझे परमपुरुष कह रहे हो …तो परमपुरुष जिसके लिए अश्रुपात कर रहा है ..उनमें कोई विशेषता नही होगी ? उद्धव को लज्जा आयी …श्रीकृष्ण को ये अच्छा नही लगा था …सिर झुका लिया उद्धव ने ….फिर बोले – नाथ ! क्या विशेषता है उन बृजगोपियों में ?
लम्बी साँस ली श्रीकृष्ण ने …गवाक्ष के निकट आये …यमुना को निहारने लगे …फिर अपने को सामान्य करके बोले …उद्धव ! वो मृत्यु को वरण कर चुकी हैं ….उनके अन्दर जो जीवात्मा है वो नही है …उद्धव ने चकित होकर पूछा …मैं समझा नही । श्रीकृष्ण बोले – उन गोपियों ने अपनी आत्मा मुझे दे दी है …मृत्यु उन गोपियों के पास आती है …किन्तु जीवात्मा को न पाकर लौट जाती है …मृत्यु हर क्षण आती रहती है ….मृत्यु में ही उन गोपियों का जीवन है …मृत्यु को ही वो जीवन मान कर चल रही हैं …..ये है मेरी बृजगोपियों की विशेषता । श्रीकृष्ण ने गम्भीर होकर उद्धव से कहा था ।
हे रसिकों ! “मृत्यु ही जीवन है”…..ये कहने का अर्थ ये भी है कि …मरना जीना ये सब प्रेमियों के लिए कोई महत्व नही रखता । उसके लिए महत्व है – प्रीतम , बस प्रीतम ।
श्रीकृष्ण वियोग में तड़पती एक गोपी अपनी सखी से कहती है …मैं मर गयी हूँ ….मैं मर गयी ।
उसकी सखी रोते हुए पूछती है …
फिर तू कैसे जीवित होगी ? अरी सखी ! मुझे बता की तू जीवित कैसे होगी ?
वो विरहिणी कहती है ….मुझे काटो , फिर मेरे अंग अंग को कोल्हू से पिलवाओ ..उसमें से तेल निकलेगा ….बस उस तेल को कोई मेरे श्याम सुन्दर को जाकर दे देना …श्याम सुन्दर जब अपने घुंघराले केश में उस तेल को लगायेंगे तो मैं जीवित हो जाऊँगी ।
प्रेम नगर में मृत्यु ही जीवन है ।
ओह ! मैं मर रही हूँ , मुझे जीवित करो …मुझे जीवन दो ।
एक गोपी फिर पुकारने लगी ।
उसकी सखी ने भी उससे पूछा …क्या करें जिससे तू जीवित हो जाएगी ?
उस गोपी ने उत्तर दिया – कुछ नही , मुझे यमुना किनारे फेंक दो …मिट्टी में मिलकर मिट्टी बन जाऊँगी …फिर किसी कुम्हार को बोल देना …वो आकर मुझे खोदेगा….गधे में लादेगा और अपने यहाँ ले जायेगा । फिर घर ले जाकर मुझे मुद्गरों से पीसा जाएगा …पानी डाला जाएगा …रौंदा जाएगा , फिर वो कुम्हार मुझे चक्र पर घुमायेगा …घूमते घूमते मैं एक पात्र बन जाऊँगी ….फिर मुझे अग्नि में तपाया जाएगा …बस सखी ! उसी पात्र को मेरे प्राणधन श्याम सुन्दर के पास ले जाना उसमें शीतल शर्बत भर कर ले जाना …वो अपना अधर पात्र में लगा देंगे …तो सखी ! मैं उसी समय जीवित हो जाऊँगी ।
हे रसिकों ! ये प्रेम नगर की बात है …समझ न आए तो छोड़ दो । अगर समझ आजाये तो चल दो ….क्यों की यही जीवन है …बाकी हमारा तुम्हारा जीवन तो मृत्यु ही है ।
प्रेम नगर की मौत ही तो ज़िन्दगी है ।
अजी ! प्रेम का खेल तो वही खेल सकता है जो अपने सिर से खेलना जानता होगा ।
शेष अब कल –


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