!! एक अद्भुत काव्य – “प्रेमपत्तनम्” !!
( प्रेमनगर 57 – “और जहाँ चन्द्र भी सूर्य लगता है” )
गतांक से आगे –
यत्र चन्द्र एव रवि : ।।
अर्थ – जहाँ ( प्रेम नगर में ) चन्द्रमा भी सूर्य की तरह लगता है ।
*हे रसिकों ! प्रेम में सूर्य चन्द्रमा की तरह शीतल हो जाता है ….तो शीतल चन्द्रमा भी सूर्य की तरह ताप देने लगता है । प्रेम में विरह है तो मिलन भी है …इसे ऐसे समझें …मिलन काल में सूर्य चन्द्रमा के समान शीतलता का आभास देता है …तो विरह काल में चन्द्रमा , सूर्य के समान ताप दे कर झुलसा भी देता है । बात बाह्य कहाँ है ….सारा खेल तो तुम्हारा हृदय खेल रहा है , या उस हृदय में बैठा तुम्हारा प्रीतम खेल रहा है ! तुम तो नाच रहे हो …बस उन्मुक्त होकर नाचो ।
हे रसिकों ! आज का सूत्र है …”जहाँ चन्द्रमा भी सूर्य की तरह लगता है” ।
आज मैं आपको वैदेही के प्राण श्रीरघुनाथ जी की एक झाँकी का दर्शन कराता हूँ जिससे आपको ये सूत्र और भी स्पष्ट हो जायेगा ………….
लीला बिहारी ने लीला की ….और रावण द्वारा वैदेही हरी गयीं । बस फिर क्या था ….प्राणेश्वरी वैदेही के जाने से श्रीरघुनाथ जी विरह सिन्धु में डूबने लगे …वो वन वन में भटकते हैं ….वृक्षों से , लताओं से , हिरण आदि और पक्षियों से पूछते हैं …मेरी वैदेही कहाँ हैं ? हा जानकी ! हा किशोरी ! हा सिया जू ! पुकार रहे हैं …और पुकारते पुकारते श्रीरघुनाथ जी इतने डूब गए श्रीकिशोरी जी में कि स्वयं अपने आपको ही भूल गये ….”हा हा प्रिये जानकी”! कहते हुए गिर पड़े अवनी में और मूर्छित हो गये । लक्ष्मण ने सम्भाला …उठाया , जल पिलाया …तब श्रीरघुनाथ जी लक्ष्मण से पूछते हैं …वत्स ! मैं कौन हूँ ? बताओ ! मेरा परिचय क्या है ? लक्ष्मण रो देते हैं …और कहते हैं …आप आर्य हैं …कौन आर्य ? श्रीरामभद्र का फिर प्रश्न होता है । “श्रीरामभद्र “ लक्ष्मण परिचय देते हैं । कुछ देर सोचते हुए फिर प्रश्न करते हैं….तुम कौन हो ? लक्ष्मण प्रभु की ऐसी दशा देखकर कहते हैं …मैं आपका लघु भ्राता लक्ष्मण ….कुछ सोचते हुए श्रीरामभद्र फिर पूछते हैं ….किन्तु हम वन में क्यों भटक रहे हैं ?
नाथ ! इसलिए कि माता वैदेही को हम खोज रहे हैं …वैदेही ? ओह ! लक्ष्मण के मुख से अपनी प्रिया का नाम सुनते ही फिर श्रीरघुनाथ जी विरह सिन्धु में डूब गये थे ।
लक्ष्मण ! इस सूर्य को आज क्या हो गया है ? ये मुझे कुछ ज़्यादा ही ताप दे रहा है ।
श्रीराघवेंद्र जू के मुखारविंद से ये सुनते ही …लक्ष्मण फिर रोने लगे क्यों की इस समय सूर्य कहाँ , अर्धरात्रि है । चन्द्रमा को ही सूर्य कह रहे हैं भगवान श्रीराम । लक्ष्मण को रोते हुए देखा तो प्रभु फिर बोले ….तुझे भी ताप लग रहा है ना ! हाँ , देख ना ! ये हमारे वंश का पूज्य होकर भी हमें तापित कर रहा है । क्यों ? श्रीरामभद्र विरहाकुल हैं । किन्तु भैया ! ये चन्द्रमा है …सूर्य नही । लक्ष्मण की बातें सुनकर तुरन्त श्रीराम बोल उठे …ना , मैं समझता नही हूँ क्या ! ये चन्द्रमा नही है …सूर्य ही है …..चन्द्रमा तो परम शीतल होता है लक्ष्मण ! किन्तु इसका ताप देख …मेरे अंगों को जला रहा है …..किन्तु लक्ष्मण ! चौंक कर श्रीरामभद्र चारों ओर देखते हैं ….फिर पास में जाते हैं …..लक्ष्मण प्रभु की ऐसी उन्मद दशा देखकर विचलित हो उठते हैं ….वो पूछते हैं प्रभु ! अपने आपको सम्भालिये । किन्तु लक्ष्मण की बात का कोई उत्तर नही देते ….वो लक्ष्मण से और प्रश्न करते हैं ।
लक्ष्मण ! मेरे भाई ! ये कमल वन है ना ?
हाँ भैया ! ये कमल वन ही है । लक्ष्मण ने उत्तर दिया ।
फिर क्यों ये कमल खिल नही रहे ?
क्यों ? सूर्य तो उदित हो गए हैं , फिर क्यों कमल नही खिले ?
लक्ष्मण इसका क्या उत्तर देते …..वो बस रो रहे हैं ….प्रभु श्रीराम ही कुछ सोचकर बोले हैं….ओह ! अब समझा …इन कमल वन में ही “मेरी चंद्रमुखी” ( सीता ) होगी ….तभी सूर्य को देखकर भी ये वन खिल नही रहा । क्या करूँ मैं ? लक्ष्मण ! देख ना ! कहाँ गयीं मेरी जानकी ! देख । बस करो सूर्य ! बस करो ! क्यों जला रहे हो मुझे …ये कहते हुए कमल के सरोवर में श्रीरामभद्र कूद गए थे ।
बलिहारी जाऊँ प्रेम की …
जहाँ भगवान को भी प्रेमी बनाकर नचाना ये भली प्रकार से जानता है “प्रेम”।
शेष अब कल –


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