!! एक अद्भुत काव्य – “प्रेम पत्तनम्” !!
( प्रेमनगर 58 – “जहाँ असन्त ही सन्त है” )
गतांक से आगे –
यत्रासन्त एव सन्त : ।।
अर्थ – जहाँ ( प्रेमनगर में ) असन्त ही सन्त माने जाते हैं ।।

* हे रसिकों ! सन्त की परिभाषा क्या ? शास्त्रीय परिभाषा सीधी सादी ये है कि जो संसार से भीत है …और विषय वासना से रहित होते हुए गीता आदि के स्वाध्याय में रत है …इस तरह अपने वासना का जिसने अन्त कर दिया है …वो सन्त है ।
किन्तु प्रेमनगर में तो ये सन्त नही माने जायेंगे …क्यों की प्रेमनगर का सन्त संसार से डरा हुआ नही है ….वो क्यों डरेगा ? सर्वत्र उसी का प्रेमी खेल रहा है …कहीं किस रूप में तो कहीं किस रूप में , कहीं श्रीबाँके बिहारी के रूप में वो रास रचा रहा है तो कहीं श्रीराधाबल्लभ के रूप में उत्सव प्रिय बन बैठा है । डरेगा किससे ? इसके लिए तो संसार जैसी कोई वस्तु ही नही है ….इसी का “साजन”ही सर्वत्र छाया है । वासना से रहित है वो सन्त है ….किन्तु प्रेमनगर के सन्तों में तो वासना भरी हुयी है …..”राधे श्याम से आज मिला दे हमें, सेवा कुँज के गैल बता दे हमें” ……ये वासना भरी पड़ी है …..”है यही अभिलाष श्यामा श्याम के दर्शन करूँ” । अब क्या कहोगे इसे ! क्या ये वासना नही है ? अच्छी बुरी वासना क्या होती है …वासना तो वासना है । अब रही गीता आदि के स्वाध्याय की बात …तो कहाँ गीता आदि का स्वाध्याय ? गीता उपनिषद आदि में तो ज्ञान की चर्चा भी है ….लेकिन क्या प्रेमनगर के लोग ज्ञान आदि को सुनना चाहेंगे ? जो निरन्तर रस में मत्त हैं ….रस में छके पड़े हैं …कभी भाव में उन्मत्त होकर सेवा कुँज में सोहनी लगाते हैं …कभी निधिवन के रज में लोटते हैं ….कभी श्रीराधारमण लाल के आगे नृत्य करते हैं ….वो गीता पढ़ेंगे ? क्यों पढ़ेंगे ? अजी ! उन्हें फ़ुरसत ही नही है ….उन्हें तो अपने “प्यारे प्यारी” को ही लाड़ लड़ाने में इतना सुख मिलता है कि …सारे स्वाध्याय उनके धरे के धरे रह जाते हैं ।
एक श्रीवृन्दावन के सिद्ध महात्मा थे …काशी से कोई आया पण्डित …उन्होंने जब देखा श्रीवन के उन सन्त को …तो उसने कहा …ये कैसा सन्त है ? रात भर जागे रहना ….रोते रहना …सुबह हुयी तो किसी ने लाकर प्रसाद दे दिया ….श्रीराधाबल्लभ जी की मंगला आरती का प्रसाद है लो बाबा ! ये सुनते ही बिना कुल्ला किए ….बिना मुँह धोए प्रसाद पा लिया । काशी के पण्डित ने कहा …ये क्या है ? आप रात भर जागे रहते हो ….सन्त को तो जल्दी सोना चाहिए और जल्दी उठकर भजन करना चाहिए …फिर ये खा रहे हैं ….मुँह भी नही धोया है आपने …अभी उठे ही हो ….काशी के वो पण्डित बहुत बोले ….
ये श्रीवन के सन्त कुछ देर मौन रहे फिर नयनों में अश्रु भर आये इनके ….भैया ! क्या करूँ ! मेरे श्रीबाँके बिहारी ने मुझे कस कर पकड़ लिया है …वो रोने लगे …मैं भी सोना चाहता हूँ पर सो नही पाता …मेरा श्यामसुन्दर मुझे दिखाई देता है ….फिर छुप जाता है ….तब मुझे रोना आता है ….मैं क्या करूँ ? और तुमने कहा ….ये झूठे मुँह खा रहे हो ? वो श्रीवन के महात्मा बोले ….ये प्रसाद है ….ये त्रिगुणातीत है प्रसाद ! तमोगुण नहीं रजोगुण भी नही , और सत्वगुण भी नही है …..ये देह और इनके आचरण तो त्रिगुण बन्धन में हैं ना ! किन्तु मेरे ठाकुर जी का प्रसाद तो अलौकिक है और तीनों गुणों से परे है ….फिर क्या फर्क पड़ता है कि उस अलौकिक प्रसाद को हम नहा कर पायें या बिना नहाये पायें । वो महात्मा बोलते गये ….भैया ! गीता हम पहले खूब पढ़ते थे …विष्णुसहस्रनाम का पाठ करते थे …किन्तु जब से इस कन्हैया ने हमें पकड़ा है सब कुछ छूट गया है ….सब कुछ । ये बताते हुए वो सन्त रो रहे थे ….काशी के वो पण्डित मौन हो गये ….क्या उत्तर दें …स्थिति उच्च है इनकी …इतना तो वो शास्त्री भी समझ गये थे । महात्मा ने स्नान किया ….रज का तिलक धारण किया …सुन्दर रेशमी वस्त्र पहने ….वो पण्डित देख रहे हैं …इत्र लगाया , और इतना ही नही एक माला भी गले में डाली रंगबिरंगी चुनरी भी पहनी ।
“सन्त को थोड़ा वैराग्य धारण करना चाहिए”……काशी के पण्डित ने इतना अवश्य कहा ।
वो सन्त हंसे ….किससे वैराग्य ? अपने बाँके बिहारी से वैराग्य ? ये इत्र फुलेल श्रीराधाबल्लभ जी की प्रसादी है ….इससे वैराग्य ? ये चुनरी मेरी स्वामिनी जू की है …इससे वैराग्य ?
वो सन्त बोले ….भैया ! प्रीतम से वैराग्य करके हम कहाँ जायेंगे । सन्तपने से हमें मतलब नही है …हमें तो अपने प्यारे से मतलब है ….और उसे हम छोड़ नही सकते ।
ये कहकर वो सन्त श्रीराधाबल्लभ जी के दर्शन करने चले गये थे ।
काशी के पण्डित जी देखते रहे …..ये क्या है ?
वो सोच ही रहे थे कि …..बाहर एक बृजवासी रसिया गा रहा था …..
“कौन पावे याकौ पार , प्रेम नदिया की सदा उलटी बहे धार”
बात सही है …..यत्रासन्त एव सन्त : । यानि इस प्रेम नगर में असन्त ही सन्त है ।
यही तो प्रेम नादिया की उल्टी धार …..काशी के पण्डित अब प्रणाम कर रहे थे इस प्रेम नगरी श्रीधाम वृन्दावन को ।
शेष अब कल –

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