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July 21, 2025 6:22 am

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महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (042) : Niru Ashra

महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (042) : Niru Ashra

महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (042)


(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )

भगवान ने वंशी बजायी

बाँसुरी प्राणों को खींचती है। क्यों? बोले कि इसका स्वर प्राण से निकलता है। अगर आप वंशी की ध्वनि ध्यान से सें या वंशी को ध्यान से बजावें, तो प्राणधाम करने की जरूरत नहीं पड़ती है। प्राणायाम से जो सिद्धि मिलती है वह बाँसुरी बजाने से अपने आप मिल जाती है। बिना प्राणायाम के बाँसुरी बजेगी ही नहीं, वह तो ‘पी-पी’ हो जाएगी। बाँसुरी ‘पी-पी’ नहीं होती बड़ी सुरीली होती है और लम्बी खिंचती है। वह दिल को खींच लेती है, दिमाग को खींच लेती है।

बाँसुरी क्यों बजायी? जैसे ज्ञानमार्ग में शब्द के द्वारा ही प्राणी को ब्रह्मज्ञान होता है, परंतु वहाँ आत्मा और ब्रह्म की एकता के बोधक शब्द से ब्रह्मज्ञान होता है; वैसे ही भगवान के प्रेम की प्राप्ति भी शब्द से होती है। दोनों ओर शब्द ही चाहिए; वहाँ जो शब्द है वह सार्थक वाक्य है और यहाँ अस्फुट मधुर ध्वनि है। यहाँ नादात्मक शब्द है। भगवान नाद के द्वारा आकृष्ट करते हैं, इसके लिए पहले वंशी कलध्वनि है। अब देखो भाई! शब्द बोलने वाला भी कुलीन चाहिए। विश्वास- पात्र चाहिए। तो इसका नाम है वंशी। इससे बढ़कर वंशवाला और कौन होगा? वंश, भी चाहिए, केवल मीठी-मीठी बातों में नहीं आ जाना चाहिए। वंश भी उत्तम होना चाहिए, कि इसकी बात विश्वास करने योग्य है कि नहीं। तो भगवान ने इसलिए वंशी ली। इसको हरिवंश बोलते हैं। भगवान का वंश हरिवंश। अच्छा; दूसरी बात देखो इसमें वंशी को मुरली बोलते हैं। मुर माने तुम्हारे दिल में जो ऐंठन है, उसको जो छीन ले, वह है मुरली- वंशी। तुम्हारे भीतर अभिमान है- इतराते हुए चलते हैं कि ए। हमारी ओर देखना मत, हमारे बराबर भला कौन। जो तुम्हारे दिल में गाँठ बन गई है, इस मुर को यह मुरली छीन लेती है। यह मुरासुर है और मुरारी हैं भगवान। ऐसा बोलते हैं कि दिल की गाँठ आठ है। अष्ट पाशों से यह मुरली मुक्त कर देती है-

घृणा, शंका, भयं लज्जा जुगुप्सा चेति पञ्चमी ।
कुलं शीलं च वित्तं च अष्टपाशाः प्रकीर्तिताः ।।

अष्टौ पाशा मुराभिधाः – ‘मुर’ के फंदे है आठ। अरे बाबा, घृणा आ गयी मन में। ये पाप-पुण्य के जो संस्कार हैं मन में, उनसे घृणा आती है। शंका आ गयी मन में- विश्वसनीय है कि नहीं? लज्जा आ गयी मनमें, निन्दा का भाव आ गया मन में, कुल का अभिमान आ गया, शील का अभिमान आ गया, धन का अभिमान आ गया। ये क्या हैं? ये जहाँ अपने प्रियतम भगवान श्रीकृष्ण के मिलने में बाधा डालते हैं, वहाँ इनका नाम होता है- संसार का फंदा।*

ये जो मुड़े हुए तार लगाते हैं, कँटीले तार, इनका आप देखना, भागवत में वर्णन है। जब भौमासुर पर आक्रमण किया था भगवान श्रीकृष्ण ने, तो उस समय मुरपाश से उसकी वह नगरी घिरी हुई थी, खाईं भी थी और दीवार और बिजली थी। सात प्रकार की जो चहारदीवारी थी, पानी की अलग, पत्थर की अलग, आग की अलग, उसमें एक मुड़े हुए तारों की थी। उसी को वहाँ मुरपाश बताया है। उसका एक मिनिस्टर था कि उन तारों को कोई पार न करे। भगवान ने उसको मारा, तब मुरारी हुए। तो ये जो आठ मुर हैं न, हृदय में कुल, शील, धन का अभिमान, घृणा, शंका, भय, लज्जा और जुगुप्सा जो इस मुर को छीन ले, वह है वंशी। दिल में ईश्वर से, भगवान से, श्रीकृष्ण से प्रेम करने मं जो प्रतिबन्धक हैं, जो विघ्न हैं इनको हरण करने वाली है मुरली। मुरली मे विघ्नहारिणी।

जगौ कलं वामदृशं मनोहरम्- भगवान ने बजाया कल कं सुखं लाति इति कलम् जो सबको सुख द इसका नाम कल। कल माने चैन गाँव में बोलते हैं- आज कल नहीं मिला, थोड़ा कल मिल जाय, तो सब ठीक हो जाय। सी कल से कल्य बनता है फिर इसी से कल्याण बन जाता है। ये कल, कल्य, कल्याण शब्दों की परंपरा है। भगवान ने कल बजाया। कल बजाया माने सुखदान प्रारम्भ किया। पहले सबको सुख में सराबोर करदे। बात यह है कि संसार के जीव दुःखी हैं। चाहे बात करें न्याय-शास्त्र की, चाहे योगसास्त्र की, चाहे पूर्वमीमांशा की और चाते उत्तर-मीमांसा की, परंतु हैं दुःखी। इसीलिए जहाँ सुख मिलता है वहाँ इनका आकर्षण होता है। भगवान ने कहा- सच बोलो। कहने से जीव सच बोलने वाले नहीं है। ज्ञान देने से भी ये खिंचने वाले नहीं है।
वेदान्त का सत्संग करके लोग लौटते हैं अपने घर में, तो स्त्रियाँ कहती हैं कुछ ले आये? बोले- लाये तो कुछ नहीं। हम सत्संग करके आये हैं। कहती हैं- वेदान्त का सत्संग लेकर क्या खाओगे? बने रोटी बेदान्त के सत्संग की? इनके घर में तो बेईमानी की रोटी बनती है, वेदान्त की रोटी थोड़े ही बनेगी। वहाँ तो छल की रोटी बनती है, कपट की रोटी बनती है। इनको कितना भी उपदेश करो, पर ये तो महाराज- मूरख हृदय न चेत जौं गुरु मिलैं बिरंचि सम। तब इनको मजा चाहिए, मजा, इनको सुख चाहिए। बोले-लो भाई तुम्हारे लिए नचनियाँ बन जाते हैं, गवैया बन जाते हैं, गवैया बन जाते हैं। बजैया बन जाते हैं। लोगों का मन अपनी ओर खींचने के लिए आखिरी शस्त्र भी श्रीकृष्ण ने छोड़ा- ‘जगौ कलम्।’**

रामचंद्र ने कहा-

लो बाबा धर्म, आओ; नहीं आये। कपिलदेव जी ने कहा- योग लो नहीं आये। जन्मभर में कपिल को कोई शिष्य भी मिला तो अपनी माता देवहूति। हम भी थे, भागवत सुनाते थे, तो हमारी माँ ही सुनती थी, अकेली। माँ श्रोता और मैं वक्ता। भगवान ने सोचा कि ये सब ज्ञान के ले नहीं आयेंगे। थोड़ी कहीं उपाधि, उपहित और अवच्छेदकावच्छिन्न की चर्चा कर दें तो देखो, कई लोगों को नींच आन लगेगी। न कोई धरम लेना चाहता है, न योग लेना चाहता है, न ज्ञान लेना चाहा है, सबको चाहिए मजा। तो कृष्ण ने कहा- इनको मजा दो!

दत्तात्रेय ने कहा- विरक्त हो जाओ। बोले- कौन जाय उनके पास! वैसे लोग बेटा लेने के लिए जाते थे दत्तात्रेय के पास। दत्तात्रेयजी। हमको बेटा दे दो! शुकदेव जी के थाली बजाते हुए लोग उनके पीछे-पीछे घूमते थे- पागल आया, पागल आया। कृष्ण ने कहा- अच्छा बाबू, तुमने हमारी नहीं सुनी। अब देखो- हम तुमको नचाते हैं- ‘जगौ कलम्’। अच्छा अब एक स्त्रीवर्ग जो है, माफ करे, बात हम वेद की कह रहे हैं। श्रीवल्लभाचार्य जी महाराज ने उद्धृत किया है; क्या? कि स्त्रियों की रुचि गायक में, गाने वाले में होत है। यह मंत्र है- गायन्तं हि स्त्रियः कामयन्ते। स्त्रियाँ गाने वाले पुरुष को चाहती हैं- स्त्रियों से हमारा मतलब स्त्री-शरीर से नहीं है, स्त्री-मनोवृत्ति वाले पुरुष भी गानेवालों को चाहते हैं; क्योंकि संगीत की जो ध्वनि है वह रस लेकर निकलती है। ‘जगौ कलम्’- और कृष्ण ने तो उसमें मंत्र मिला दिया। मंत्र क्या है?

‘क्लीं’। एक अक्षर का मंत्र है ‘क्ली’ और कृष्ण के पहले हो, तो क्लीं कृष्ण; पीछे हो तो कृष्ण क्ली; यह भी मंत्र हैं। क्लीं कृष्णाय नमः यह भी मंत्र है. क्लीं कृष्णाय गोविन्दाय गोपीजनवल्भाय स्वाहा यह भी मंत्र है। यह क्लीं जो है यह काम बीज है। इसका अर्थ होता है- ‘क माने सुख, ले माने जीवन;’ ‘ई’ माने शक्ति और ‘म’ माने प्रेम। जब भगवान के सामने बोलते हैं- क्लीं, तो इसका अर्थ होता है- तुम मेरे सुख हो, तुम मेरे जीवन-सर्वस्व हो, तुम्हारा ही बल है- भरोसा है, और तुम्हारी मेरे प्यारे हो। भगवान ने जब ‘कल’ गाना करना शुरू किया, तो मानो गोपियों से कहा- ‘गोपियों! तुममें ही मेरा सुख है, तुम्हीं मेरी जीवन-सर्वस्व हो, तुम्हीं मेरी शक्ति हो और तुम्हीं मेरी प्यारी हो।’ जब भक्त लोग इसका गान करते हैं तो भगवान को क्लीं बोलते हैं और जब भगवान ही इसका गायन करते हैं तो भक्त ‘क्लीं’ हो जाते हैं।

क्रमशः …….

प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹

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