!! इति “प्रेमपत्तनम्” !!
( प्रेमनगर – उपसंहार )
गतांक से आगे –
हे रसिकों ! “प्रेमपत्तनम्” राज्य में अपनी ओर से “मधुरमेचक” नामक राजा की महारानी रति ने नगर के नियमों में पूरी तरह हेर फेर कर दी थी …सब उलट पुलट कर दिया था । जैसा कि आप लोगों ने इसे पढ़ा ….बाहर जिसे धर्म कहते हैं उसे ही “प्रेम नगर” में अधर्म कहा जाता है ….अहंकार ही यहाँ विनम्रता का सूचक है ….स्त्रियाँ ही यहाँ पुरुष हैं ….आदि आदि । स्वाभाविक है इस नगर में पाप और पुण्य नही चलते …क्यों की जहाँ मन होगा वहीं पाप होंगे और वहीं पुण्य होंगे …किन्तु यहाँ मन ही किसी के पास नही है …अपने प्रीतम को ही मन दे दिया है यहाँ के लोगों ने , फिर कहाँ पाप कहाँ पुण्य !
ये काव्य “प्रेमपत्तनम्” लघु होने के बाद भी बहुत गूढ़ रहस्य इसमें हैं …जो रसिक हैं वो इसको समझेंगे । छोटे छोटे सूत्र जैसे – “यहाँ सुख ही दुःख है और दुःख ही सुख है” इसमें प्रेम नगर का ही दर्शन होता है ….जो प्रेम में डूबा है …वही इनको समझ सकता है ।
मैं तो अपने साधकों से कहूँगा …..इन सूत्रों को ध्यान में रखा जाये ….और फिर अपने प्रिया प्रीतम को लाड़ लड़ाया जाये ….तब प्रेम रहस्य अपने आप प्रकट होते जायेंगे ।
ये “प्रेमनगर” अपने आप में अद्भुत है ….ये धरा ही विलक्षण है …प्रेम के अश्रुओं से सींची गयी है ये भूमि , इस धरा पर हमें पहुँचना होगा ….इस प्रेमनगर की धरा की माटी अपने माथे से लगाना होगा …यहाँ उन्मत्त होना ही गम्भीर होना है …यहाँ रोना ही हंसना है …या यहाँ गाना ही रोना है ….क्या कहूँ मैं इस प्रेम नगर के बारे में ।
मध्वगौडेश्वर सम्प्रदाय के परमभागवत श्रीगदाधर भट्ट जी के ज्येष्ठ पुत्र रसिकोत्तंस जी …जिन्होंने ये “प्रेमपत्तनम्” नामक लघु ग्रन्थ लिखकर रसिकों का बहुत भारी उपकार किया है । मुझे एक दिन शाश्वत ने लाकर ये ग्रन्थ दिया , तो मैंने इसे पढ़ा …इतना आनन्द आया कि मैं कुछ कह नही सकता । मन में आया …इस पर कुछ लेखनी चलाऊँ ….मेरे श्याम सुन्दर ने प्रेरणा दी …और मैंने लिख लिया !
इस ग्रन्थ के उपसंहार में …लेखक श्रीरसिकोत्तंस जी लिखते हैं ….”मुझ अद्भुत के द्वारा , अद्भुत ग्रन्थ की रचना हुई “ । अद्भुत ही अद्भुत को लिख सकता है ….बड़ी ठसक के साथ लेखक कहते हैं …जब प्रेम अद्भुत है तो उस पर लिखने वाला सामान्य कैसे हो सकता है ।
मुझे तो कुछ नही चाहिए, लेखक लिखते हैं …..बस प्रेमपत्तनम् ( श्रीवृन्दावन ) के राजा ( श्याम सुन्दर ) मुझे ख़रीद लें ….और महारानी रति ( श्रीराधारानी ) निज महल में मुझे दासी रख लें ….मुझे यही चाहिए ।
मुझे भी यही चाहिए ….कि इसी प्रेमनगर श्रीधाम वृन्दावन में ही मुझे यहाँ के राजा बसा लें …बाहर जाने ही न दें । यहीं रख लें । अपना सेवक बना कर रख लें ….निज सेवक बना लें ।
मेरा और कोई प्रयोजन नही है लिखने का ….हे प्यारे ! तू जैसे रीझे मैं रिझाऊँगा ।
तुझे हंसी आती होगी ना ….मेरे द्वारा किए जा रहे विमल-प्रेम की दुर्गति पर ….क्या लिखूँगा मैं इस प्रेम पर ….अनधिकार चेष्टा पर मुझे क़ैद कर दे ना …अपने इस प्रेमनगर के कारागार में …आजीवन क़ैदी बना दे …..बस यही चाहता हूँ मैं तो । मेरा तो जो भी है तू ही है । तू ही बने रहना …किसी को आने मत देना मेरे जीवन में ….ठीक है ?
मेरे प्रेम स्वीकार करना ।
ये प्रेमनगर , ये प्रेमपत्तनम् ….मेरे जीवन सर्वस्व श्रीश्यामसुन्दर को समर्पित ।
इति प्रेमपत्तनम् ।


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