!! एक अनूठा प्रेमी – “वो कल्लू बृजवासी”!!
“जा दिन सौं मनुष्य ठाकुर जी कौ आश्रय लै कें भजन में लग जाय…वाही दिन सौं वाकौ शरीर ठाकुर जी कौ है जाये है । वाकु ठाकुर जी अपनौ मान लेय हैं । कछु करिवे की आवश्यकता ही नही हैं …बस , ठाकुर जी कूँ अपनौं मान लेओ । याद रखियों , मात्र ठाकुर ही हमारौ है …बाकी तो मिथ्या हैं और सब झूठ है । घर कौ कार्य करो …किन्तु जे घर मेरौ नही हैं …जे तो मेरे ठाकुर जी कौ है ….मोहे याकी सेवा करनी है ….जा भावना सौं रहो ।
दो दिन से मैं श्रीगोकुल जा रहा हूँ …गया था गोपाष्टमी को …सोचा कि निकट है अपने श्रीवृन्दावन से श्रीगोकुल , और गोपाष्टमी का दिन भी है ….कन्हैया” के दर्शन करके आजाएँ ।
मैं ,और मेरे साथ कुछ मित्र थे ..हम गये …पहले गोकुल में कन्हैया को पालना झुलाया …फिर ब्रह्माण्डघाट के दर्शन किये ….फिर चिन्ताहरण महादेव के …सोमवार भी था …आरती पूजन सब कुछ किया ।
आहा ! श्रीयमुना जी का किनारा , दीप दान करते हुए वहीं बैठ गए …कुछ देर ध्यान किया …नाम जाप आदि किया ।
“तोहे माखन मिसरी देय दूँगी , चराय ला मेरी गैया”
बहुत मीठी आवाज है , वो गैया लेकर लौट रहा था ….उस ग्वाले की आयु होगी …लगभग चौदह वर्ष की । लाला ! क्या नाम है तेरा ? मैंने ही पूछा था । उसने हमें देखा ….फिर बोला …वृन्दावन ते ? मैंने कहा …हाँ । बहुत बढ़िया गाते हो तुम तो । साथ के एक मित्र ने ये भी कह दिया …किन्तु उसे कोई मतलब नही था …वो हंसते हुए हमारे पास बैठ गया ….मैंने कहा ….गैया को अपनी जगह छोड़ आओ ।
वो बोला …मेरौ घर वा स्थान पे है …कोई नही …कछु देर सत्संग है जाये ।
उस बालक के मुखमण्डल में तेज था …रंग साँवला था फिर भी सुन्दर था …बातों में चहक थी किन्तु बाहर से वो गम्भीर लगता था ….गले में तुलसी की कंठी थी …तुम्हारा नाम ?
“कल्लू”…..वो बालक बोला था ।
कारौ हूँ ना , जा लिये मेरी मैया जे नाम ते बुलावै । वैसे मेरौ नाम “कन्हैया”है ।
वो बोलता भी बहुत मधुर था ।
कल्लू ! कल्लू ! आवाज पीछे से आयी ….इसी की मैया ने इसे बुलाया था ।
रुक जा , आय रह्यो हूँ …मेरी मैया है , चैन नाँय या कूँ …हर समय कल्लू ,कल्लू कहती रहे ।
तुम्हारे पिता जी क्या करते हैं ? मेरे साथ के व्यक्ति ने पूछा ।
वो तो “गोलोक धाम” चले गये …..ये कहते हुए उसने ऊपर देखा था , आकाश में ।
हम चुप हो गये …दुःख हुआ हमें ।
“मेरी बहन भी पाँच महीना पहले ही मरी ।
बड़ी सहजता से वो बोला था । ओह ! हम लोग कुछ देर के लिए मौन ही हो गये ।
ये प्रश्न कुछ देर में हमने किया था …”घर में अब कौन हैं “? मैं मैया और ठाकुर जी । वो कितना सहज था …वो सहज ही ले रहा था अपने साथ घटी दुर्घटनाओं को भी …..मुझे अब पक्का लगा ये कोई सामान्य व्यक्ति नही है ….सामान्य ऐसा हो ही नही सकता ।
किन्तु आप लोग आश्चर्य चौं कर रहे हो ? मर्त्य लोग याहि सौं कहे हैं ना ? या पृथ्वी सौं ही मर्त्य लोक कहें हैं …सबकूँ मरनौं ही है…….ये कहते हुए उसका मुखमण्डल कितना शान्त था ।
हम उसकी बातों को ऐसे सुन रहे थे जैसे वो कोई सिद्ध हो । हाँ , वो सिद्ध ही था …नही नही सिद्धों का सिद्ध था ..क्यों कि वो बृजवासी था । मैं तो उसे देखता ही रहा । चौदह वर्ष का वो बालक ..कितनी प्रगति थी उसकी आध्यात्मिक मार्ग में ।
क्या करते हो ? भजन आदि कुछ तो । मैंने उससे अब पूछा ।
वो हंसा मेरे इस प्रश्न पर …फिर बोला …..”भजन मतलब सेवा, किन्तु मेरौ तो प्रयास यही रहे है कि अपने ठाकुर जी के सेवा योग्य जीवन तो पहले बनै !
मुझे ये उत्तर बड़ा ही प्रिय लगा उसका , मैंने उससे पूछ लिया ….कैसे जीवन सेवा योग्य बनें ?
खाय लें , पी लें , आवश्यकतावश बोलनौ परै तो बोल लें , शरीर के लिए जितने विश्राम की आवश्यकता है उतनौं विश्राम कर लें । देखो , जो जहाँ हैं , जा कुँ जो कर्तव्य प्राप्त है …अपने वा कर्तव्य कौ पालन करनौं । भागनौं नहीं । सुख दुःख कुँ सहनौं । जीवन है , सुख दुःख आते ही रहें ।
ओह ! क्या बोल रहा था वो बालक ….मेरे साथ के मेरे मित्र भी चकित थे ।
“मैं नाँय करूँ भजन “! वो बड़ी ठसक से बोला था ।
क्यों ? मैंने पूछा ।
तो उसने उत्तर दिया……मेरौ बड़ो भैया है गोपाल …..सब छोड़ जायेंगे पर मेरौ गोपाल भैया मोकूँ नाँय छोड़ेगो । जन्म जन्म तक नाँय छोड़े । बस मेरौ भजन तो यही है ….अपने कर्तव्य कौ पालन करनौं ….भागनौ नही । वो ये बात दूसरी बार बोला था । मैंने उसे छेड़ा , पूछा – ये बात तुमने दूसरी बार कही है ….कि भागनौं नही । क्यों ?
अब उसके नेत्रों से अश्रु बह चले थे …,..किन्तु मुख से मुस्कुराहट उसने हटने नही दी थी ।
“मेरे बाबा जब गोलोक वासी भये , तब मेरी आयु दस वर्ष की थी ….पीलिया ते वो पधारे , मोकूँ तब लग्यो कि अब वैराग्य धारण कर लऊँ ….मैं रात भर सोतो नहीं , मन में आतौ निकल जाऊँ वन में , पहाड़न में “। वो कुछ देर के लिए मौन हो गया था , वो बोला नहीं । हम लोग उसकी बातों को बड़े ध्यान से सुन रहे थे । वाही रात कुँ …मेरे भैया सपने में आये …..कौन भैया ? मैं भूल गया था कि इसके भैया तो गोपाल हैं ….”गोपाल भैया”…..उसने फिर बताया ।
उनने सपने में आकर कह्यो ….कल्लू ! तू भागे मत , कहाँ जावैगो या बृज कुँ छोड़के ? और मैं तो तेरे संग ही हूँ ना ! बस वा सपन के बाद ….मेरे मन में भागवे कौ विचार ही बन्द है गयौ ….अरे ! ठाकुर जी पे तुम्हें विश्वास नही है का ? अपने ठाकुर पै पूर्ण विश्वास रखनौं । इतनौ विश्वास कि ….कछु भी है जाये पर मन मैं यही आवै ….मेरौ गोपाल हित ही करेगौ । बस जा विश्वास कुँ धारण करनौं ।
तुम कितना पढ़ें हो ? मेरे साथ के मित्र ने उससे प्रश्न किया ।
तीन , उँगली दिखाई उसने ।
पढ़े नही ? नही , इच्छा ही नही हुई , बड़ी लापरवाही से बोला था वो ।
क्यों ? मैंने पूछा ।
इतनौं क़ीमती समय पढ़ाई में हम , हर जन्म में बर्बाद करैं हैं ….इतने समय मैं तो “गोपाल ते बातैं ही कर लौं , खेल लो , हंस लो “। ये कहते हुए उसके मुख में एक अद्भुत चमक आगयी थी ।
शास्त्र तो पढ़े होंगे ? ये प्रश्न भी उससे किया गया था ।
जे प्रश्न चौं कर रहे हो ? उसने हमसे ही पूछ लिया ।
क्यों कि ठाकुर जी के प्रति इतना अनुराग है तुम्हारा …तो शास्त्रों का स्वाध्याय तो होगा ?
तुम लोगन कुँ कहा लगे …कि गोपाल कौ अनुरागी , कोई शास्त्र अध्ययन ते बन जावैगो ? ओह ! इस प्रश्न का हम क्या उत्तर देते । मैंने कछु नाँय पढ़े……ना भागवत , ना गीता । समझ में ही नाँय आवे जे गीता और भागवत । वो बोला ।
तो मैंने उससे फिर पूछा …क्या समझ में आता है ? वो अब उठ गया था ….क्यों की उसकी मैया उसे तीसरी बार आवाज़ दे रही थी । क्या समझ में आता है ? मैंने उससे फिर पूछा ….उसने हंसते हुए गा दिया “गोविन्द मेरौ है , गोपाल मेरौ है“, ये कहते हुए उन्मत्त सा हो गया था । वो जाने लगा …तो मैंने भी उससे सहज कहा ….चौं कल्लू भैया ! रोटी नाँय खवावैगो ?
वो हंसते हुए बोला …भैया ! माँग के खानौं पड़े …यहाँ तो ब्रह्म हूँ माँग के खातौ ।
मैं तुरन्त उठ गया ….और उसके साथ चल दिया था…मेरे साथ के सब चल दिए थे उस अनूठे बृजवासी के साथ , कल्लू के साथ । प्यारा है कल्लू ।
शेष अब कल –


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