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July 20, 2025 4:52 pm

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महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (046) & (047) : Niru Ashra

महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (046) & (047) : Niru Ashra

: महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (046)


(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )

गोपियों ने वंशी-ध्वनि सुनी

एक जगह भागवत् में लिखा है कि जब बाँसुरी लेकर श्रीकृष्ण उसमें अपना स्वर फूँकते हैं तो- जातहर्ष उपरम्भति विश्वम्। वंशी की ध्वनि से मानो संपूर्ण विश्व का आलिंगन करते हैं। हाथों से आलिंगन नहीं करते हैं, अपनी वंशी ध्वनि से संपूर्ण विश्व का आलिंगन करते हैं। लोगों को वंशी-ध्वनि का मधुर-मधुर स्पर्श कान में त्वचा, हृदय में होता है। ‘वृहद् ब्रह्म संहिता’ में वंशीध्वनिका विलक्षण वर्णन किया है। कहते हैं- जिसके कान में वंशीध्वनि पड़ती है, उसकी सब इन्द्रियाँ अपना स्थान छोड़कर कान में चली जाती हैं। मानो आँख अपने गोलकमें- से नहीं देखती है, वह कान से मिल जाती है, देखती नहीं, जीभ स्वाद नहीं लेती, त्वचा छुती नहीं और हृदय कलेजे के पास नहीं रहता, वहाँ से चलकर कान में आ जाता है।

हृदय वंशी सुनता है, नासिका वंशी सूघँती है, जिह्रा वंशी का रस लेती है, त्वचा वंशी का स्पर्श प्रास करती है और नेत्र वंशीध्वनिका रूप देखते हैं। ऐसी तन्मयता, होती है कि केवल लोक में ही नहीं कि मोर नाचने लगे वंशी ध्वनि सुनकर, कोयलें कुहुक- कुहुक करनें लगीं और वृक्षों से मधुक्षरण होने लगा, नदियों का बहना बन्द हो गया, पाषाण द्रवित हो गये, गायों का घास चरना बन्द हो गया, देवियों के अपने वस्त्र की विस्मृति हो गयी। ये केवल बाहरी बात ही नहीं, यह हुआ कि जैसे- गोपियों ने वंशीध्वनि सुनकर वृन्दावन छोड़ा वैसे श्रीकृष्ण की वंशी ध्वनि सुनकर के सारी इन्द्रियाँ अपना स्थान छोड़ देती हैं, अपना विषय छोड़ देती हैं और हृदय अपना स्थान छोड़ देता है। शब्दमय हो जाती है सृष्टि, सृष्टि वाङ्मयी, शब्दामयी हो जाती है। नारायण। तब गन्ध नहीं, रस नहीं, रूप नहीं, स्पर्श नहीं, केवल शब्द, शब्द-

अनादिनिधनं ब्रह्म शब्दरूपं यदक्षरम्।
विवर्ततेsर्थ भावेन प्रवृत्तिः जगतो यतः

भगवान की वंशीध्वनि से निकला हुआ जो शब्द है, वह लोगों के दिल से मिलकर प्राण से मिल जाता है। वंशीध्वनि में तो प्राण है न।*

कुछ वाद्य ऐसे होते हैं कि डण्डा मारने पर बजते हैं, जैसे नगाड़ा, तबला, हाथ से पीटो, मृदंग- हाथ से पीटो, पीटने पर बजते हैं। काँस को काँसे से आपस में टकराओ तो झाँझ बजती है। सितार को किन-किन-किन करो तब बजता है। सारंगी को रगड़ो तब बजती है। ये तो महाराज। पीटपीटकर बजने वाले सब बाजे हैं। मगर बाँसुरी सांस से बजती है और अपने प्राणों से बजायी जाती है। वंशी तो वह वाद्य है जिसमें श्रीकृष्ण अपना प्राण उड़ेलकर दूसरों के कान में डाल देते हैं क्या अर्थ हुआ? कि हमारी प्रेयसी। अब ये प्राण चाहते कि तुम्हारे शरीर में रहें। ये प्राण तुम्हारे शरीर में बसना चाहते हैं। बाँसुरी के द्वारा निकल करके वे करुणारुण लोचन, करुणावरुणालय भगवान् अपने भक्तों के प्रेम के वशीभूत हो करके अपने प्राण को अपने भक्तों के हृदय में भर रहे हैं।

श्रीवल्लभाचार्य जी महाराज ने एक स्थान पर लिखा- अमृत तीन प्रकार का होता है। एक तो प्राणीभोग्य अमृत होता है, जैसे-जौ में, गेहूँ में, अंगूर में, घास में, फल में, फूल में, जो अमृत होता है, वह चंद्रमा से बरसकर आता है; चंद्रामृत यह प्राणी भोग्य अमृत है। एक-दूसरा अमृत होता है- देव-भोग्य। वह समुद्र-मन्थन से निकला है, स्वर्ग में रहता है। एक तीसरा अमृत होता है भगवदीय, भगवत-योग्य-अमृत, जिसको केवल भगवान् भोगते हैं। भगवान् किस अमृत का भोग करते हैं? अगर भगवान् किसी दूसरे का भोग करते हैं, तो वही भगवान् से मीठा हो गया, परंतु भगवान् किसी दूसरे का भोग करते हैं, तो वही भगवान् से मीठा हो गया, परंतु भगवान् से मीठा कुछ है नहीं- रसो वै सः रसं ह्येवायं लब्ध्वा आनन्दीभवति आनन्दं ब्राह्मणो विद्वान न बिभेति कुतश्चन- परमात्मा से बढ़कर तो कोई आनन्द, रस है नहीं। अब वह परमात्मा किस रस का भोग करेगा?**

भगवान ने कहा- हमारे लिए हमसे भढ़कर तो कोई रस है नहीं हम भोग नहीं करेंगे तो लीला बनेगी नहीं। इसलिए अपने हृदय में विद्यमान स्वरूपभूत जो रस है, आनन्द-रस, उसको भगवान ने बाँसुरी के द्वारा गोपियों के कान में भर दिया और कान के द्वारा उनका हृदय भर गया; जब वे आनन्द रस से पूर्ण हो गयीं। तब वह रस उनके मुख से छलका, उनकी आँख में- से छलका, उनके कपोलों से छलका, उनका हृदय आनन्द से भर गया। उनके रोम-रोम से आनन्द के फुहारे छूटने लगे- बौछारें उठने लगीं। तब वह भगवान ने कहा कि यह आनन्द हमारा भोग्य है। भगवद्-भोग्य आनन्द स्वयं भगवान हैं। तो पहले भगवान ने बाँसुरी के द्वारा अपने आनन्द को गोपियों के जीवन में भर दिया और फिर यह रासलीला की।

निशम्यगीतं तदनंगवर्धनम्
ओंकारार्थमुदीययन् विजयते वंशीनिनादः शिशोः ।
ध्यानं वलात् परमहंसकुलस्यभिन्दन् निन्दन् सुधामधुरिमाणमधीरधर्मा ।।

ओंकार का समूचा अर्थ निगल लिया बाँसुरी ने और संपूर्ण जगत् ब्रह्म हो गया। छूट गया ध्यान सनकादिकों का! छूट गया अमृत देवताओं का। वंशी ने कहा- अब दुनिया में काम का राज्य रहेगा? बोले- कि जब लोग विषय को चाहते हैं तब काम का राज्य गलत होगता है और जब लोग भगवान को विषयवस्तु बना लेते हैं, तब काम का राज्य सही होता है। विषय के भेद से कामना निकृष्ट है और विषय के भेद से कामना उत्कृष्ट है। कामना के विषय भगवान हैं तो कामना उत्कृष्ट है। बोले- हम भगवान श्रीकृष्ण से प्रेम करते हैं। यह विषयानन्द नहीं, ब्रह्मानन्द है, ब्रह्मानन्द नहीं भजनानन्द हैं; तुमको, प्रेमानन्द मिलेगा।

निशम्य गीतं तदनंगवर्द्धनं व्रजस्त्रियः कृष्णगृहीतमानसाः ।
आजग्मुरन्योन्मलक्षितोद्यमाः स यत्र कान्तो जवलोलकुण्डलाः ।।

क्रमशः …….

प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹
: महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (047)


(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )

गोपियों ने वंशी-ध्वनि सुनी

अब वह वंशीध्वनि श्रीकृष्ण के हृदय की वेचना के साथ, श्रीकृष्ण के हृदय के माधुर्य के साथ, श्रीकृष्ण के हृदय में जो आनन्द है, रस है, प्रेम है उसके साथ- वह स्फुट और मधुर कलध्वनि गोपियों के कर्ण-कुहर से उनके हृदय में प्रविष्ट हुई। निशम्य- गोपियों ने सुन लिया। कैसी ध्वनि? तदनंवर्द्धनम्- तद्गीतं अनंग वर्द्धनम्। ‘अनंगवर्द्धनं तद् गीतं निशम्य’। बोले- बाबा। यह क्या परमार्थ की बात है? अनंगवर्द्धन माने होता है काम को बढ़ाने वाला।

सीधे-सीधे यही उसका अर्थ है। अर्थ कभी-कभी बदलते हैं, बदलते तब हैं जब पंडित लोग चाहते हैं, क्योंकि वैयाकरण लोग व्युत्पत्ति के प्रेमी होते हैं। जो भक्त लोग होते हैं, भागवत लोग होते हैं, वे भाव के प्रेमी होते हैं। तो, ‘अनंगवर्द्धनं’- अनंग माने काम, बोले- भाई। ये काम की इतनी क्या महिमा है? भगवान् की वंशीध्वनि काम बढ़ाती है? अरे! बाबा, तुमको काम तो दिखाता है, यह क्यों नहीं दिखता कि किसके लिए काम बढ़ाती है? किसके लिए? वैसे तो श्रुति में आत्मकामः शब्द का भी प्रयोग होता है, पर्याप्त काम शब्द का पभी प्रयोग होता है।

सृष्टि के पूर्व जब महाप्रलय में परमात्मा था केवल, मायासहित, वहाँ वर्णन आता है- कामस्तग्र समवर्तत अधिमनसः, कामस्तग्रे समवर्तत- काम था वहाँ भी, किस काम को बुरा मानते हो? बोले लोक में जो धर्म के विपरीत काम हो उसका बुरा मानते हैं क्योंकि लोक में धर्म और अधर्म का विभाग है। तो क्या परमेश्वर में धर्म और अधर्म का विभाग है? जैसे- दिन रात का भेद तो धरती पर है पर सूर्य में नहीं है; विचार्यमाणे तरणाविवाहिनी- परमेश्वर में बंध और मोक्ष का विभाग नहीं है, परमेश्वर में दर्म और अधर्म का विभाग नहीं है, ये तो लौकिक हैं- मानुषेसु महाराज धर्माधर्मौं प्रवर्तत। अरे बाबा। सौ-सौ जन्म के जब पुण्य इकट्ठे होते हैं तब श्रीकृष्ण की प्राप्ति की इच्छा में उत्पन्न होती है; उसी को काम बोलते हैं। बोले नहीं-नहीं, हमको काम नहीं चाहिए। एक बार श्रीउड़ियाबाबाजी महाराज से किसी ने कहा- महाराज, हम तो ब्रह्म हैं, हमको ब्रह्माकार वृत्ति की क्या जरूरत है?*

तो बोले- कि बेटा अब ब्याह कर लो! क्योंकि जब ब्रह्माकार वृत्ति की जरूरत तुमको नहीं है और कुछ न कुछ किए बिना मानोगे नहीं, दुकान करोगे, नौकरी करोगे, तो ब्याह कर लो। तो, यदि तुमको कृष्ण-काम नहीं चाहिए, प्यारे कृष्ण की कामना तुमको नहीं चाहिए, तो दुनिया का काम चाहिए। अरे, रुपये की वासना तुम्हारे मन में, क्रोध की वासना तुम्हारे मन में; भोग की वासना तुम्हारे मन में, कुटुम्ब की वासना तुम्हारे मन में, देह की वासना तुम्हारे मन में, स्त्री, पुत्र, ऊँची कुरसी, प्रतिष्ठा की वासना तुम्हारे मन में, सुख-सुविधा की कामना तुम्हारे मन में, और जब श्रीकृष्ण-विषयक कामना की चर्चा आवे, तो कह दो कि हमको काम नहीं चाहिए? इसका मतलब यह हुआ कि हम संसार की कामना को अपने हृदय में रखना चाहते हैं और भगवत्- चर्चा की कामना को नहीं रखना चाहते। अरे, यह तो वह काम है, भगवत्- काम, जो संसार के काम को मिटा दे। जो उसको चाहेगा वह दुनिया की चीज को कैसे चाहेगा?

जिसके दिल में वह बस जाएगा, जो उसको पसंद कर लेगा कि हम उससे ब्याह करेंगे, उसकी रुचि दुनिया में किसे से ब्याह करने की कैसे होगी? वह तो सम्पूर्ण वासनाओं को मिटाने वाली वासना है। इसलिए श्रीकृष्ण की वंशी गोपियों के हृदय में जिस काम का उदय किया वह काम, संसारी काम नहीं संसारी कामना को मिटाने वाला काम है, उससे संसारी कामना मिटती है। चलो श्रीकृष्ण की लीला में, वंशीध्वनि सुनो- निशम्य गीतं तदनंगवर्द्धनम् ‘तदनंगवर्धनम्’ माने तत्संबंधी अनंगवर्द्धन ‘तत्सबंधिनः अनंगस्य वर्द्धनम्, तत्संबंधिनं अनंग वर्द्धयति इति तदनंगवर्द्धनम्’ यह वंशीध्वनि कृष्ण संबंधी जो प्रेम है उसको बढ़ाने वाली है।

उद्धवजी ने प्रश्न किया- कृष्ण! गोपियों में क्या विशेषता है जिसके कारण तुम उन्हें चाहते हो? देखो- उद्धवजी ने गान किया-

या दुस्त्यजं स्वजनमार्यपथं च हित्वा, भेजुर्मुकन्दपदवीं श्रुतिभिर्विमृग्याम् ।।

श्रुतिभिर्विमृग्याम्- अभी वेद जिसको ढूँढते हैं। आज ही मैं पढ़ रहा था पद्मपुराण में उग्रतपा और श्रुततपा बड़े-बड़े ऋषि-महर्षि अष्टादशाक्षर मंत्र का लाखों-करोड़ों की संख्या में जप करके जन्म जन्मान्तर में गोपी-भाव को प्राप्त होते हैं।**

जाबालि ऋषि गये और उन्होंने देखा कि एकान्त जंगल में सरोवर के तट पर एक देवी ज्योतिर्मयी तपस्या कर रही है। दो कल्पतक उन्होंने प्रतीक्षा की कि यह तपस्या करके उठे। जब उठी तो बड़ी दुःखी, आँख से आंसू गर रहे, जाकर प्रणाम किया, बोले- जब उठी तो बड़ी दुःखी, आँख से आसू गिर रहे, जाकर प्रणाण किया, बोले- देवी! मैं बहुत दिनों से प्रतीक्षा कर रहा हूँ; आप कौन हैं, क्या कर रही हैं?

पद्मपुराण में यह कथा है। तो बोलीं मैं ब्रह्मविद्या हूँ, मैं श्रीकृष्ण- रस चाहती हूँ; नहीं मिला, तो अब इस सरोवर में प्रवेश करूँगी। तो उन्होंने कहा देवि! प्रवेश करने के पहले हमको उपासना बताती जाओ जो तुम कर रही थी। ऐसी श्रीकृष्ण-रति ऐसा श्रीकृष्ण-रस! देवी ने उनको मंत्र-बताया, काम-बीजपूर्वक गोपीजनवल्लभ मंत्र का उपदेश किया। देवी ने कहा- मैं इस मंत्र का जप करती हूँ और यह ध्यान करती हूँ-

स्मरेत वृन्दावने रम्ये, गोपगोभिरावृतम्। गोविन्दं पुण्डरीकाक्षं-

गोपियाँ प्रेम कर रही हैं, चाह रही हैं, दौड़ रही हैं।

एक राजा के बेटा हुआ। बारह वर्ष का होने पर ब्राह्मणों के द्वारा उसको श्रीकृष्ण-दीक्षा दिलवायी गयी। श्रीकृष्ण की मूर्ति सामने रखी। पूजा करने लगा। पूजा करते-करते उस श्रीकृष्ण-मूर्ति में- से भगवान् निकले- दोनों हाथ से पकड़कर उसको हृदय से लगा लिया। कृष्ण ने कहा- क्या चाहिए? राजकुमार बोला- जब हृदय से तुमने लगा लिया तो मैं अब पुरुष न बनूँ। अब मैं गोपी हो जाऊँ। नारायण।

‘व्रजस्त्रियः’- शुकदेवजी महाराज पूर्वकल्प में व्यास के मायादेवी से प्रकट हुए। प्रकट होते ही जन्म से ही कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, कृष्ण कहें और व्याकुल होकर कृष्ण के लिए निकल पड़े। व्यास ने बहुत मनाया, नहीं माने, चले गये; घनघोर जंगल में जाकर कामबीजपूर्वक क्लीं कृष्ण क्लीं, क्लीं कृष्ण क्ली-ज्यों मंत्र का जप प्रारम्भ किया- भगवान् प्रकट हो गये। बोले- महाराज। आप अकेले क्यों? हमको तो साँवरे-साँवरे रूप के साथ वह गोरा रूप भी चाहिए। भगवान् बोले- शुकदेवजी, ऐसे नहीं बनेगा। वह रूप तो तब दिखेगा जब तुम शुकी बन जाओ।

क्रमशः …….

प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹

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Author: admin

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