: !! एक अनूठा प्रेमी – “वो कल्लू बृजवासी” !!
भाग – 2
गतांक से आगे –
या संसार में एक जैसी परिस्थिति नही रहै है । सुख दुःख , हानि लाभ , यश अपयश ….जे सारे द्वन्द आवैं …आवैंगें । इनकूँ अपने कर्मन कौ फल और ठाकुर जी कौ मंगल विधान मान कै सहते भये चलौ , इनपै ध्यान मत दो । जा व्यक्ति कुँ भगवान के मंगल विधान पे विश्वास नही हैं …वो ही सुख दुःख भोगतौ भयो संसार चक्र में घूमतौ रहे है । और जा कुँ ठाकुर के मंगल विधान पे भरोसौ है …. वाकूँ तो आनन्द ही आनन्द है । चारों ओर आनन्द है ।
देखौ …जो भगवान ते माँगतौ रहे ..जब देखो तब जीवन के कमियन कुँ गिनातौ रहे ….हाय हाय .. करतौ रहे है …बु भगवान कुँ प्रिय नही लगै है । भगवान कुँ प्रिय तो वो ही है …
“जाहि न चाहिअ कबहुँ कछु , तुम्ह सन सहज सनेहु ।
बसहुँ निरन्तर तासु मन , सो राउर निज गेहु” ।।
वो गोकुल का बालक “कल्लू बृजवासी” , हम सबको एक परम सिद्ध महात्मा के रूप में दिखाई देने लगा था, उसकी बातें , उसकी गम्भीरता ।
मात्र चौदह वर्षीय तो था वो और उसकी माता ! वो तो बहुत भोली थीं ।
मैया ! जे वृन्दावन के हैं ….कल्लू अपनी कुटिया में जाते ही अपनी मैया से हमारा परिचय कराने लगा था । आओ …बैठो । हम लोगों को आसन दिया और हम लोग बैठ गये थे ।
खीर मोहन ले आतौ …जे बेचारे खाय लेते …घर में तौ दार रोटी है । कल्लू की मैया बोली थी ।
अरे , जे वृन्दावन के हैं मैया ! जे ना खाएँगे मिठाई ….जो है वो ही दे दे ।
कल्लू हमारी ओर से ही बोला था ….हम भी यही कहते ….ये कहकर कल्लू हमारी ओर देखकर मुस्कुराया भी था ….मानौं कह रहा हो …..सही कही ना !
हमें तो मधुकरी चहिये ….मैंने कहा …तो वो मैया बोली …मधुकरी ही है …..लो खाओ ….रोटी और दाल ….एक थाल में लाकर रख दिया था ….मैया ! गुड़ तो दे ….कल्लू बड़े प्रेम से हंसते हुए बोला था ….उसकी मैया ने गुड़ दिया ….आँवले की चटनी बनाई थी वो भी दी ।
बहुत प्रेम करतीं हैं कल्लू की मैया अपने कल्लू से …..अब इनका आधार यही तो था ।
बहुत सात्विक परिवार था …अब क्या परिवार कहें ये दो ही थे अब तो ….माता और ये उसका बेटा कल्लू । किन्तु ये बात अगर कल्लू सुनेगा तो उसे बुरा लगेगा ….” मेरौ गोपाल भैया भी तो है“ वो तुरन्त कहेगा । कल्लू ने हम लोगों के रोटी खाने के बाद ….”जे है मेरौ गोपाल भैया” ….एक सुन्दर अलमारी में उसने एक चित्रपट रखी थी ….बड़े प्यारे ठाकुर जी थे ….उसने दिखाया । मेरे साथ के एक व्यक्ति सौ रुपए निकालकर जैसे ही चढ़ाने लगे……सुन भैयाओं ! जे गोपाल भैया कौ मन्दिर नाँय …जे घर है …जब मन्दिर में जाओ ना तब चढ़ाना पैसा । अभी रखो ।
अद्भुत था वो बृजवासी तो ….कितनी ठसक थी उसमें …..और कितना अपनत्व था अपने गोपाल के प्रति । यही अपनत्व तो चाहिए “गोपाल” को , जो बृज में ही मिलता है ।
सन्ध्या का समय बीत चुका था अब रात होने वाली थी ।
किन्तु कल्लू से हमें सत्संग करना था ….उसकी बातें सहज थीं ….कहीं लिखी पढ़ी बातें नही …उसके अनुभव से प्रकट थीं बातें ।
कल्लू ने छोटी अवस्था में ही संसार देख लियौ । याहि कारण याकुँ वैराग्य है गयौ । कल्लू की मैया हमको बता रहीं थीं । याके पिता जी पधार गये …..फिर छोटी बहन हुँ पधार गयी ….ये कहते हुए नेत्र सजल हो गये थे मैया के ।
जब मेरे बाबा पधारे…फिर मेरी बहन पधार गयी ….तब मैंने अनुभव कियौ …कि .अब मोकूँ गोपाल ने कस के पकड़ लियौ है । वैसे भी अब मैं वाही कौ हौ । ये कहता हुआ वो कल्लू हंसा ..उसकी हंसी भी प्यारी थी …वा ने मौकुँ ऐसे पकड्यो जैसे वो पकड़वे कुँ तैयार ही बैठ्यो होय । कल्लू बोलता गया ….उसका ओरा फैल रहा था …उसमें एक अद्भुत आध्यात्मिक ऊर्जा थी जो अब प्रकट हो रही थी । जैसे ही मेरे बाबा पधारे …वाही समय एक प्रकाश भयौ …..नीलो प्रकाश ….मैं देख रह्यो हूँ …बु प्रकाश फैलतौ गयौ ….और वाही मैं मेरे बाबा विलीन है गए …..कल्लू कहता है ….मैंने देखा ….वा प्रकाश ने अब आकार ले लियौ हो ….कैसौ आकार ? मुखचन्द्र प्रकट है गयौ ….घुंघराले केश , हस्त , श्रीवक्ष ….चरण ….अब तो मुस्कुरातौ भयौ वो मेरे माहुँ ही देख रह्यो हो । बस , । कल्लू खो गया था अपने गोपाल भैया में ….मैया रोने लगी तो ये हँसता हुआ बोला …जे रोय रही है मैया ! अब कौन समझावे याहे …कि याकौ बड़ों लाला हु है….नाँय, जो है वही है ….मैं तो आज हूँ कल नही ।
कल्लू को देखकर लग रहा था कि जो बातें बड़े बड़े विद्वान नही समझ पाते उसे इसने समझ लिया था ….शास्त्रों का निचोड़ इसने पा लिया था ….ये अपने सिद्धांत पे दृढ़ था ।
क्या तुमको दर्शन हुए है अपने गोपाल भैया के ? ये प्रश्न मैंने नही , ये प्रश्न किया था मेरे साथ के साधक ने । वो सहज हंसा …”रोज होंवें”। कहाँ ? अब ये मेरा प्रश्न था …..जब रोऊँ ….तब वो मेरे पास आजावे ….मोकूँ सम्भाले …..प्यार करे ….फिर मैं वाही की गोद में सो जाऊँ ….मेरे सिर में हाथ फेरतौ रहे वो ।
कल्लू के मुख से ये सुनकर मेरे नेत्रों से अश्रु बह चले थे …सच ? मेरे साथ के मित्र ने मुझ से पूछा तो मेरा उत्तर था …इस निर्दोष , निश्छल बालक को दर्शन नही देगा वो गोपाल तो किसे देगा ?
मनुष्य का कर्तव्य क्या है ? हमने उससे पूछा ।
मैं कौन हूँ ? मैं संसार में काहे के लिए आयौ हूँ ? मैं कहा कर रह्यों हूँ ?
याकौं उत्तर खोजौ ….और फिर चलो । कल्लू बोला …..या प्रश्नन कौ उत्तर खोजनौ ….और फिर वाही उत्तर के पीछे चल देनौं ….यही मनुष्य कौ कर्तव्य है ।
हम उससे और सुनना चाहते थे …इसलिए चुप ही रहे ।
तुम कौन हो ? बताओ ? कल्लू हमसे ही पूछ रहा था ।
हम कुछ नही बोले तो उसी ने उत्तर दे दिया ।
समस्त विश्व के संचालक गोपाल ही मेरे हैं और मैं एक मात्र उनकौ हूँ । या सम्बन्ध कुँ भूलवे के कारण ही हम दुःख सुख के भव में भटक रहे हैं …..या संसार सौं मेरौ कहा प्रयोजन ? जे संसार है का ? याकौ अस्तित्व है का ? अब दूसरौ प्रश्न …खोजौ याकौ उत्तर ….मैं संसार में काहे के लिए आयौ हूँ ? प्रेम प्राप्त करवे के लिए …..साँचौं प्रेम प्राप्त करवे के लिए । अब बताओ हम कहा कर रहे हैं ? द्वेष में लगे हैं , ईर्ष्या से जल भुन रहे हैं …महत्वाकांक्षाओं के कारण हम अशान्त हैं ….का याहि के ताईं हम यहाँ आये ? ना , हम आये अपने प्यारे सखा के ताईं ।
खोजौ वाकूँ ।
एक सामान्य प्रेम में हुँ तुम अपनौ सर्वस्व लगाय देयो हो …फिर या प्रेम में चौं नही ?
जो करो अपने सखा के प्रेम कुँ प्राप्त करवे के ताईं करौ । मन्दिर जाओ तो याहि कुँ माँगौ …कि कछु नाँय चहिये …..बस तेरौ प्रेम ही चहिये । यज्ञ करौ तो भी याहि कुँ माँगौ …कि हे गोपाल तेरौ प्रेम चहिये । गंगा नहावे जाओ तो भी यही माँगौ । तीर्थ जाओ तब भी । अपनौं सब कछु भगवत्प्रेम प्राप्ति में लगाय देओ । बुद्धि , विद्या , समय , धन , चतुरता …सब केवल भगवत्प्रेम के तांईं । फिर काम बन जावैगौ । वो कल्लू इतना ही बोला और मौन हो गया ।
समय बहुत हो चुका था इसलिए हमने कल्लू की मैया को प्रणाम करके …निकलना उचित समझा …किन्तु वो कल्लू …..अब ये रात भर ऐसे ही बैठा रहेगा ….सुबह के समय दो तीन घण्टे सोएगा ….बस । मैंने देखा उस कल्लू को …शान्त मुखमण्डल …एक महान योगी की भाँति ।
मैया ! हम कल भी आयेंगे ….आपको कोई परेशानी न हो तो । मैंने कहा था ।
हाँ , हाँ आओ ना , मैं तो कह रही रात कुँ यहीं रुक जाओ । हमने सादर मना किया और प्रणाम करके वहाँ से चल दिये थे ….जाते जाते ध्यानस्थ कल्लू को भी हमने प्रणाम किया । वो अब हम लोगों के लिए एक सिद्ध महात्मा था ।
शेष अब कल –
: !! एक अनूठा प्रेमी – “वो कल्लू बृजवासी” !!
भाग – 3
गतांक से आगे –
हमारे अन्त:करण में अपने प्राण प्रिय गोपाल के ताँईं बस प्रेम रहे ….लेश मात्र हुँ स्वार्थ न रहे …कामना हुँ न रहे । विश्वास रहे , अटूट विश्वास । बस याही बात सौं सावधान रहें कि …सकामी न बन जायें …ओह ! अपने प्यारे गोपाल ते कछु माँग न बैठें ।
नाम जाप करें , खूब करें , किन्तु वाके बदले हुँ …कछु ना माँगे …नाम जाप के बदले नाम जाप ही माँगें । हे ठाकुर ! नाम के प्रति मेरी निष्ठा और बढ़े , बस याही कुँ माँगनौं है । बस ।
जे प्रेम कौ मार्ग है ….तलवार की धार पे धावनौ है ….प्रेम मार्ग सरल मत जानौं । और प्रेम में मागनौं नही होवे है ….वहाँ तो अपने प्यारे कुँ बस देनौं है …देते ही रहनौं है ….अगर माँग लियो तो मजदूर हो आशिक़ कहाँ रहे !
सकाम भक्ति ते ठाकुर जी शीघ्र ही भक्त ते छुटकारौ पाय लें …क्यों की सकामी माँगे और ठाकुर देय के भग जावैं , किन्तु निष्काम भक्त के तो हृदय में ठाकुर जी क़ैदी बनके बैठ जावैं , उनकूँ निष्काम भक्ति बाँध लेय है । जा लिए भक्तन कुँ निष्काम भक्ति ही करनी चहिए ।
श्रीगोकुल धाम ,
दोपहर में हम लोग पहुँच गये थे …अक्षय नवमी थी ….यमुना जी में स्नान करने वालों की भीड़ थी ….यमुना जल लेकर हमने चिन्ताहरण महादेव को चढ़ाया ….धूप अच्छी थी इसलिए यमुना स्नान भी कर लिया । कल्लू ….वहीं बैठा मिला हमें । उसकी गैयायें चर रहीं थीं और वो बैठा हुआ ध्यान में मग्न था । हम स्नान के बाद उसी के पास गये उसने हमें देखकर प्रसन्नता व्यक्त की …वो ख़ुशी से उछलता हुआ हमारे लिए “खीर मोहन” लेकर आया । गोकुल का ये प्रसिद्ध मिष्ठान्न है ।
मैं सबेरे ही लै आयौ ….मोकूँ पतौ ही कि आप सब आओगे …जा लिए मैं ले आयौ । इतना कहकर कल्लू ने हम सब को खीर मोहन दिया ….हम सबने उसे पाया ।
जे चिन्ताहरण महादेव हैं ….जे नाम मैया यशोदा ने जा भगवान शंकर कुँ दियौ है …..क्यों की मैया की चिन्ता इन महादेव ने ही तो दूर करी ही । कितनी मीठी लगती है बृजभाषा कल्लू के मुख से ।
जय हो , मेरी तो अब चिन्ता दूर हो ही जाएगी …मेरे साथ के मित्र दूध से महादेव का अभिषेक करके आगये थे । वो यही बोलते हुए आये …बहुत दुखी हूँ …हे महादेव ! सब ठीक करो ।
“जो गोपाल के स्वभाव कुँ जान लेय है …बु कबहूँ माँगे नाँय । …..चौं माँगनौं ? का हमारौ गोपाल या महादेव अंतर्यामी नहीं हैं ? अगर नही हैं तो बताओ । कल्लू ने तुरन्त सकाम भक्ति का खण्डन कर दिया था । अभी तुम लोग ठाकुर जी के स्वभाव ते परिचित नहीं हौ । बताओ , पूतना आयी ही , मारवे आयी ही , और गोपाल ने एक ही बार में सबरौ बाकौ ज़हर चूस लियौ
…और वाकूँ सद्गति दे दई । जे कहा है ? जे हमारे गोपाल को स्वभाव है ….नही नही , मात्र सद्गति नाँय दई …अपनी मैया की सी गति दे दई ।
कल्लू बस यही बातें करता है ….उसे और बातें करनी ही नही है …पूर्ण भक्त है ..अरे भक्त नही …ये तो बृजवासी है …सखा है गोपाल का …मेरे मन में इसके प्रति यही भावना प्रकट होती है …तो मन में अपार श्रद्धा जाग जाती है ।
कल्लू कुछ देर के लिए मौन हो गया ….हम सब उसको ही देख रहे थे ….फिर वो मुस्कुराया…..
मेरी बहन , वाकूँ पीलिया है गयौ हो …पहले तो यहीं के वैद्यन ने इलाज कियौ ….किन्तु जब रोग बढ़तौ गयौ ….तो मथुरा में डाक्टर के पास ले गये …..लिवर खराब ….तीन लाख रुपैया लगेंगे …..अब हमते तो लक्ष्मी रूठी पड़ी हीं ….कल्लू कहता है …..पिता जी के पधारे भये कछु दिना ही भये है ….अब बहन भी । मैया ने मोते रोते भये कही …कल्लू ! जा बेटा …आज गोपाल जी ते माँग ले । गोपाल जी सब ठीक करेंगे । कल्लू कहता है …मैं गयौ , अपने गोपाल जी के पास ….किन्तु जैसे ही जातौ ….गोपाल जी के दर्शन करते ही आनन्द आजातौ …फिर लौट के मैया के पास ….कल्लू ! माँग लियौ गोपाल जी ते ? मैया पूछती ….अरे ! भूल गयौ ….मैं फिर जातौ ….गोपाल जी के सामने खडौ….फिर भूल जातौ माँगनौं ….मैं वा समय बस बाहर की सब चीजन कुँ भूल जातौ ….बस गोपाल जी । मैं जातौ दुखी है के …किन्तु गोपाल के सामने माँगवें कौ विचार ही नही आतौ । आतौ खुश है के । मैया फिर पूछती …कल्लू ! बेटा माँग लियौ ? कल्लू कहता है – मैंने चार बार प्रयास कियौ माँगवे कौ …..अपने गोपाल ते माँगवे कौ…..किन्तु मोते माँगौ नही गयौ ….मेरी बहन मर गयी । मन में कोई शिकायत नही ….गोपाल के प्रति का शिकायत ?
मरनौं तो है ही ……इतना कहकर कल्लू कहीं खो गया था ।
शास्त्रों में , पुराणों में तो सकाम अनुष्ठान का वर्णन है …अगर सकाम अनु्ष्ठान ग़लत है तो उनका विधान क्यों बताया गया ? मेरे साथ के साधक ने ये प्रश्न किया था ।
कल्लू उत्तर सटीक देता है ।
तीन प्रकार की प्रकृति है मनुष्यन की , सत्वगुण , रजोगुण , और तमोगुण ….अनेक जीव, पशु कीट आदि योनिन कुँ भोग के मनुष्य योनि में आये हैं तो पूर्व जन्म के जैसे संस्कार होंगे …वाकौ स्वभाव हूँ वैसौ ही रहेगौ …या लिये शास्त्रन ने उपाय बताये ….कोई तमोगुणी है तो वाकूँ रजोगुण में लाओ । जैसे कोई माँगे …हे भगवान ! मेरे वा परिचित को बिगाड़ है जाये ….मेरे बैरी सब खतम हैं जायें ….मेरे पड़ोसी की उन्नति रुक जावै । कल्लू कहता है …जे है तमोगुणी …अब शास्त्र अगर इनकूँ कहेंगे कि स्वार्थ , सकाम होना त्याग दो …तो जे तमोगुणी व्यक्ति मानेंगे ? तो शास्त्र ने उपाय बतायौ …दूसरे कौ अहित सोचनौं छोड़ो , धन कमाओ …सुखी है जाऔ । धन कमायेवे के अनुष्ठान भी बताय दिये ।
तो शास्त्र ने उपाय करके तमोगुणी कुँ रजोगुणी बनाए दियौ । अब शास्त्र कौ लक्ष्य है रजोगुणी को सत्वगुणी बनाना । कल्लू इतना कहकर कुछ देर चुप हो जाता है ….फिर कहता है …अर्थ ही तो अनर्थ का मूल है ….जो लिख्यो है बु तो मिलेगौ ….फिर चौं परेशान है रहे हो ….
“मत बंछे मत बंछे तिल तिल धन कौ ,
अन माग्यौ आगे आवेगौ , सौ तौ धन है अपन कौ ।”
कल्लू कहता है …..चौं पागल के ताँईं धन के पीछे भाग रहे हो ….भाग में जो लिख्यो होयगौ , बु तो मिलेगौ ही । फिर शास्त्र रजोगुण ते सत्वगुण में ले जामें , इतनौ ही नही …फिर शास्त्र तुम्हें सत्वगुण ते हुँ पार ….त्रिगुणातीत बनाय के निष्काम करदें हैं । कल्लू यहाँ भी रुक जाता है …कुछ देर वो मौन है ….फिर बोलना शुरू करता है ।
शास्त्र अधिकारिन के हिसाब ते बोले हैं ….तुम जैसे हो वाही स्थिति ते तुम्हें शास्त्र उच्च स्थिति में पहुँचाय देंगे ।
“ध्यान राखियों …यदि संसार में हमें काहूसौं थोड़ी सी हुँ आशा है …तो निष्काम भक्ति सम्भव नही है ….तुम्हें अगर संसारिन ते अपनौ थोड़ौ हुँ स्वार्थ सिद्ध करनौं है …तो निष्काम भक्ति तुम ते होयगी नही ।
हम सब कल्लू की बातें सुनकर सन्तुष्ट हो गये थे ….सकाम कर्म इसको प्रिय नही था …ये निष्काम भक्ति योगी था । ये निष्काम प्रेमी था …और हमको भी ये यही शिक्षा दे रहा था ।
अपने प्रियतम ते माँगनौं ? मर जानौं ? ये कहते हुए कल्लू फिर कहीं खो गया था ।
अब शेष कल –


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