!! एक अनूठा प्रेमी – “वो कल्लू बृजवासी”!!
भाग – 5
गतांक से आगे –
सबई भगवान के स्वरूपन हैं …किन्तु सबरै स्वरूप में दास्यभाव या दास्यप्रेम तौ बन सकै है …पर सबमैं सख्य भाव , वात्सल्यभाव और माधुर्यभाव सम्भव नही है …अब कछुआ कुँ तुम माधुर्य भाव ते देख सकौ हो का ? नरसिंह में तुम वात्सल्यभाव रख सकौ हो का ? या लिये तो श्रीराम और श्रीकृष्ण ही पूर्णावतार में आमैं हैं ….अन्य अवतार पूर्ण नही हैं । चौं कि मनुष्य की सम्पूर्ण भावनान के पूर्ण आधार सिर्फ जे दो अवतार में ही देखै गये हैं ।
( कल्लू यहाँ कुछ देर के लिए मौन हो जाता है )
पर देखिवे की बात जे है …कि अन्य अवतार अंशावतार जा लिए कहे गए हैं कि हमारे भावनाओं के अंश की ही पूर्ति उन अवतारन में है सकै है । सम्पूर्ण भावना की पूर्ति नही ।
भगवान श्रीराम और भगवान श्रीकृष्ण ही मनुष्य के सम्पूर्ण भावनान के आधार हैं …जा लिए जे पूर्णावतार माने गये हैं । किन्तु सम्पूर्ण तो केवल श्रीकृष्ण ही हैं । श्रीराम तो मर्यादा ते बंधे भए हैं …..कल्लू कहता है ।
अब भगवान श्रीराम की बात लै ल्यो । इनमें हूँ एक कमी है ….जे मर्यादा में बंधे भए हैं …जा लिए हमारी भावनान कुँ भी मर्यादा में बाँधनौं पड़े है ….सख्य रस , जे रस भगवान श्रीराम में पूर्ण आधार नही पावै है ….अब सख्य में हूँ मर्यादा दिखाई देवै भगवान श्रीराम में , अब सख्य में अगर मर्यादा रही तो कहा वो सख्य भाव रह्यों ? भैयाओं ! अपनौं कन्हैया तो लीलापुरुषोत्तम हैं …..उनमें हमारी भावना निर्बाध रूप से लीला कौ आधार पावै है । अन्यथा मत लियौ मेरी बात कुँ ……
गोकुल में आना , हमें कल्लू का मिलना ये ठाकुर जी की कृपा ही रही ……अब हमने कल्लू से पूछा था ….कि तुम्हारे भीतर भगवान के प्रति क्या भाव है …..”वैसे बड़ौ भैया है मेरौ , किन्तु मोकूँ तौ सख्य भाव ही प्रिय है ….मेरौ सखा है वो “। ये कहना है कल्लू का ।
भगवान श्रीराम ? मैंने ये और छेड़ दिया ।
तो कल्लू का कितना सटीक कहना था…….मनुष्य के सम्पूर्ण भावनान कौ आधार तो दो ही अवतार हैं वाकि तौ सबरे दास्यभाव या दास्यरस के ही आधार बन सकै हैं । क्या भगवान श्रीराम के प्रति सख्यभाव ही सकता है ? ये मैंने पूछा था । “नही , जे सम्भव नही है ….कल्लू तपाक से बोला था ….कुछ देर के बाद कल्लू हंसा भी था । सख्यरस और माधुर्यरस पूर्णरूप ते कन्हैया में ही खिल सकै है , खिल्यौ है । तुम हंसे क्यौ ? मैंने पूछा था …क्यों की इसकी हंसी में कुछ तो बात थी …..”भरत जी चित्रकूट में कहें हैं ….कि मेरे प्रभु कौ खेल में भी कितनौं स्नेह !
मैं प्रभुकृपा रीति जिय जोई , हारेहु खेल जितावहिं मोही ।
भरत जी कहैं हैं ….मेरे प्रभु कितने करुणा निधान हैं ….बचपन में हम जब खेल खेलतै …तब प्रभु जानबुझ के हार जाते और मोकूँ जिताय देते । कल्लू कहता है- अब बतायौ यामें सख्यरस है कि वात्सल्य रस है ? कल्लू की बात सुनकर हम चकित थे …मैं बोला …भगवान श्रीकृष्ण के प्रति सख्य रस सम्भव है …किन्तु भगवान श्रीराम के प्रति सम्भव नही है , सही कह रहे हो तुम ।
नही , भगवान श्रीकृष्ण के प्रति भी सख्य भाव सम्भव नही है …..कल्लू बोला । मैंने कहा ….क्यों ? तब कल्लू की आँखों में एक अलग चमक आगयी थी ….वो बोला – भगवान श्रीकृष्ण में नही …कन्हैया में । सिर्फ कन्हैया के प्रति सख्यभाव सम्भव है ….का तुम द्वारिकाधीश के प्रति सख्य भाव रख सकौ हो ? सुदामा की बात छोड़ो ..बाकौ सख्यभाव गुरुकुल में ही सम्भव है सकौ हौ । कन्हैया ! कन्हैया के प्रति सख्य भाव खिलै है …..कन्हैया ही हमारे सख्य कौ आधार बन सकै है । वैसे तौ काहूँ भाव ते भजौ ….किन्तु भाव में शुद्धता आवश्यक है ….दास्यभाव में दुविधा है ….वहाँ तुम्हारी नहीं चलेगी …दास की कहाँ चलै ….स्वामी की ही चलेगी । उनकी ही बात माननी पड़ेगी । किन्तु सख्य भाव में मैत्री है …..जिद्द है …लड़ना है ….झगड़ा है …यही तौ आधार है सख्य कौ ।
साधकों ! ये कहते हुए कल्लू का मुखमण्डल चमक उठा था । मुझे यही जानना था कि ये कौन है ? कोई साधारण ये हो नही सकता था ….अब मुझे बात समझ में आरही थी कि ये श्रीकृष्ण सखा था …श्रीकृष्ण का सखा । नही नही …कन्हैया का सखा था ।
कन्हैया लड़ै है …झगडौ करै है ….रूठ जावै है ….फिर वाकूँ मनायौ ….कब तक मानेगौ पतौ नही ।
कल्लू के नेत्रों से अश्रु गिरने लगे थे ……ये क्या हो गया था इसे ……
तुम कहाँ से आये हो ? मैंने पूछा । पूछने का आधार था ।
कल्लू ने मेरी ओर देखा …..कुछ नही बोला ……मेरी ओर देखकर उसने नज़रें और चुराईं ।
दूरी हरि आपनी गैया।
ना हम चाकर नन्दबाबा के , ना हम बसत तुम्हारी छैंया ।
ये गुनगुनाने लगा था कल्लू ।
सखा रुष्ट है गये …दाँव नाय देगौ कन्हैया ….ऐसे कैसे नाँय देगौ ?
हम तेरे बाप के नौकर थोड़े ही हैं । नाँय , दाँव तौ देनी पड़ेगी ।
ये तो अच्छी बात नही है ना , हार गये तुम तो भाग रहे हो । सखाओं ने कस के पकड़ लिया है कन्हैया को । अब तो लड़ाई होगी । दाऊ दादा आगये हैं ….उन्हें अपने कन्हैया को छुड़ाना है …..सखा अब जिद्द पे उतर आए हैं ….क्या करें ? और जिद्द पर उतरना सही ही है ….हारते रहे हैं तो दाँव देते रहे ….अब कन्हैया हारौ है …तौ भाग रह्यो है । नहीं दूँगों दाँव । दाऊ जी फेंट छुड़वा रहे हैं …….किन्तु सखाओं ने दाऊ को हटा दिया है । दाऊ भी क्या करें । अब बस गुत्थम गुत्था ही होने वाली है …….तभी मनसुख के नीचे से कन्हैया अपनी फेंट छोड़ के भाग गये ……सखा उसके पीछे भाग रहे हैं ……ओह ! ये झाँकी कैसे दिखाई दी हमको पता नही ….ये लीला कैसे चल पड़ी थी हमारे हृदय में ये भी हमें पता नही । कल्लू अब हमारे पास नही था ….वो कहाँ गया ? हम लोग उसे खोजने लगे थे ….सन्ध्या होने वाली थी …गैयाएँ उसकी चर रही थीं ….किन्तु कल्लू कहाँ ?
कल्लू ! कल्लू !
उसकी मैया ने आवाज़ दी थी ……तभी हमने देखा सामने से आरहा है वो ….हँसता , मुस्कुराता हुआ । गैयाओं को उसने तुरन्त घेर लिया था ….और चल पड़ा था अपने घर की ओर ….कल्लू ! हमने उससे पुकारा ….तो उसने चहकते हुए हमें उत्तर दिया ।
“दाँव दे दियौ कन्हैया ने , ऐसे कैसे नही देयगौ ? “
ये कहते हुए वो बहुत खुश था । ये क्या है ? मैं स्तब्ध ।
ये कन्हैया का सखा है ? नही नही ये ही क्यों ? इस बृज का हम बृजवासी उसी का सखा है ।
ये ठसक , ये भाव , अगर दृढ़ हो जाए तो सख्य रीति निभाने के लिए उसे तो आना ही पड़ेगा ना । वो आता है …नही नही , आना जाना क्या है …वो यहीं रहता है ….आपने सुना नही है क्या ?
बृजवासी बल्लभ सदा , मेरे जीवन प्राण ,
इनहिं न तनिक बिसारिहौं , मोहि नन्दबाबा की आन ।
अब जिसने अपने बाबा की ही क़सम खाई हो ….वो इन बृजवासियों से दूर होगा ?
मैंने उस कल्लू को प्रणाम किया …..और वहाँ से निकल गया था ।
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