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November 21, 2024 1:20 pm

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महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (066) : Niru Ashra

महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (066) : Niru Ashra

महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (066)


(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )

जार-बुद्धि से भी भगवत्प्राप्ति सम्भव है

भगवान् जय हयग्रीव बनेंगे तो भैंस होकर उनसे मैत्री कोई थोड़े जोड़ेगा। अरे, भगवान् मछली बनेंगे तो उनके साथ मछली बनाना पड़ेगा और कछुआ बनेंगे तो उनके साथ कछुआ बनना पड़ेगा। वे वराह बनेंगे तो उनके साथ वराह ही बनना पड़ेगा। वे मनुष्य बनेंगे तो उनके साथ मानुष ही बनना पड़ेगा। जैसे भगवान् का दिव्य शरीर है वैसे तुम भी देखो कि हमारा शरीर दिव्य है। अपने बाल को सफेद मत देखो, अपने दाँत को टूटा हुआ मत देखो, अपने चेहरे पर झुर्री मत देखो, अपने शरीर में हड्डी, मांस, चाम का ख्याल मत करो। ऐसा देखो कि दिव्य, चिन्मय, मंगलमय, सच्चिदानन्दघन विग्रह से हम भगवान् से मिल रहे हैं। जो शरीर माँ-बाप से पैदा नहीं होत्प्र वह गुरु-गुरुवाइन से पैदा होता है। बोले- हमारे गुरुजी तो हैं पर गुरुवानीजी तो हमने देखी नहीं। तो गुरु की जो शक्ति है वही गुरुआनी है। शक्ति सहित गुरु होता है। शिष्य की श्रद्धा और गुरु का अनुग्रह यही उसके माँ-बाप है। श्रद्धा और अनुग्रह से उस शरीर की प्राप्ति होती, तब वह रूप धारणकर भगवान् के पास जाना होता है।

अच्छा, उस गोपी के गुणमय शरीर का त्याग हुआ और अप्राकृतिक शरीर की प्राप्ति हुई। अब महाराज वह जो बुढ़िया थी न, जो घर में बंद हो गयी थी, वह भी जवान बन गयी। श्रीकृष्ण के अनुरूप भोग्य उसका शरीर बन गया, उसके भी केश सुनहले हो गये, उसका भी शरीर देदीप्यमान हो गया, उसका भी दिव्य यौवन प्रकट हो गया, वह रास में नाचने योग्य हो गयी, गाने योग्य हो गयी, बजाने योग्य हो गयी, श्रीकृष्ण का आलिंगन प्राप्त करने योग्य हो गयी और उसका शरीर भक्तिभाव से परिपूर्ण ध्यान के द्वारा, भगवान् की सेवा में पहुँच गया। अब इस पर राजा परीक्षित ने एक शंका की? क्या शंका की-

कृष्णं विदुः परं कान्तं न तु ब्रह्मतया मुने ।
गुणप्रवाहो परमस्तासां गुणधियो कथम् ।

असल में जहाँ साकार का प्रश्न हो उसमें निराकार को नहीं जोड़ना चाहिए और जहाँ निराकार का प्रश्न हो उसमें साकार को नहीं जोड़ना चाहिए। ये तो जो साकार के अश्रद्धालु लोग होते हैं उनके संतोष के लिए साकार को निराकार में जोड़कर बताया जाता है। असल में तो साकार निराकार एक ही है। एक बात और आपको सुनावें। जैसे ब्रह्म के बारे में जो भी बात शास्त्र में कही हो, वह बात हमारे बारे में भी बिलकुल सच उतरती है। क्योंकि यदि ऐसा न हो तो एकांगी ज्ञान होगा, वैसे ही हमारे बारे में जितनी बात है वह भी सब ब्रह्म में सच उतरती है क्योंकि अगर ऐसा न हो तो दोनों बराबरी के ब्रह्म नहीं निकलेंगे- एक छोटा ब्रह्म और एक बड़ा ब्रह्म हो जाएगा। इसलिए ये श्रीकृष्ण जो है उनमें चूँकि ब्रह्म के सारे लक्षण हैं ही, हमारे भी सारे लक्षण श्रीकृष्ण के अंदर है। अद्भुत लीला है यह, इस बात को समझो।+

प्रक्रिया काल में, वेदान्ती के समझ में यह बात नहीं आती। अच्छा बोले- हमारा तो जन्म होता है पर ब्रह्म का नहीं होता। बोले कि नहीं यही बात नहीं समझते हो कि ब्रह्म का ही जन्म हुआ है, हम ब्रह्म ही हैं और हमारा भी जन्म हुआ है। इसी का नाम लीला है। कृष्ण ब्रह्म ही है और कृष्ण का जन्म हुआ है- यह बात लीला की क्यों समझ नहीं पड़ती है? अपरिच्छिन्नता में परिच्छिन्नवत् जन्म लेना और अन्य क्रीड़ा करना लीला है। वह श्रीकृष्ण में जैसा है वैसा ही हममें हैं। सब ब्रह्म ही कर रहा है। जो ब्रह्म में है, मुझमें है और जो मुझमें है, ब्रह्म में है नारायण।

अहमेव परं ब्रह्म, ब्रह्माहं परमं पदम् ।

भागवत् का यह सिद्धांत बड़ा विलक्षण है। वेदान्त का सार है। अच्छा अब आपको बताते हैं- परीक्षित का प्रश्न क्या हुआ? ये जो गोपियाँ हैं ये कृष्ण को समझती हैं परम कान्त। क्या छाँट के शब्द रखा है। कान्त माने प्यारा, कमनीय जिसके लिए प्यास लगे। कान्त शब्द का एक अर्थ होता है सुन्दर। कान्ति से कान्त बना- कान्ति अस्यास्ति इति कान्तः कान्ति इसमें रहती है इसलिए कान्त हैं, सुन्दर है और एक अर्थ बोलते हैं- ‘क’ माने सुख, उसका अंत माने पराकाष्ठा जिसमें हो, जिसमें सुख की पराकाष्ठा हो उसको बोलते हैं कान्त। और ‘क’ माने रस, जल, उसकी पराकाष्ठा माने अमृत। जैसे सुन्दर के दर्शन के लिए आँखें प्यासी रहती हैं वैसे जिस रस के लिए हमारा दिल प्यासा हो उसका नाम कान्त है। उसमें भी महाराज ऐरे-गैरे-नत्थू-खैरे का नाम कान्त नहीं है। परं कान्तं- सबसे परे है यह कान्त। यह पर पुरुष है। पर भी तो लग गया इसमें। कल आपको सुना रहा था कि परपुरुष माने क्या होता है? इंद्रियों ने विषयों से व्याह कर लिया है, दिखाऊ ढंग से। परंतु असल में उनका प्रेम आत्मा से है।

न वा अरे सर्वस्य कामाय सर्वं प्रियं भवति,
आत्मनस्तु कामाय सर्वं प्रियं भवति । ++

इन्द्रियाँ बाहर विषयों से सुख दुहती हैं और भीतर बैठे हुए आत्मदेव को पहुँचाती हैं। असल में तो ये आत्मदेव की नौकर हैं सेवा आत्मा की करती हैं, प्यार आत्मा से करती हैं, उनको सुख पहुँचाकर सुखी होती हैं। बाहर से तो सिर्फ लाने का ही काम करती है। विषयों के साथ इनका असली ब्याह नहीं हुआ है। उनका असली ब्याहता तो वही है, इसी को परपुरुष बोलते हैं, भला! व्यवहार में इन्द्रियों का प्यारा विषय है और विचार करके देखो तो परमार्थ में अपना आत्मा है। चूँकि व्यावहारिक दृष्टि से ये आत्मदेव पतिदेव नहीं हुए, इसी से इनको परपुरुष बोलते हैं। अच्छा अब ज्यादा वेदान्त की बात आपको नहीं सुनावेंगे।

‘परं कान्तं विदुः’- गोपी तो समझती थी कि यह श्रीकृष्ण जो है हमारा यार है, हमारा प्यारा है, ब्रह्म तो वे समझती नहीं थी। कृष्ण ब्रह्म है कौन समझे। अरे बड़े-बड़े वेद के पंडित नहीं समझते हैं। वे सबको ब्रह्म बता देंगे पर कृष्ण को ब्रह्म नहीं बतावेंगे। ये क्या महामाया का खेल है कि बड़े-बड़े वेदान्ती कहेंगे कि हम ब्रह्म हैं और ये भी कहेंगे कि तुम ब्रह्म हो। (औरों को न कहें तो अपने चेलों को जरूर बोलेंगे।) लेकिन जब कृष्ण ब्रह्म आये तो अपने बराबर भी उनको नहीं मानते और अपने चेलों के बराबर भी नहीं मानते थे। वे कृष्ण को ब्रह्म नहीं कहते- न तु ब्रह्मतया वे गोपी बिचारी किसी ब्रह्मज्ञानी की चेली नहीं हुई, इसलिए उनको चेली बनाने के लिए भगवान स्वयं आये। गोपीनां स गुरुर्गति, कृष्ण गोपियों के गुरु भी हैं और प्यारे भी हैं। भागवत में यह लिखा है- अध्यात्मशिक्षया गोप्यः एवं कृष्णेन शिक्षिताः उनको अध्यात्म ज्ञान का उपदेश खुद दिया- खुद गुरु और खुद गति और खुद पति और खुद मति। गोपियों के गुरु कृष्ण गोपियों के पति कृष्ण, गोपियों की मति कृष्ण और गोपियों की गति कृष्ण। भागवत में- गोपीनां स गुरोर्गति कुरुक्षेत्र के प्रसंग में ये वचन हैं और गोपियों के पंचकोष का ध्वंस हुआ इसका भी वर्णन है।

क्रमशः …….

प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹

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