श्रीमद्भगवद्गीता
Niru Ashra: 🙏🙏🌸🙏🙏
!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 139 !!
कुरुक्षेत्र में श्रीराधाकृष्ण का मिलन
भाग 1
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वो समय ……वो काल……आस्तित्व भी प्रतीक्षा में था ।
इन दोनों सनातन प्रेमियों को मिलानें की ।
मैया ! सूर्योदय होनें वाला है ……..अगर आपकी आज्ञा हो तो मैं जाऊँ ………लोग मेरी प्रतीक्षा कर रहे होंगें …..मैने किसी को नही कहा है ।
कृष्ण नें अपनी मैया यशोदा को बताया ।
अच्छा ! अच्छा ! एक बात तो बता मेरी बहू आयी है या नही ?
मैया यशोदा की बातें सुनकर कृष्ण मुस्कुराये …….अरी मैया ! तेरी एक दो बहू नहीं ……..सोलह हजार एक सौ आठ बहुएँ हैं ।
ये सुनते ही ……मैया यशोदा मुँह में साड़ी का पल्लू डाल के खूब हँसी ……..फिर अपनें लाला के सिर में हाथ फेरा ।
सब तेरी हैं ? मैया नें हँसते हुये पूछा ।
ना ! सब तेरी हैं मैया………कन्हैया नें चरणों में सिर रख दिया ।
सब आयेंगीं तेरे पास मैया ! तू आशीर्वाद देना ।
मैं आता हूँ ……मैया ! सब को लेकर आता हूँ मैं ।
इतना कहकर कन्हैया उठे ………नन्द बाबा नें कहा ………वसुदेव को कहना नन्द नें उन्हें स्मरण किया है ……………
वो भी आयेंगें आप सब से मिलनें……….कन्हैया नें कहा ……और सबको प्रणाम करते हुए उठ गए ।
लाला ! याद रखियों……..हमें मतलब नही है सूर्यग्रहण से ……न पुण्य वुन्य से…….न स्नानादि से…….हम तो बस तुझे देखने आये हैं ……..इसलिये तू आना , फिर आना ।
मैया यशोदा बोलती रही…….कन्हैया नें सुना……..सिर हिलाया “हाँ” में …..और मुड़े जानें के लिये……..पर ये कौन है सामनें ?
ललिता सखी ? द्वार पर खड़ी है………गम्भीर है ……….श्याम सुन्दर को देखकर मुस्कुराती भी नही है…….बस अपलक देख रही है ।
ललिता ! कृष्ण नें नाम से पुकारा ।
चलो ! नाम तो नही भूले हो ! मुझे लगा तुम सब भूल गए ।
ललिता का अधिकार है …….इतना व्यंग तो कर ही सकती है ।
क्रमशः ….
शेष चरित्र कल –
🦚 राधे राधे🦚
Niru Ashra: महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (106)
(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )
गोपियों में दास्य का उदय
भगवान के चरणों के तलवे में गंगा, और पञ्जे के ऊपरी हिस्से में यमुना का निवास है। ऊपर साँवरा, नीचे गोरा। और उनके चरणों के नाखून की जो ज्योति है वह प्रकाश सरस्वती है। इस प्रकार भगवान के चरणों में त्रिवेणी का निवास है इसी से जब ध्यान में भगवान के चरणों के नीचे अपना सिर रखते हैं तो आध्यात्मिक आधिदैविक त्रिवेणी में स्नान हो जाता है। श्रीमद्भागवत में एक स्थान पर आया है-
ब्रह्मादयो बहुतिथं यदपांगमोक्षकामाः स्तपः समचरन्भगवत्प्रपन्नाः ।
सा श्रीः स्ववासमरविन्दवनं विहाय यत्पादसौभगमलं भजतेऽनुरक्ताः ।।
भगवान के चरणारविन्द की महिमा कहाँ तक बतावें- ब्रह्म, रुद्र, इन्द्र आदि बड़े-बड़े देवता वर्षों तक शरण लेते हैं भगवान की कि हम भगवत्प्रपत्र हैं और चाहते क्या हैं कि लक्ष्मी जी जरा तिरछी आँख से हमारी ओर देख लें। शरण लेते हैं भगवान की, पर चाहते हैं कि लक्ष्मीजी हमारी ओर जरा एक बार तिरछी नजर से तो देखें। लक्ष्मीजी अपने को छिपाकर रखती हैं, वे नहीं चाहती कि हमारे ऊपर लोगों की निगाह पड़े। और भगवान भी कहें कि हमारी घरवाली इनके ऊपर प्रसन्न हैं, तो हम भी इनको प्रसन्न रखें। नहीं तो लक्ष्मीजी रूठ जायेंगी, भला। भगवान को भी लक्ष्मीजी के रूठने का डर लगा रहता है।
यदि एक बार लक्ष्मीजी हमारी ओर अपांग हो मुस्कुराकर, जरा टेढ़ी आँख से भरी हमारी ओर देख लें, तो हम धन्य धन्य हो जायें। तो ब्रह्म, रुद्र, इन्द्र अपने निवास-स्थान कमलवन का परित्याग करके तपस्या करते हैं कि लक्ष्मी की तिरछी नजर अपने ऊपर पड़ जाय और इसके लिए वे भगवान के शरणागत होते हैं; वही लक्ष्मी उस कमल के जंगल को उन कमलों से भरे हुए क्षीरसागर को छोड़कर यहाँ ब्रज में आती हैं- यत्पादसौभगमलं भजतेऽनुरक्ताः और भगवान के चरणारविन्द का भजन कहती है : ‘सौभगं अलं भजते’ उनके सौन्दर्य की जो छिटपुट बिखरी हुई किरणें हैं उनका दर्शन करती हैं और बड़े प्रेम से चरणारविन्द की सेवा में लगी रहती हैं।+
अब जरा लक्ष्मीजी की तकलीफ देखो। गोपी कृष्ण की चरणधूलि की कामना करती हैं। तो चरणारविन्द की रज की कामना से उनका जो अभिमान था बड़प्पन का, वह चला गया। किसी के चरणों की धूलि होने की इच्छा और बड़प्पन का अभिमान ये दोनों एक साथ नहीं रह सकते। तो अभिमान गया। अब दूसरी बात देखो, अपनी सफाई देने का तरीका। अपने दिल की बात बताने की रीति भी बड़ी विलक्षण है। ‘श्रीर्यत्पदाम्बुजरजश्चकमे’ लक्ष्मीजी जिनके चरणरज की कामना करती हैं; जब लक्ष्मीजी करती हैं तो हम चरणरज की कामना करती हैं तो हमारी कामना तो उचित ही है। अब कहती हैं- ‘तुलस्या लब्ध्वापि वक्षसि पदं किल भृत्यजुष्टम्’ इसमें तीन बातें हैं।
जब लक्ष्मीजी आयीं तब पहले पहल उनका यही ख्याल था कि हम भगवान् की छाती पर ही बैठेंगे। थोड़े दिनों में उनका ख्याल हुआ कि हम वक्षस्थल पर नहीं भगवान् के तलवे पर बैठेंगी। झट उतर गयीं छाती पर से और सामने आकर खड़ी हो गयी। तो भगवान् ने कहा अरे प्रिये, क्या कर रही हो? तुम्हारे लिए ख़ाली स्थान वक्षस्थल पर है, बस, हम तो दो ही वस्तु का आदर करते हैं- एक तो ब्राह्मण के चरणचिह्न को हम अपने वक्षस्थल पर धारण करते हैं, और एक तुमको हम अपने वक्षस्थल पर धारण करते हैं। दोनों से डरते हैं; किसी को हर वक्त छाती पर चढ़ाये रखना यह बिना डरे कैसे होगा? अरे बाबा, प्रेम तो कभी धरती पर बैठावे, अभी शिर पर बैठावे, कभी छाती में बैठावे, कभी मुँह की ओर रखे। कभी पीठ की ओर रखे, प्रेम का मतलब यह थोड़े है कि हर समय छाती पर चढ़ा रहे। तो लक्ष्मी ने कहा- ना बाबा, अब हम छाती पर नहीं चढ़ेगी।
भगवान् बोले- तो कहाँ रहोगी देवी अब? जब बड़े-बड़े लोग तुमको चाहते थे तो तुमने उनका तिरस्कार कर दिया था। तुमने कह दिया था कि यह तो बुड्ढा है। इन्द्र चाहता था तो कह दिया कि यह तो पापी है। रुद्र जब चाहते थे तो कह दिया कि यह तो प्रलय का देवता है। दुर्वासा चाहते थे तो कह दिया था कि क्रोधी है। मारर्कण्डेय चाहते थे तो कह दिया कि इनके तो ज्ञान ही नहीं है। तो सारी दुनियाँ को छोड़कर तुमने न जाने कौन सा गुण देख करके मुझे माला पहनायी। तो हम तुम्हारे इस त्याग का, इस वरण का बड़ा आदर करते हैं। इसलिए तुम अब हमारी छाती पर बैठो। लक्ष्मी जी बोलीं- अब हम छाती पर नहीं बैठेंगी, हम तो पाव में बैंठेगी।++
श्रीशब्द का अर्थ होता है ‘श्रीयते जनैः ब्रह्मादिभिः इति श्रीः’ ब्रह्मा आदि जिसकी शरण ग्रहण करे उसका नाम होता है श्री। अथवा ‘श्रयति परमेश्वर इति श्रीः’ जो परमेश्वर का आश्रय लेकर रहे उसका नाम श्री है। श्री माने शोभा, श्री माने सम्पति, श्री माने समृद्धि, ज्ञान। ज्ञान कहाँ रहता है? सम्पत्ति कहाँ रहती हैं? भगवान के आश्रय में रहती है। शोभा वहाँ रहती है जहाँ भगवान का आश्रय होता है।
भगवान ने कहा- देवी, आप वक्षस्थल पर रहो; लक्ष्मीजी ने कहा- हम तो चरणों में रहेगी। अब महाराज मतभेद हो गया। बोले- देवी, एक बात कहने में संकोच है; आप जानती है कि मैं अकेला तो कभी रहता नहीं; तो वक्षस्थल पर तो तुम अकेली रहती हो और मैं बड़ा आदर से रखता हूँ। लेकिन यदि चरणों में जाकर रहोगी, तो तुलसी भी तो हैं हमारे चरणों में; लोग ला-लाकर तुलसी चढ़ावेंगे, तो तुलसी से तुम्हारा सौतियाडाह हो जावेगा। साँसत में हो जाओगी कि जिन चरणों से मैं प्रेम करती हूँ, उससे तुलसी क्यों प्रेम करे। यह तुलसी घास-पात और मैं लक्ष्मी, क्षीरसागर की बेटी, कौस्तुभमणि की बहन, चंद्रमा की बहन, शंखनिधि की बहन, अमृत की बहन, कल्पवृक्ष की बहिन; मैं भला इस घास-पात तुलसी के साथ रहूँ! चरणों में तो तुलसी रहती है, तो फिर तुमको मेरी याद नहीं आवेगी; अब तुलसी-तुलसी की याद आवेगी, तब तो वह हम बड़े घाटे में हो जायेंगे।
एक बिलकुल सच्ची घटना सुनाते हैं। वृन्दावन की बात है। एक माता है, अभी है, वहाँ तीस-पैंतीस वर्ष से तो मौन रहती है, और फलाहार करती है, पर उस समय फलाहार नहीं करती थी, अन्न खाती थी। उसने हमको बुलाया एक दिन भोजन करने के लिए। उसका ख्याल है कि ठाकुरजी आकर उसके घर भोजन करते हैं। कढ़ी-भात उसने बनाया था। जब हम भिक्षा के लिए घर गये, तो ठाकुर जी उसके घर में अकेले थे। अकेले श्रीकृष्ण खड़े थे बाँसुरी बजाते हुए। मैंने कहा- अकेला क्यों रखा है, राधारानी को साथ क्यों नहीं रखा? वह बोली- अगर राधारानी इनके साथ रहेंगी तो मैं कहूँ रहूँगी- माने राधारानी से भी सौतिया डाह, हे भगवान! तो उसने कहा कि आज ठाकुरजी बहुत प्रसन्न हैं, हमारा कढ़ी भात बहुत बढ़िया बना है।
क्रमशः …….
प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹
Niru Ashra: !! निकुँजोपासना के सिद्धान्त !!
( “सिद्धान्त सुख” – 21 )
गतांक से आगे –
॥ दोहा ॥
भर्म तजौ हरिप्रिया भजौ, सजौ अननि ब्रत एक ।
यही यही निश्चै कही, सही गही उर टेक ॥
॥ पद ॥
यही है यही है भूलि भरमों न कोउ, भूलि भरमें तें भव भटक मरिहौ।
लाड़िलीलाल के नित्य सुखसार बिन, कौंन बिधि वारतें पार परिहौ।।॥
एक अनन्य की टेक उर में धरौ, परिहरौ भर्म ज्यों फूलि फरिहौ।
श्रिया हरिप्रिया के परम पद पासुही, आसु अनयासु ही बासु करिहौ ॥ ११ ॥
*अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड हैं …वो अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड महाविराट के एक रोम में समा जाते हैं …वो महाविराट , जिसके एक रोम में अनन्त ब्रह्माण्ड हैं …वो एक शून्य में समा जाता है । उस शून्य का भी शून्य …कोटि गुना शून्य के शिखर में श्रीवृन्दावन है …जहाँ युगल सरकार विराजमान हैं । मैंने माथा पकड़ लिया …..यही बात मेरे मन में घूम रही है कि कही ऊपर आसमान में है श्रीवृन्दावन धाम । तो ये भौम वृन्दावन क्या है ? जहाँ श्रीबाँके बिहारी लाल हैं , जहाँ श्रीराधाबल्लभ के रूप में युगल सरकार बिराजें हैं ….श्रीराधा रमण के रूप में अपनी प्रिया जी के साथ रमण कर रहे हैं ….फिर ये श्रीवृन्दावन नकली है क्या ? ऊपर कहीं है श्रीवृन्दावन ….आसमान में …….
मेरे मन की बात श्रीहरिप्रिया समझ गयीं थीं ….हंसते हुये मेरी ओर देखा …फिर कहा ……
भ्रम में मत रहो , भ्रम को त्याग दो ….और भ्रम त्याग युगल सरकार को भजो …यहाँ ये बात साधकों के लिए हरिप्रिया जी बताती हैं …..तुम जहाँ हो ….भौम श्रीवृन्दावन …यही है वृन्दावन …यही है यही है …..भूल कर भी मत सोचना कि आसमान में कहीं हैं श्रीवृन्दावन । हाँ , हो सकता है कोई नित्य श्रीवृन्दावन ऊपर हो …किन्तु नित्य वृन्दावन ऊपर है तो ये भौम वृन्दावन भी उसी की प्रतिकृति है ….अब इसमें तुम ये नही कह सकते कि वो असली है और ये पृथ्वी का वृन्दावन नकली है ……नही , वृन्दावन चिद रूप ही होगा ….चाहे वो वहाँ का हो या यहाँ का ।
हरिप्रिया जी स्पष्ट कहती हैं …..भ्रम को त्यागो …..यही है यही है श्रीवृन्दावन ।
फिर आपने इतना सूक्ष्म क्यों बताया ?
प्रेम कितना सूक्ष्म होता है , पता है ?
मैं शान्त हो गया था ।
ये बात एकाएक क्यों बदल दी हरिप्रिया जी ने ? मैं सोच रहा था ।
मेरी समझ में एक ही बात आयी कि …मुख्य बात है भजन , भावना के साथ भजन ….फिर अगर अज्ञात व्योम में किसी लोक की कल्पना में हम लग गये तो भजन तो छूट गया ! भजन मत छोड़ो और जहाँ हो ….भजन से भाव प्रकट होने दो ..श्रीवृन्दावन तो वहीं है । अगर हम किसी अज्ञात व्योम में , किसी लोक की कल्पना में लग गये तो भटक जायेंगे …..भजन छूट जाएगा । हम जिस श्रीवृन्दावन में हैं उसके प्रति भी ये भावना आजाएगी कि …सही श्रीवृन्दावन तो ऊपर है ।
हाँ , तुम जिस श्रीवृन्दावन में हो …वही है वृन्दावन …भटको मत ….भौम वृन्दावन ही , वृन्दावन है …बाकी ऊपर कोई हो भी तो हमें उससे मतलब नही है ।
हरिप्रिया सखी कहती हैं – तुम तो इस तरह दृढ़ प्रतिज्ञा करो कि – मैं एक मात्र श्रीवृन्दावन का आश्रित हूँ ….इसी दृढ़ता से तुम फलोगे फूलोगे ….विनोद करती हैं सखी जी …फूल है तुम्हारा प्रेम और फल हैं युगल सरकार …कहीं मत जाओ …बस श्रीवृन्दावन में ही रहो ….और अपने को युगल सरकार की सेविका मानकर सेवा में लग जाओ …और हाँ , कुछ चाहो मत । फिर देखना सब कुछ यहीं प्रकट होगा ।
इतना ही कहा हरिप्रिया सखी ने ।
शेष अब कल –
Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 6 : ध्यानयोग
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श्लोक 6 . 28
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युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मषः |
सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्र्नुते || २८ ||
युञ्जन् – योगाभ्यास में प्रवृत्त होना; एवम् – इस प्रकार; सदा – सदैव; आत्मानम् – स्व, आत्मा को; योगी – योगी जो परमात्मा के सम्पर्क में रहता है; विगत – मुक्त; कल्मषः – सारे भौतिक दूषण से; सुखेन – दिव्यसुख से; ब्रह्म-संस्पर्शम् – ब्रह्म के सान्निध्य में रहकर; अत्यन्तम् – सर्वोच्च; सुखम् – सुख को; अश्नुते – प्राप्त करता है |
भावार्थ
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इस प्रकार योगाभ्यास में निरन्तर लगा रहकर आत्मसंयमी योगी समस्त भौतिक कल्मष से मुक्त हो जाता है और भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति में परमसुख प्राप्त करता है |
तात्पर्य
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आत्म-साक्षात्कार का अर्थ है – भगवान् के सम्बन्ध में अपनी स्वाभाविक स्थिति को जानना | जीव (आत्मा) भगवान का अंश है और उसकी स्थिति भगवान् की दिव्यसेवा करते रहना है | ब्रह्म के साथ यह दिव्य सान्निध्य ही ब्रह्म-संस्पर्श कहलाता है |
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Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877