Explore

Search

November 23, 2024 12:56 pm

लेटेस्ट न्यूज़

!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 144 !!(2), !! निकुँजोपासना का सिद्धान्त !!, महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (120)& श्रीमद्भगवद्गीता : Niru Ashra

!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 144 !!(2), !! निकुँजोपासना का सिद्धान्त !!, महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (120)& श्रीमद्भगवद्गीता : Niru Ashra

] Niru Ashra: !! निकुँजोपासना का सिद्धान्त !!

( “सिद्धान्त सुख” – 37 )


गतांक से आगे –

॥ पद ॥

मन की रुचि सुचि सेवा करहीं। छिन-छिन प्रति ऐसें अनुसरहीं ॥
भावत जो सोई ढर-ढरहीं। निरखि नवलछबि आनँद भरहीं ॥
कोउ सखि कछू कोउ कछु लीयें। सब ठाढ़ी सनमुख रुख दीयें ॥
तन मन प्रान समर्पन कीयें। अति अनुराग भरी सब हीयें ॥
रहसि रंग रुचि में समुझनियाँ । सहज सनेह नेह-रस सनियाँ ॥
सुठि स्वरूप दंपति मन मनियाँ । आनँद कंदनि चंदबदनियाँ ॥
सप्तमि सखी तुंगविद्या गनि । बिसद बिलास कला में बितपनि ॥
मंजुमेधिका आदि आठ भनि । आठ-आठ इनिकें अलि रहि बनि ॥

*मैंने तुमसे कहा था ना ….सखी भाव में सभी भाव सम्मिलित हैं …दास्य भाव …के कारण ये सखियाँ अपने को “राधा दासी” कहती हैं …युगल चरणों का ध्यान करती हैं …चरण चाँपती हैं ….वात्सल्य भाव के कारण मनुहार करके खिलाती हैं ….रास में ज़्यादा नाच उठे हैं युगलवर तो रास को रुकवा भी देती हैं …ये सब वात्सल्य के कारण ही है । हरिप्रिया जी सहज भाव से मुझे ये सब बता रहीं थीं ….और इतना ही नहीं …सख्य रस भी इनमें भरा है ….सख्य रस के कारण ये युगल से विनोद करती हैं ….छेड़ती हैं …और अपनी ओर से सलाह भी देती हैं । हरिप्रिया जी बड़ी प्रसन्न हैं ….वो मुझ से कहती हैं ….अब देखो – मैं तुम को दर्शन कराती हूँ …सख्य रस से परिपूर्ण युगल सरकार की सातवीं सखी …इतना कहते ही मेरे सामने एक महल प्रकट हो गया था ….ये महल लताओं से आच्छादित और मणियों सज्जित था …उसमें मैंने देखा एक अति सुन्दर सखी जी थीं …उनका मुखमण्डल दमक रहा था ….वो वीणा हाथों में लेकर बजा रहीं थीं ….उनके साथ कई सखियाँ थीं …जो मृदंग, झाँझ , ढोल ले कर ताल का अभ्यास कर रहीं थीं …..उनका चहकना , उनका लालित्य , माधुर्य राग मय था । ये कौन सी सखी जी हैं ? मैंने हरिप्रिया जी से पूछा ….मुझे इनको देखते ही गीत आदि गुनगुनाने की इच्छा हो गयी थी ….”गौरी श्याम सलोनी जोरी , सरस माधुरी पीजिए”…..सखियाँ भी तो यही गुनगुना रहीं थीं ।

ये हैं ….युगल सरकार की अष्ट सखियों में सातवीं सखी …”श्रीतुंगविद्या” जी ।

ये रागरागिनी द्वारा युगल को प्रसन्न करती हैं …ये निहारती रहती हैं युगल को और उनके हाव भाव को देखकर ये राग छेड़ती हैं …वीणा वादन करती हैं ….जिससे वातावरण राग मय हो जाता है …..फिर इनके साथ की सखियाँ अपनी सखी जू का साथ देती हुयी गायन भी करती हैं ….गायन से युगल को सुख देती हैं ….जिससे युगलवर मुस्कुरा उठते हैं । उनकी मुस्कुराहट में ये अपने प्राण वार देती हैं ।

मैं इन सखी जू को देखकर प्रसन्नचित्त था ….अति प्रसन्न ! आनन्द की सार स्वरूपा थीं ये सब सखियाँ ….चन्द्रमुखी , क्या मुखमण्डल खिला हुआ था ….और मुख्य सखी जी …श्रीतुंगविद्या जी …..ये तो साक्षात संगीत की अवतार ही लग रहीं थीं …..इनकी अष्ट सखियाँ …राग रंग का रूप ही लगतीं , युगल के विषय में ये सख्य भाव से भरी थीं …..राधा – राधा ….इनके मुखारविंद से मैंने सुना …..तो हरिप्रिया जी से पूछा ….श्रीराधा नहीं ? हरिप्रिया जी हंसते हुए बोलीं ….जिनमें सहज आत्मीयता है ….सर्वस्व वहीं हैं ….तो वहाँ “श्री” आदि औपचारिकता की आवश्यकता कहाँ है ! फिर ये सखियाँ सख्य भाव से भी भरी हैं ….वैसे भी मैत्री में कहाँ …”श्री” और कहाँ “जी” ?

ये श्रीतुंगविद्या जी की अष्ट सखियाँ हैं ….जो मृदंग आदि का अभ्यास कर रहीं हैं ….

मुझे इनके नाम बताये …श्रीतुंगविद्या जी की अष्ट सखियों के दर्शन और उनके नाम ……

मंजुमेधिका जी , सुमेधिका जी , तनमेधा जी, गुण चूड़ा जी , वरांगदा जी , मधुस्पंदा जी , मधुरा जी और मधुरेक्षणा जी । मुझे बहुत आनन्द आरहा था …मेरे सामने ये सखी जन अद्भुत सेवा भाव से भरी और प्रेम में पगी थीं । मैंने प्रणाम किया श्रीतुंगविद्या जी को ..और उनकी सखियों को भी ।

शेष अब कल –
महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (120)


(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )

गोपियों में दास्य का हेतु-2

प्रेम का बाप विश्वास और प्रेम की उपलब्धि, प्रेम का फल; प्रेम का रसीला फल, सेवा है; जिससे प्रेम होता है उसकी सेवा होती है। तो यह दास्य जो है, वह सर्व रसों के प्रकट होने का मूलस्थान है। गोपियों ने कहा कि यदि हम मूलको, जड़ को पकड़ लेंगे तो शाखा-पल्लव अपने-आपही पकड़ में आ जायेंगे। बोले-भाई, प्रत्येक वस्तु की अभिव्यक्ति का एक नियम होता है, तो तुम्हारे हृदय में दास्य रस की जो अभिव्यक्ति हुई, दास्य रस जाहिर हुआ, वह किस निमित्त से हुआ? तो बताती हैं-

वीक्ष्यालकावृतमुखं तव कुण्डलश्रीगण्डसथलाधरसुधं हसितावलोकम् ।
दत्ताभयं च भुजदण्डयुगं विलोक्य वक्षः श्रियैकरमणं च भवाम दास्यः ।।

इसमें पहले एक शब्द पर ध्यान देने लायक है- वीक्ष्य और विलोक्य-विलोक्य वक्षः और वीक्ष्यालकावृतमुखं। साधारण रूप से दोनों शब्दों का अर्थ एक ही है वीक्ष्य माने देखकर और विलोक्य माने देखकर। तो कहा कि भाई, गोपी प्रेम में बोल रही हैं, और प्रेम के मार्ग में नेत्रों का स्थान मुख्य है, ऐसा मानते हैं; चक्षुरागस्य प्रथमम्- राग पहले आँख में से निकलता है, माने आँख से आँख पहले मिलती है। पहले दिल-दिल की प्रीति नहीं होती, पहले हाथ-हाथ की प्रीति नहीं होती, पहले आँख-आँख की प्रीति होती है। जब तक ज्ञान समान नहीं होगा, तब तक प्रेम कहाँ से आवेगा? नयनप्रीति प्रथमम्; नयन-प्रीति का अर्थ है, ज्ञान में समानता। इसी से देखो श्रीकृष्ण भगवान राधारानी से कहते हैं :

प्यारी जू, जैसे हौं तुम्हारी आँखिन में अपनपव देखत,
तैसी तुम देखत हौं किधौ नाहिं ।। +

तुम्हारी आँखों में जैसा अपनपव मैं देखता हूँ, वैसा तुम मेरी आँख में देखती हो कि नहीं देखती हो? आँख में अपनपव देखने से समझो कि श्यामसुन्दर राधारानी के इतने निकट हैं कि उनकी आँख में अपनी परछाईं दिख रही हैं; अब वे कहते हैं कि तुम भी हमारी आँख में अपनी परछाईं देखती हो कि नहीं? आँख में परछाईं देख लेना, यह कितना पास होना है। प्रेम के मार्ग में पहला कदम चक्षुराग-नैन प्रीति है। आप कभी भगवान का ध्यान करें, तो यदि केवल आँख का ध्यान करें, आँख से आँख मिला दें, भगवान की आँख में आप अपनी परछाईं देखें और भगवान आपकी आँख में अपनी परछाईं देखें तो आपका ध्यान टूटने का नाम नहीं लेगा। यह वीक्षण है। इसके बाद मन में संकल्प उठता है, संकल्प के बाद लालसा आती है, फिर व्याकुलता होती है, फिर मिलने का प्रयत्न होता है- इसमें अनेक भूमिका आती हैं।
तो वीक्ष्य और विलोक्य, इन दोनों असमाप्त क्रियापदों का प्रयोग एक ही श्लोक में दो बार होवे तो इनका मतलब ‘देख लिया’ ऐसा नहीं है। ‘वीक्षांश्चक्रे’ नहीं है भला, ‘विलोकयामास’ नहीं है; तब क्या है? कि वीक्ष्य, विलोक्य- अर्थात् देख देखकर, देखने से कभी तृप्ति नहीं होती।
जनम-अवधि हम रूप निहारिन नैन ना तृपित भयेल। यह विद्यापति का पद है जिसको प्रेम में तृप्ति हो जाती है उसको कहते हैं कि यह योगी हो गया, यह ज्ञानी हो गया। प्रेम में तो प्यास और रस, रस और प्यास- इन्हीं के पुनः-पुनः उत्थान का नाम प्रेम है, प्यास जगे तृप्ति हो, और तृप्ति के बाद फिर प्यास जगे, और फिर तृप्ति हो, और फिर प्यास जगे, और फिर तृप्ति हो। यह प्रेम जो है वह तृप्ति और प्यास की जोड़ी है। तो वीक्ष्य-वीक्ष्य, विलोक्य-विलोक्य- ऐसा यहाँ भाव है।

अब देखो दोनों को अलग-अलग करना हो तो एक को संबोधन कर लो-

हे वीक्ष्य वीक्षितुं योग्यः वीक्ष्यः तत् संबोधने हे वीक्ष्य ।

अरे, देखने लायक दुनिया में कोई है तो श्रीकृष्ण ही हैं। इसलिए उसको संबोधित करती हुई गोपी कहती है- हे वीक्ष्य!++

एक दिन व्रज में एक ग्वालिनी आँख बन्द करके ध्यान कर रही थी। बोले- अरे ग्वालिनी, निकल जा व्रज से। तू व्रज में रहने लायक नहीं है। व्रज में कहीं आँख बन्द करके प्यारे को देखा जाता है? यहाँ खुली आँख से देखने का है; यहाँ तो प्यारा सूक्ष्म नहीं है; स्थूल है। वृन्दावन में अपना प्यारा है, ब्रह्म नहीं है, अन्तर्यामी नहीं है, गोलोकाधिपति नहीं है, किसी सूक्ष्मलोक का कोई देवता नहीं है; वह तो इसी मूलभौतिक लोक में रहता है। प्रेम की यह महिमा है, यह ब्रह्म का साधारणीकरण है। यह वृन्दावन जो है, वह ब्रह्म को सातवें आसमान से धरती पर उतारता है। यह अचिन्त्य, अनन्त, अनिर्वचनीय, अनिर्देश्य ब्रह्म को व्यवहार की भूमि में लाता है। इसलिए वीक्ष्य माने वीक्षणीय, जिनके सिवाय और कुछ देखने लायक नहीं है-

बावरी वे अँखियाँ जरि जायँ, जो साँवरो छाँड़ि निहारति गोरो,

श्यामसुन्दर हों सामने, और आँख बन्द हो गयीं- बोले क्यों समाधि लग गयी? चपत मार के समाधि तुड़वाओ। श्रीकृष्ण सम्मुख और समाधि लग जाय? बोले-भाई, जाके गोलोक में उनको प्राप्त करेंगे, नासमझ हो। यहाँ तो वीक्ष्य है, वीक्षणीय है। वीक्ष्य शब्द का तीसरा अर्थ भी है; संस्कृत भाषा में ‘वि’ पक्षी को कहते हैं। पक्षिभिः शकुनी वीनामपि ईक्षणीयः, वीक्ष्य वीनामपि ईक्ष्य वीक्ष्यः। जिनको देखकर पशु-पक्षी भी आनन्द में मग्न हो जाते हैं, वह है वीक्ष्य।

सरसि सारस हंस बिहंगा, चारु मीत हित चेतक हेरय ।
हरि उपासत तेयक चिन्ता, हंस वीलित वृषोघृत मूणाः ।।

क्रमशः …….

प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹

Niru Ashra: 🌲🍁🌲🍁🌲🍁🌲

!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 144 !!

श्रीराधारानी द्वारा द्रोपदी को “प्रेमतत्व” की शिक्षा
भाग 2

🌹🙏🌹🙏🌹

हे राधिके ! आपके विषय में कौन नही जानता ……….सखा कृष्ण नें ही कई बार आपकी चर्चा की है……..और चर्चा करते हुए बड़े भावुक हो उठते हैं………पर मैने उनकी बातों को कभी गम्भीरता से नही लिया था…….किन्तु ! एक दिन मेरे पतिदेव अर्जुन वृन्दावन चले गए मैने सुना ……..वृन्दावन क्यों गए होंगें …….मैं सोचती रहती थी ……कई दिनों के बाद मेरे पतिदेव लौटकर आये………तब उन्होंने आपके बारे में जो बताया वो विलक्षण था………..आप ब्रह्म की आल्हादिनी हैं ……आप ही प्रेम हैं ……आप सौन्दर्य की देवी हैं ………..हे राधिके ! बहुत कुछ कहा था मेरे पति अर्जुन नें …………आप प्रेम का साकार रूप हैं ………और मैं क्या कहूँ ……….तब से मेरे मन में यही कामना थी ………कि आपके दर्शन कर लूँ एक बार ……….आपके चरण की धूलि अपनें माथे से लगा लूँ ………मेरी इच्छा पूरी हो गयी ……ये कहते हुए द्रोपदी श्रीराधारानी के चरणों में गिर गयी थीं ।

हे अर्जुनप्रिया ! उठो ……….हे याज्ञसेनी ! बताओ क्या जानना चाहती हो …….पर एक बात कहूँ ? मुझे तुमसे शिकायत भी है ……श्रीराधारानी नें कहा था ।

मैं आपसे “प्रेमतत्व” पर कुछ सुनना चाहती थी ……..पर आपको तो मुझ से शिकायत है …………द्रोपदी मुस्कुराई ।

“प्रेम तत्व” को लेकर ही शिकायत है ……..प्रेम करती हो तुम श्याम सुन्दर से……मुझे पता है ……….पर प्रेम के वास्तविक स्वरूप को नही जानती ………श्रीराधारानी नें कहा ।

मैने सुना है ……………भरी सभा में जब तुम्हे नग्न किया जा रहा था ……उस समय तुमनें कृष्ण को पुकारा था ………..बेचारे भोजन कर रहे थे …………भोजन को छोड़कर वे दौड़ पड़े ………….

नयन बरस पड़े थे श्रीराधारानी के ।

कौन सी आफ़त आगयी थी……..जो अपनें प्रेमास्पद को इतना कष्ट दिया तुमनें……….श्रीराधारानी भाव में बोल रही थीं ।

क्या होता ? ये शरीर ही तो नग्न होता………फिर क्या फ़र्क पड़ता है ………..ये शरीर तो एक दिन राख बनेगा …..या फेंक देंगें तो कुत्ते खा जायेगें………ऐसे शरीर के लिये तुमनें कष्ट दिया अपनें प्रियतम को ? श्रीराधारानी बोलीं ………हे द्रोपदी ! ये प्रेम है ….ये प्रेम का मार्ग है ………….प्रेम इतना सरल नही है ………..प्राणों की बलि देकर भी प्रेम अगर मिलता है द्रोपदी ! तो सस्ता है ……..ले लो प्रेम ।

क्रमशः …..
शेष चरित्र कल –

☘️ राधे राधे☘️
Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता

अध्याय 6 : ध्यानयोग
💚💚💚💚💚💚
श्लोक 6 . 44
💚💚💚
पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियत ह्यवशोSपि सः |
जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते || ४४ ||

पूर्व – पिछला; अभ्यासेन – अभ्यास से; तेन – उससे; एव – ही; ह्रियते – आकर्षित होता है; हि – निश्चय ही; अवशः – स्वतः; अपि – भी; सः – वह; जिज्ञासुः – उत्सुक; अपि – भी; योगस्य – योग के विषय में; शब्द-ब्रह्म – शास्त्रों के अनुष्ठान; अतिवर्तते – परे चला जाता है, उल्लंघन करता है |
भावार्थ
💚💚
अपने पूर्वजन्म की दैवी चेतना से वह न चाहते हुए भी स्वतः योग के नियमों की ओर आकर्षित होता है | ऐसा जिज्ञासु योगी शास्त्रों के अनुष्ठानों से परे स्थित होता है |

तात्पर्य
💚💚
उन्नत योगीजन शास्त्रों के अनुष्ठानों के प्रति अधिक आकृष्ट नहीं होते, किन्तु योग-नियमों के प्रति स्वतः आकृष्ट होते हैं, जिनके द्वारा वे कृष्णभावनामृत में आरूढ हो सकते हैं | श्रीमद्भागवत में (३.३३.७) उन्नत योगियों द्वारा वैदिक अनुष्ठानों के प्रति अवहेलना की व्याख्या इस प्रकार की गई है –

अहो बत श्र्वपचोऽतो गरीयान् यज्जिह्वाग्रे वर्तते नाम तुभ्यम् |
तेपुस्तपस्ते जुहुवः सस्नुरार्या ब्रह्मानूचुर्नाम गृणन्ति ये ते ||

“हे भगवान्! जो लोग आपके पवित्र नाम का जप करते हैं, वे चाण्डालों के परिवारों में जन्म लेकर भी अध्यात्मिक जीवन में अत्यधिक प्रगत होते हैं | ऐसे जपकर्ता निस्सन्देह सभी प्रकार के तप और यज्ञ कर चुके होते हैं, तीर्थस्थानों में स्नान कर चुके होते हैं और समस्त शास्त्रों का अध्ययन कर चुके होते हैं |”

इसका सुप्रसिद्ध उदाहरण भगवान् चैतन्य ने प्रस्तुत किया, जिन्होंने ठाकुर हरिदास को अपने परमप्रिय शिष्य के रूप में स्वीकार किया | यद्यपि हरिदास का जन्म एक मुसलमान परिवार में हुआ था, किन्तु भगवान् चैतन्य ने उन्हें नामाचार्य की पदवी प्रदान की क्योंकि वे प्रतिदिन नियमपूर्वक तीन लाख भगवान् के पवित्र नामों- हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे – का जप करते थे | और चूँकि वे निरन्तर भगवान् के पवित्र नाम का जप करते रहते थे, अतः यह समझा जाता है कि पूर्वजन्म में उन्होंने शब्दब्रह्म नामक वेदवर्णित कर्मकाण्डों को पूरा किया होगा | अतएव जब तक कोई पवित्र नहीं होता तब तक कृष्णभावनामृत के नियमों को ग्रहण नहीं करता या भगवान् के पवित्र नाम हरे कृष्ण का जप नहीं कर सकता |

admin
Author: admin

Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877

Leave a Comment

Advertisement
लाइव क्रिकेट स्कोर
कोरोना अपडेट
पंचांग