!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 22 !!
“वो अलबेला केवट” – एक प्रेम की झाँकी
भाग 1
मात्र आस्तिक हो ….या श्रीहरि का स्मरण भी करते हो ?
स्मरण मात्र करते हो …या स्मरण करते हुए भीतर कहीं भीगते भी हो ?
नेत्र सजल होते हैं कभी ? या मात्र संसार के रिश्तेदारी को ही निभानें में समय बर्बाद कर रहे हो ?
स्मरण करो उस प्यारे से साँवरे का ………पर मन से करो ………
तुम्हारे भीतर सांसारिक प्यार के जितनें रूप हैं ना ……..ईर्श्या, मोह, खीज, उत्कण्ठा , प्रतीक्षा , मिलना, और एकदम उसी में लय होजाना ।
अरे ! इन्हीं को कभी गम्भीरता से समझ लिए होते ………..क्या कभी इन की गहराई में भी गए ? अपनें भीतर श्रीराधाभाव को पा लेते तुम, अगर इन सब को भी समझ लेते तो ।
पर तुम जो भी करते हो ……..आधा अधूरा ही तो करते हो ……..”चाह” तुम्हारी …….भले ही संसारी पुरुष या स्त्री की हो…..पर उस “एक” में भी तुम पूरी तरह डूबे कहाँ ? अगर डूब जाते तो अपनें ही भीतर विराजे “श्रीराधा माधव” को पा लेते …….पर ।
जब किसी के लिये तुम्हारा हृदय धड़का ……..तब तुममें कुछ कौतुहल जागा ही नही ………ये स्त्री छूटी ….या ये पुरुष छूटा …..तो फिर दूसरे पुरूष की तलाश में निकल गए ……या दूसरी स्त्री को खोजनें लगे……..पर तड़फ़ स्त्री या पुरुष की नही थी……तड़फ़ थी प्रेम की ……..एक प्रेम लीला जो तुम्हारे अन्तःस्थल में चल ही रही है………आत्मा तड़फ़ रही है ……..परमात्मा से मिलनें …….परमात्मा तड़फ़ता है आत्मा से रमण करने के लिए……..इस मूल बात को नही समझे तुम……….और अभी भी कहाँ समझ रहे हो ।
काश ! उस प्रेम लीला में अपनें आपको झोंक दिया होता…….उस प्रेम लीला में …….जो निरन्तर चल रही है ……सनातन…….अनादि काल से ……..क्या अभी भी हिम्मत है उस प्रेमलीला में अपनें अहं को विसर्जन करनें की ?……..पर दिक्कत ये रहेगी कि ……तुम नही रहोगे फिर…….तुम मिट जाओगे ……….यही डर है ना तुम्हे ?
पर मंजिल तो यही है कब तक डरे रहोगे ………………..
महर्षि शाण्डिल्य वज्रनाभ के माध्यम से हमें ही समझा रहे हैं ।
श्रीदामा ! देख ना ! तेरी बहन राधा जिद्द कर रही है कि “मैं भी दधि बेचनें सखियों के साथ जाऊँगी” ……अब इसे समझा !……क्या ये “बृषभान राजनन्दिनी” को शोभा देगा !…….मै समझा समझा कर थक गयी श्रीदामा ! अब अपनी बहन को तू ही समझा !
कीर्तिरानी अपनें बड़े पुत्र श्रीदामा से राधारानी की शिकायत कर रही थीं …………
“दधि बेचने जाना गोप कन्या के लिये कोई अनुचित कार्य तो है नही”
श्रीदामा इतना बोल कर चल दिए नन्दगाँव की ओर ।
देखा ! श्रीदामा भैया भी मान गए………मैया ! मेरा मन नही लगता यहाँ बैठे बैठे ……सखियों के साथ जाऊँगी ………क्या हुआ तो ?
जिद्द ही कर बैठीं थीं आज ये कीर्तिकिशोरी ………..मानीं ही नहीं ।
अरे ! क्या हुआ ? हमारी लाड़ली कैसे आज मुँह फुला कर बैठी है ?
बृषभान जी भी आगये थे यमुना से ……और रूठी अपनी लाड़ली राधा को गोद में लेकर बड़े प्यार से पूछ रहे थे ।
“मुझे सखियों के साथ दधि बेचनें जाना है बाबा !
ओह ! बस इतनी बात ? बृषभान जी प्रसन्न मुद्रा में बोले ।
पर लोग क्या कहेंगें ? की बरसानें के अधिपति अब अपनी बेटी को दही बेचनें भेज रहे हैं ! कीर्तिरानी नें कहा ।
गोप कन्या है राधा भी ………..अब गोप कन्या दही बेचे तो इसमें गलत क्या ?
और वैसे भी इसकी सखियाँ तो जाती ही हैं ………….मन लग जाएगा अपनी राधा का …………जानें दो …………समाज के लोग और प्रसन्न होंगें ……कि देखो ! कितनी सरलता और सहजता है महल के लोगों में …….सामान्य लोग और विशेष लोग …….ये भेद हमारे बरसानें में कभी रहा नही………..मैं सदैव इसका विरोधी रहा हूँ ।
बृषभान जी बड़ी दृढ़ता से बोल रहे थे ।
तो बाबा ! मैं जाऊंगीं ना ! कल से दही बेचनें ?
राधा रानी नें फिर पूछा ।
हाँ ….तुम जाओगी ………..जाना राधा !
बस ख़ुशी से उछल पड़ी थीं श्रीराधा रानी ।
कोरी ( नयी ) मटकी मंगवाई थी आज कीर्तिरानी नें …….मटकी में दही भर दिया था ……मटकी छोटी थी ………ताकि उठानें में कोमलांगी श्रीराधा को कोई कष्ट न हो ………….जैसे माखन चुराना कृष्ण की बाल चपलता थी …..नही तो जिसके यहाँ नौ लाख गौ हों ……वह भला क्यों चुरानें लगे माखन ………।
ऐसे ही जिनके बरसानें में ऋद्धि सिद्धि वास कर रही हों ……..वो दही बेचनें जायेगी ?……..पर जा रही हैं आज ये …….और कारण ?
कारण वही है …..अपनें साँवरे से मिलना …..उसे देखना ……..बस ।
सखियाँ भी आज सब प्रसन्न हैं …….लाडिली आज हमारे साथ दही बेचनें चलेंगी …………पहले तो किसी को विश्वास न हुआ …….पर ललिता नें समझाया ………पगली ! राजकिशोरी जैसा व्यवहार कभी हमारी श्रीजी नें तुम्हारे साथ किया है क्या ?
ना जी ! हम तो उनके साथ जब भी रहती हैं …..लगता है हमारी ही सखी हैं …………कभी कभी गलवैयाँ भी डाल लेती हैं वो तो ……..ये कहते हुए सखी के भाव विभोर हो गयी थी ।
अच्छा ! चल अब ……….”श्रीजी” के महल की ओर ।
सब सखियाँ सिर में दही की मटकी लेकर चल पडीं ………महल ।
आहा ! कितनी प्यारी लग रही हैं आज हमारी भानु दुलारी ………
छोटी सी ……..कोमल इतनी मानों छुई मुई …….गौर वर्णी और बिजुली की सी आभा…….नीले रँग का लहंगा पहनी हुयीं हैं ।
नजर न लग जाए मेरी लाडिली को …………ए सखियों ! मेरी राधा का ख्याल रखना ……इसे कुछ होना नही चाहिये……कीर्तिरानी ने सब सखियों को समझाया ।
क्रमशः ….
शेष चरित्र कल –
छोटी सी ……..कोमल इतनी मानों छुई मुई …….गौर वर्णी और बिजुली की सी आभा…….नीले रँग का लहंगा पहनी हुयीं हैं ।
नजर न लग जाए मेरी लाडिली को …………ए सखियों ! मेरी राधा का ख्याल रखना ……इसे कुछ होना नही चाहिये……कीर्तिरानी ने सब सखियों को समझाया ।
कुछ नही होगा…….हम पलकों में रखेंगी इन्हें……आप चिन्ता न करो कीर्ति मैया ! ललिता सखी नें समझाया …..और चल पडीं श्रीराधा रानी को आगे करके सब सखियाँ दही बेचनें ।
अब बताओ ! कहाँ जायेगें दही बेचनें ? ललिता सखी नें पूछा … पूछना तो आवश्यक था …क्यों की दही बेचना ही उद्देश्य नही था न ।
हे वज्रनाभ ! इतना स्मरण रखना ………यहाँ जो श्रीराधा रानी कह रही हैं ……वो बड़ी गूढ़ बात है…….महर्षि शाण्डिल्य नें सावधान किया ।
श्रीराधारानी कहती हैं ….हे सखी ! वहीँ चलो …..जहाँ हमारे कृष्ण हों ……..क्यों की इससे दोनों काज संध जाएंगे ……दही का बेचना भी हो जाएगा …..और कृष्ण भी मिल जायेंगें ।
वज्रनाभ सुनकर आनन्दित हुए …..आहा ! हे गुरुदेव ! कितनी गूढ़ और रहस्य की बात यहाँ श्रीराधारानी नें कही है ……..
संसार के मनुष्यों को ये बात समझनी चाहिये ………ऐसा कार्य करें ……जिससे हमारा स्वार्थ और परमार्थ दोनों संध जाए ।
हाँ वज्रनाभ !
महर्षि शाण्डिल्य अपनें श्रोता की समझ से प्रसन्न हुये और कहनें लगे –
“तो फिर नन्द गांव ही चलें……..क्यों की आपका साँवरा तो वहीँ है”
सखियों नें हँसते हुए कहा …….और – सब सखियाँ नौका में बैठकर नन्दगाँव गयीं ………”कोई दही लो ! कोई दही लो” ……….”कोई तो लो दही ! नन्दगाँव की गलियों में आवाज लगाती हुयी सखियाँ चल रही हैं …..आगे आगे मीठी बोली में श्रीराधा रानी भी बोलती जा रही हैं ………….पर ……
सखियों ! लगता है नन्दलाल यहाँ नही हैं …………श्रीराधारानी उदास हो गयीं …………तो कहाँ गए होंगें नन्दलाल ? ललिता सखी ने अपनें आँचल से हवा करते हुए पूछा ।
एकाएक उठीं श्रीराधारानी …………वृन्दावन चलो !
पर अब साँझ होनें वाली है………..ललिता नें सावधान किया ।
चलो ना ………कुछ नही होता ……….आजायेंगीं जल्दी “उन्हें” एक बार देखकर आजायेंगीं ………चलो !
श्रीराधा रानी की बात कौन टालता ……….नौका में वापस बैठ गयीं सब ……….और चल पड़ीं वृन्दावन की ओर ।
बस बस , यहीं नौका को लगा दो …..और देखती हैं कि कन्हैया इधर उधर ही होंगें……..शीघ्र ही श्रीराधा रानी उतरीं, उनके पीछे सखियाँ वृन्दावन में उतरीं …….और वन में खोजनें के लिये चल पडीं …….”उधर होंगे”……..ललिता ! देख तो उधर से धूल उड़ रही है …शायद उधर होंगें ……..देख ! वहाँ मोर नाच रहे हैं मेरे श्याम उधर ही होंगे ।
सखियाँ इधर उधर दौड़ रही हैं ………श्रीराधा रानी भी ……पर नही, नही मिले श्याम ………..उदासी घनी हो गयी ………मन में दुःख हो रहा है ………. “ओह ! प्यारे को आज मैं देख नही पाई”………..आज का दिन कितना खराब गया ।
तभी ……ललिता चिल्लाई ………..लाडिली ! यमुना में जल बढ़ गया है ………और हमारी नौका बह गयी ।
सखियों के सामनें ही नौका बह गयी …………….ओह !
आज तो दिन ही खराब था …………….इंदुलेखा नें कहा ।
हाँ ….सही कह रही हो……..”जिस दिन श्याम न दीखें …..वो दिन तो सच में ही खराब ही है …….श्रीराधा रानी के नेत्र सजल हो उठे ।
अरे ! लाडिली ! ये तो सही बात है …….पर अब जाएँगी कैसे बरसानें ?
और अगर ये बात बृषभान बाबा को पता चल गयी कि आप और हम यहाँ फंस गए हैं ….तो वो कल से आपको कहीं भी जानें आनें नही देंगें ।
ये बात सुनते ही…….श्रीराधा रानी और दुःखी हो गयीं……..कि कल से हम नही आ पाएंगीं …..और कल भी श्याम सुन्दर को नही देख पाएंगीं !
ललिते ! कुछ कर ……कोई नौका कहीं से आरही हो या जा रही हो ……उसे मोल हम ज्यादा देंगीं, पर हमें ले जाए …..जल्दी ……….नही तो कल हम नही आ पाएंगी ……….श्रीराधा रानी ललिता सखी से कहनें लगीं ।
देख रही हूँ ……..शाम भी ढलनें वाली है ……..मुझे ही डाँट पड़ेगी कीर्ति मैया की ………………सब सखियाँ यमुना में कोई नौका वाला मिले यही देखनें लगी थीं ………………
तभी –
“ये जग नैया हमार, नैया में हम हैं और हम में किनार”
बड़े प्यार से गाता हुआ……मस्ती में झूमता हुआ……एक सुन्दर सा किशोर ………सिर में गमछा बाँधे …….. हाथ में पतवार चलाते हुए नौका को लेकर चला आरहा था ।
ओ ! केवट ! केवट ! सुन ! सारी सखियाँ चिल्ला पडीं ।
पर ये किसी की सुन ही नही रहा ………..बस अपनी ही मस्ती में नौका चलाये जा रहा है ……………
“करें बिन पैसा पार, नैया में हम हैं और हम में किनार”
गानें में ही इतना मस्त है …..कि उसे किसी की आवाज ही सुनाई नही दे रही …………….।
क्रमशः ….
शेष
!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 22 !!
“वो अलबेला केवट” – एक प्रेम की झाँकी
भाग 2
छोटी सी ……..कोमल इतनी मानों छुई मुई …….गौर वर्णी और बिजुली की सी आभा…….नीले रँग का लहंगा पहनी हुयीं हैं ।
नजर न लग जाए मेरी लाडिली को …………ए सखियों ! मेरी राधा का ख्याल रखना ……इसे कुछ होना नही चाहिये……कीर्तिरानी ने सब सखियों को समझाया ।
कुछ नही होगा…….हम पलकों में रखेंगी इन्हें……आप चिन्ता न करो कीर्ति मैया ! ललिता सखी नें समझाया …..और चल पडीं श्रीराधा रानी को आगे करके सब सखियाँ दही बेचनें ।
अब बताओ ! कहाँ जायेगें दही बेचनें ? ललिता सखी नें पूछा … पूछना तो आवश्यक था …क्यों की दही बेचना ही उद्देश्य नही था न ।
हे वज्रनाभ ! इतना स्मरण रखना ………यहाँ जो श्रीराधा रानी कह रही हैं ……वो बड़ी गूढ़ बात है…….महर्षि शाण्डिल्य नें सावधान किया ।
श्रीराधारानी कहती हैं ….हे सखी ! वहीँ चलो …..जहाँ हमारे कृष्ण हों ……..क्यों की इससे दोनों काज संध जाएंगे ……दही का बेचना भी हो जाएगा …..और कृष्ण भी मिल जायेंगें ।
वज्रनाभ सुनकर आनन्दित हुए …..आहा ! हे गुरुदेव ! कितनी गूढ़ और रहस्य की बात यहाँ श्रीराधारानी नें कही है ……..
संसार के मनुष्यों को ये बात समझनी चाहिये ………ऐसा कार्य करें ……जिससे हमारा स्वार्थ और परमार्थ दोनों संध जाए ।
हाँ वज्रनाभ !
महर्षि शाण्डिल्य अपनें श्रोता की समझ से प्रसन्न हुये और कहनें लगे –
“तो फिर नन्द गांव ही चलें……..क्यों की आपका साँवरा तो वहीँ है”
सखियों नें हँसते हुए कहा …….और – सब सखियाँ नौका में बैठकर नन्दगाँव गयीं ………”कोई दही लो ! कोई दही लो” ……….”कोई तो लो दही ! नन्दगाँव की गलियों में आवाज लगाती हुयी सखियाँ चल रही हैं …..आगे आगे मीठी बोली में श्रीराधा रानी भी बोलती जा रही हैं ………….पर ……
सखियों ! लगता है नन्दलाल यहाँ नही हैं …………श्रीराधारानी उदास हो गयीं …………तो कहाँ गए होंगें नन्दलाल ? ललिता सखी ने अपनें आँचल से हवा करते हुए पूछा ।
एकाएक उठीं श्रीराधारानी …………वृन्दावन चलो !
पर अब साँझ होनें वाली है………..ललिता नें सावधान किया ।
चलो ना ………कुछ नही होता ……….आजायेंगीं जल्दी “उन्हें” एक बार देखकर आजायेंगीं ………चलो !
श्रीराधा रानी की बात कौन टालता ……….नौका में वापस बैठ गयीं सब ……….और चल पड़ीं वृन्दावन की ओर ।
बस बस , यहीं नौका को लगा दो …..और देखती हैं कि कन्हैया इधर उधर ही होंगें……..शीघ्र ही श्रीराधा रानी उतरीं, उनके पीछे सखियाँ वृन्दावन में उतरीं …….और वन में खोजनें के लिये चल पडीं …….”उधर होंगे”……..ललिता ! देख तो उधर से धूल उड़ रही है …शायद उधर होंगें ……..देख ! वहाँ मोर नाच रहे हैं मेरे श्याम उधर ही होंगे ।
सखियाँ इधर उधर दौड़ रही हैं ………श्रीराधा रानी भी ……पर नही, नही मिले श्याम ………..उदासी घनी हो गयी ………मन में दुःख हो रहा है ………. “ओह ! प्यारे को आज मैं देख नही पाई”………..आज का दिन कितना खराब गया ।
तभी ……ललिता चिल्लाई ………..लाडिली ! यमुना में जल बढ़ गया है ………और हमारी नौका बह गयी ।
सखियों के सामनें ही नौका बह गयी …………….ओह !
आज तो दिन ही खराब था …………….इंदुलेखा नें कहा ।
हाँ ….सही कह रही हो……..”जिस दिन श्याम न दीखें …..वो दिन तो सच में ही खराब ही है …….श्रीराधा रानी के नेत्र सजल हो उठे ।
अरे ! लाडिली ! ये तो सही बात है …….पर अब जाएँगी कैसे बरसानें ?
और अगर ये बात बृषभान बाबा को पता चल गयी कि आप और हम यहाँ फंस गए हैं ….तो वो कल से आपको कहीं भी जानें आनें नही देंगें ।
ये बात सुनते ही…….श्रीराधा रानी और दुःखी हो गयीं……..कि कल से हम नही आ पाएंगीं …..और कल भी श्याम सुन्दर को नही देख पाएंगीं !
ललिते ! कुछ कर ……कोई नौका कहीं से आरही हो या जा रही हो ……उसे मोल हम ज्यादा देंगीं, पर हमें ले जाए …..जल्दी ……….नही तो कल हम नही आ पाएंगी ……….श्रीराधा रानी ललिता सखी से कहनें लगीं ।
देख रही हूँ ……..शाम भी ढलनें वाली है ……..मुझे ही डाँट पड़ेगी कीर्ति मैया की ………………सब सखियाँ यमुना में कोई नौका वाला मिले यही देखनें लगी थीं ………………
तभी –
“ये जग नैया हमार, नैया में हम हैं और हम में किनार”
बड़े प्यार से गाता हुआ……मस्ती में झूमता हुआ……एक सुन्दर सा किशोर ………सिर में गमछा बाँधे …….. हाथ में पतवार चलाते हुए नौका को लेकर चला आरहा था ।
ओ ! केवट ! केवट ! सुन ! सारी सखियाँ चिल्ला पडीं ।
पर ये किसी की सुन ही नही रहा ………..बस अपनी ही मस्ती में नौका चलाये जा रहा है ……………
“करें बिन पैसा पार, नैया में हम हैं और हम में किनार”
गानें में ही इतना मस्त है …..कि उसे किसी की आवाज ही सुनाई नही दे रही …………….।
क्रमशः ….
शेष चरित्र कल –
!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 22 !
“वो अलबेला केवट” – एक प्रेम की झाँकी
भाग 3
“ये जग नैया हमार, नैया में हम हैं और हम में किनार”
बड़े प्यार से गाता हुआ……मस्ती में झूमता हुआ……एक सुन्दर सा किशोर ………सिर में गमछा बाँधे …….. हाथ में पतवार चलाते हुए नौका को लेकर चला आरहा था ।
ओ ! केवट ! केवट ! सुन ! सारी सखियाँ चिल्ला पडीं ।
पर ये किसी की सुन ही नही रहा ………..बस अपनी ही मस्ती में नौका चलाये जा रहा है ……………
“करें बिन पैसा पार, नैया में हम हैं और हम में किनार”
गानें में ही इतना मस्त है …..कि उसे किसी की आवाज ही सुनाई नही दे रही …………….।
केवट ! ओ केवट ! इस आवाज को सुना उसनें …….
क्यों की ये आवाज श्रीराधा रानी नें लगाई थी ।
हाँ …..क्या हमें कह रही हो ? जोर से चिल्लाया ।
हाँ ….तुम्ही से कह रही हैं ……..पहले इधर तो आओ !
ये बात भी श्रीराधा रानी नें कही थी………लो आगये …….
चार पतवार जोर से क्या मारी ………….नौका आगयी ।
हाँ अब कहो …………….पतवार को लेकर खड़ा हो गया ……त्रिभंगी झाँकी है इसकी ……..साँवरा है …………..
अच्छा ……सुन केवट ! हमें बरसानें जाना है ……. हमें पहुँचा दे ।
ललिता सखी नें कहा ……..पर ये बड़ा विचित्र केवट है …….देख ही नही रहा ….ललिता सखी को ………ये तो अपलक श्रीराधा रानी को ही देख रहा है ।
ओ ! मल्लाह के ! सुन तो ………….इधर देख इधर !
ललिता सखी नें थोडा डाँटा ।
देखो ! हमारे पास समय नही है …….रात होंने वाली है ……….इसलिये हमें जाना है …………..हम तो इनके लिये आये थे …..ये कहते हुए फिर श्रीराधा रानी को देखनें लगा ।
हे केवट महाराज ! हमें पार लगा दो”……..ललिता नें थोड़ी चतुराई से काम निकालना चाहा ।
हाँ ….ऐसे बोलोगी …….तो हम सोच भी सकते हैं ………केवट थोडा भाव खा रहा है ।
अब बातें न बनाओ ………हम को बैठा लो ……..और पार ले चलो ।
ललिता नें प्रार्थना की मुद्रा ही अपनाई ………।
हूँ …………..केवट उछलता हुआ नौका से नीचे उतरा ………..
बैठो ! श्रीराधा रानी को देखते हुए सखियों से बोला ।
सब सखियाँ जैसे ही चढ़नें लगीं नौका में……….
रुको ! रुको ! जोर से चिल्लाया केवट ।
अब क्या हुआ ? हमनें क्या अपराध कर दिया ?
देखो ! मेरी नाव कितनी सुन्दर और साफ़ है …….और तुम लोगों के पैर !
कितनें गन्दे हैं ………….पहले धो लो …………….फिर बैठो ।
ठीक है …………..हम यमुना में पैर धोकर ही बैठेगीं …………
सब सखियाँ धोनें लगीं अपनें अपनें पैर …………..
ऐसे नही होगा ……………तुम्हारे धोनें से नही होगा …….मल मल के मैं ही धोऊंगा …………..केवट की जिद्द है ।
ये क्या बात हुयी ? सखियाँ बोलीं ।
बस मेरी बात माननी पड़ेगी .....नही तो हम गए .........केवट नाव में बैठनें लगा ।
अच्छा ! अच्छा ! रुको ……….लो धोलो हमारे पैर ……..
सखियों नें कहा ।
कठौता ले आया केवट……. और ऊपर से जल डालते हुए सखियों के पैर धो दिए ……….अब बैठ जाओ …………..
चलो स्वामिनी जू ! सखियों नें श्रीराधा रानी से कहा ।
ना ………इनके पाँव भी तो धोऊंगा मैं ……केवट नें श्रीजी को देखा ।
श्रीजी कुछ चौंकी …………………
बैठ गया केवट…….और श्रीजी के चरणों को मल मल के धोंने लगा ।
अब मैं बैठूँ नौका में ! ………..मधुर वाणी में फिर श्रीजी बोलीं ।
आहा ! कितनी मीठी बोलती हैं ये ……पर आप स्वयं बैठेंगी तो मिट्टी फिर लग जायेगी और मेरी नाव फिर गन्दी हो जायेगी ………
तो ? मुस्कुराती हुयीं श्रीराधा रानी नें पूछा ………..
मैं आपको गोद में उठाकर ले जाता हूँ ………….केवट मुस्कुराया ।
नही , .आपको ये कैसे छू सकता है श्रीजी ? सखियों नें मना किया ।
छूनें दे ……….श्रीराधा रानी आज ये क्या कह रही थीं ।
देखा ! तुम्हारी स्वामिनी तुमसे समझदार हैं ……ये कहते हुए श्रीराधा रानी को केवट नें अपनी गोद में उठा लिया ….और नौका में बिठा दिया ।
अब तो चलाओ नौका ! ……….सखियों नें फिर विनती की ।
श्रीराधा रानी को देखते हुये नौका चलानें लगा था वो अलबेला केवट ।
देखो श्रीजी ! इसके मन में कपट भरा है ……देखो ! कैसे आपकी ओर ही देखे जा रहा है……..आप मत देखो इस की ओर ।
ललिता सखी नें श्रीराधा रानी से कहा ।
अब हमारी नौका नही चलेगी ………….केवट नें यमुना की बीच धार में रोक दिया नाव को …………
अरे ! अब क्या हुआ ? सखियाँ परेशान हो गयीं थीं केवट से ।
हमें भूख लगी है ……….तुम्हारी मटकियों में क्या है ? और देखो ! जब हमें भूख लगती है ना …..तब हमसे कोई काम नही होता !
पतवार छोड़ दिया ये कहते हुए ।
दे दो सारा दही इसे सखी ! …………इसी के भाग्य में था हमारा ये माखन …………श्रीराधा रानी नें सबको कहा ।
हाँ …..लाओ !
….और .सारा दही माखन देखते ही देखते खा गया वो केवट तो ।
डकार ली ………..आहा ! सखी अब हमें नींद आरही है ……….क्यों की हम जब कुछ खा लेते हैं ना ……तब हम से कुछ काम नही होता ।
अरे ! तू पागल है क्या ! सखियाँ चिल्लाईं ………..
पर देखते ही देखते वो केवट तो गिरा श्रीराधा रानी के चरणों में ……
पर जैसे ही गिरा ……..तो उसकी फेंट दीख गयी श्रीराधारानी को ।
अरे ! इसकी फेंट में क्या है ?
ललिता उठीं और फेंट में से…………..अरे ! ये तो बाँसुरी है ।
पर ये तो हमारे कृष्ण की बाँसुरी है ! ललिता सखी नें कहा ।
तब मुस्कुराते हुए श्रीराधा के चरणों को चूमते हुए कृष्ण उठ खड़े हुए ।
ओह ! तो तुम हो केवट महाराज ! सखियों नें बाँसुरी से ही पिटाई करनी शुरू कर दी …….पागल हो क्या ! बाँसुरी टूट जायेगी ……….कन्हैया चिल्लाये …..और सामनें देखा तो…….श्रीजी खड़ी मुस्कुरा रही थीं ।
आगे बढ़े ……और अपनें बाहों का हार अपनी आल्हादिनी के गले में डाल दिया ………….सारी सखियाँ आनन्दित हो उठीं थीं ।
बरसाना कब आगया किसी को पता भी न चला था ।
हे वज्रनाभ ! ये है अद्भुत प्रेम की लीला ……………ये अनादि काल से ब्रह्म और आल्हादिनी में चल ही रही है …….और चलती रहेगी ।
ये प्रेम लीला है ……..यही है …..जो सत्य है …….बाकी सब झूठ है ।
प्रेम सत्य है ……प्रेम ही सत्य है ……….महर्षि बार बार बोल रहे थे ।
“रे प्रेम सुन चुके हैं तेरी अकथ कहानी “
शेष चरित्र कल –
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