Niru Ashra: 🌳🌳🌻🌻🌳🌳
!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 152 !!
गोलोक धाम
भाग 2
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तभी नन्द भवन का द्वार खुला ………………..
क्यों बालकों ! तुम्हे नींद भी आती है या नही ?
सुबह ब्रह्ममुहूर्त भी हुआ नही …….कि आगये !
मैया यशोदा आगयीं थीं……और स्नेह मिश्रित डाँट लगा रही थीं ।
हम कुछ कह तो रहे नहीं हैं …………सोनें दे मैया कन्हैया को …….बस हमें एक बार देखनें दे ………….मनसुख कहाँ माननें वाला था……भीतर ही चला गया…………देख ! उठाना नही ………….मनसुख ! मारूँगी तुझे…….मैया यशोदा गाल में हल्की चपत देती हैं मनसुख के ।
पर कन्हैया जाग गए ………मनसुख ! कन्हैया नें जागते ही कहा ।
मैया ! मैने नही जगाया है …….ये स्वयं जागा है …………..
भाग यहाँ से ………..अभी तो उजाला भी नही हुआ ………..
केलवा करेगा मेरा लाला ……..फिर स्नान करके ………..तैयार होकर आएगा ………जाओ तुम लोग ।
मैया नें भगा दिया मनसुख को……पर बड़ा विचित्र है ये तो, जाते जाते बोला …….कन्हैया ! .हम सब बाहर हैं …..जल्दी आजा ।
अब भला कन्हैया का मन लगेगा ! ………….
जल्दी करके …………..माखन रोटी खाकर …………..घुँघरालें केशों को मैया नें संवार दिया है …………….नीले रँग में पीली पीताम्बरी ……..मोर मुकुट ………हाथ में लकुट ………..फेंट में बाँसुरी ……………
उफ़…….क्या रूप है…………
महर्षि आगे कुछ बोल न सके ……………गोलोकधाम की ये लीलाएं नित्य ऐसे ही चलती रहती हैं …….ये नित्य धाम है ।
क्रमशः ….
शेष चरित्र कल –
🌷 राधे राधे🌷
] Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 7 : भगवद्ज्ञान
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श्लोक 7 . 21
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यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति |
तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम् || २१ ||
यः यः – जो जो; याम् याम् – जिस जिस; तनुम् – देवता के रूप को; भक्तः – भक्त; श्रद्धया – श्रद्धा से; अर्चितुम् – पूजा करने के लिए; इच्छति – इच्छा करता है; तस्य तस्य – उस उसकी; अचलाम् – स्थिर; श्रद्धाम् – श्रद्धा को; ताम् – उस; एव – निश्चय ही; विदधामि – देता हूँ; अहम् – मैं |
भावार्थ
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मैं प्रत्येक जीव के हृदय में परमात्मा स्वरूप स्थित हूँ | जैसे ही कोई किसी देवता की पूजा करने की इच्छा करता है, मैं उसकी श्रद्धा को स्थिर करता हूँ, जिससे वह उसी विशेष देवता की भक्ति कर सके |
तात्पर्य
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ईश्र्वर ने हर एक को स्वतन्त्रता प्रदान की है, अतः यदि कोई पुरुष भौतिक भोग करने का इच्छुक है और इसके लिए देवताओं से सुविधाएँ चाहता है तो प्रत्येक हृदय में परमात्मा स्वरूप स्थित भगवान् उसके मनोभावों को जानकर ऐसी सुविधाएँ प्रदान करते हैं | समस्त जीवों के परम पिता के उप में वे उनकी स्वतन्त्रता में हस्तक्षेप नहीं करते, अपितु उन्हें सुविधाएँ प्रदान करते हैं, जिससे वे अपनी भौतिक इच्छाएँ पूरी कर सकें | कुछ लोग यह प्रश्न कर सकते हैं कि सर्वशक्तिमान ईश्र्वर जीवों को ऐसी सुविधाएँ प्रदान करके उन्हें माया के पाश में गिरने ही क्यों देते हैं? इसका उत्तर यह है कि यदि परमेश्र्वर उन्हें ऐसी सुविधाएँ प्रदान न करें तो फिर स्वतन्त्रता का कोई अर्थ नहीं रह जाता | अतः वे सबों को पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान करते हैं – चाहे कोई कुछ करे – किन्तु उनका अन्तिम उपदेश हमें भगवद्गीता में प्राप्त होता है – मनुष्य को चाहिए कि अन्य सारे कार्यों को त्यागकर उनकी शरण में आए | इससे मनुष्य सुखी रहेगा |
जीवात्मा तथा देवता दोनों ही परमेश्र्वर की इच्छा के अधीन हैं, अतः जीवात्मा न तो स्वेच्छा से किसी देवता की पूजा कर सकता है, न ही देवता परमेश्र्वर की इच्छा के विरुद्ध कोई वर दे सकते हैं जैसी कि कहावत है – ‘ईश्र्वर की इच्छा के बिना एक पत्ती भी नहीं हिलती |’ सामान्यतः जो लोग इस संसार में पीड़ित हैं, वे देवताओं के पास जाते हैं, क्योंकि वेदों में ऐसा करने का उपदेश है कि अमुक-अमुक इच्छाओं वाले को अमुक-अमुक देवताओं की शरण में जाना चाहिए | उदाहरणार्थ, एक रोगी को सूर्यदेव की पूजा करने का आदेश है | इसी प्रकार विद्या का इच्छुक सरस्वती की पूजा कर सकता है और सुन्दर पत्नी चाहने वाला व्यक्ति शिवजी की पत्नी देवी उमा की पूजा कर सकता है | इस प्रकार शास्त्रों में विभिन्न देवताओं के पूजन की विधियाँ बताई गई हैं | चूँकि प्रत्येक जीव विशेष सुविधा चाहता है, अतः भगवान् उसे विशेष देवता से उस वर को प्राप्त करने की प्रबल इच्छा की प्रेरणा देते हैं और उसे वर प्राप्त हो जाता है | किसी विशेष देवता के पूजन की विधि भी भगवान् द्वारा ही नियोजित की जाती है | जीवों में वह प्रेरणा देवता नहीं दे सकते, किन्तु भगवान् परमात्मा हैं जो समस्त जीवों के हृदयों में उपस्थित रहते हैं, अतः कृष्ण मनुष्य को किसी देवता के पूजन की प्रेरणा प्रदान करते हैं | सारे देवता परमेश्र्वर के विराट शरीर के अभिन्न अंगस्वरूप हैं, अतः वे स्वतन्त्र नहीं होता | वैदिक साहित्य में कथन है, “परमात्मा रूप में भगवान् देवता के हृदय में भी स्थित रहते हैं, अतः वे देवता के माध्यम से जीव की इच्छा को पूरा करने की व्यवस्था करते हैं | किन्तु जीव तथा देवता दोनों ही परमात्मा की इच्छा पर आश्रित हैं | वे स्वतन्त्र नहीं हैं |
Niru Ashra: !! निकुँजोपासना का सिद्धान्त !!
( “सिद्धान्त सुख” – 60 )
गतांक से आगे –
॥ दोहा ॥
अति अनूप साँचे ढरी, निरखि होत मति भोरि ।
अद्भुत स्यामा स्याम की, सहज भाँवती जोरि ॥
॥ पद ॥
स्यामा स्याम भाँवती जोरी। अविचल नित्य किसोर-किसोरी ॥
साँवर पिय-प्यारी तन गोरी। सोभा बरनि सकें कबि कोरी ॥
अद्भुत रूप रंग रस बोरी। अति अनूप साँचे सी ढोरी ॥
श्रीहरिप्रिया करत चित चोरी। निरखत नैंन होति मति भोरी ॥ ३२ ॥
*अद्भुत जोरी है ये …और सबसे बड़ी बात कभी न टूटने वाली जोरी है ये ….अचल जोरी है ….प्रेममयी और अतिसुन्दर जोरी …….हरिप्रिया जी ने अपने नेत्रों को बन्द कर लिए थे …किए क्या था हो गये थे ….नेत्र अपने आप बन्द हो गये थे …..यह जुगल जोरी हरिप्रिया जी के हृदय में ही प्रकट हो गयी थी …..इसलिए हरिप्रिया जी पूर्ण भाव में डूब चुकी थीं । और ? मैंने जब देखा वो अब बोलेंगी नहीं …तो मैंने उन्हें जानबूझकर कर पूछा ….और ? हरिप्रिया जी नेत्रों के कोरों से अश्रु बहाती हुयी बोलीं …..कौन बोल सकता है ? इस अति सुंदर भावात्मक साँचे में ढली ये जोरी …इसका वर्णन कौन कर सकता है । बुद्धि भी पंगु हो गयी है ….मन चित्रवत स्थिर हो गया है ….और चित्त तो भाव में पिघलकर अपना अस्तित्व ही खो बैठा है …और अहंकार ? वो तो अब इस अद्भुत जोरी में ही समा चुका है …..हरिप्रिया जी नेत्र खोलती हैं …मुझे देखती हैं …और कहती हैं ….बड़े भागवान हैं हम लोग ….जो इन जोरी को निहारते निहारते मुक्ति को भी तुच्छ बना बैठे हैं ….बस चाहिए तो यही …..ये अद्भुत जोरी । बस इन्हें निहारते रहें ….निहारते रहें …..हरिप्रिया जी इतना ही बोलकर फिर नेत्र बन्द कर लेती हैं ।
शेष अब कल –
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